मेरी संस्था खमीर देसी उन पर कुछ सालो से काम कर रही है। हमारा उद्देश्य था कि हम देसी उन को कैसे दोबारा से खड़ा करे। वे सारे समुदाय जो कभी इसपे काम करते थे, कैसे उनको उनके पारंपरिक काम में वापस लाकर उनका पुराना गौरव वापस लाया जाये। इसी सब मकसद से हमने कई गाँवो में अपने साथ महिलाओं को जोड़ा। उन सभी को उनके घर पर उनका पारंपरिक काम दिलवाया। पर अब हमें खुद को थोड़ा समेटना पड़ रहा है। क्योंकि तमाम प्रयासों के बाद भी हम इसके लिए उस स्तर का बाजार नहीं बनवा पा रहे है। नतीजतन हमें हमारा काम समेटना पड़ रहा है। इस बदलाव की क़ीमत किसे चुकानी पड़ रही है, ये देखना महत्वपूर्ण साबित होता है।
देसी उन की मूल्य श्रृंखला
स्वदेशी भेड़ो या ऊँटो के शरीर से ली गयी उन को हम देसी उन कहते है। ये स्थानीय परिस्थितियों में अच्छे से ढलने में सक्षम होती है। साथ ही चरवाहों को अपने उत्पादों, जैसे मांस, दूध, उन इत्यादि से मदद करती है। इसकी मूल्य श्रृंखला की बात करे तो इसमें सबसे पहले आते है चरवाहे जो भेड पालते है। उसके बाद कर्तन या उन को काटने वाले लोग आते है। उसके बाद उन में बहुत सारी ग्रीस और कांटे होते है। जिनको समुदाय के लोग या जो व्यापारी इसे खरीदते है वो साफ़ करते है। फिर आती है स्पिनर बहने जो उन कताई करती है। उसके बाद बुनकर उनको बुनकर व्यापारिओं को देता है। जो इनसे अलग अलग उत्पाद जैसे जैकेट, शर्ट, केडिया इत्यादि बना के पूरी वैल्यू चैन को चलने में मदद करते है।
हमारा प्रयास
देसी उन को दोबारा से खड़ा करने के लिए हमने एक संस्था के तौर पर कई प्रयास किये। जैसे पहले लोग अपनी भेड़ो का उन हटवा कर उसे फेंक देते थे। अब हम उस उन को ख़रीदना शुरू किया। इससे एक ओर पशुपालन को बढ़ावा मिला है और लोगों कि आय बढ़ी। फिर हमने बहुत सी ऐसी महिलाओं को दोबारा से ट्रेनिंग दी, जिनके घरो पर कभी इस कला पर काम होता था।ये महिलाये मूलतः रबारी समुदाय से आती है, इस समुदाय कि महिलाये अतीत में कताई करती थी। अब वो दोबारा से उन कात कर अपना गौरव पा रही है। इसके बाद बुनकरों से हमने नयी डिज़ाइन पर बुनाई करवाई और कुछ नयी चीजे सिलवाई भी। इन सब का संयुक्त परिणाम रहा की एक बार फिर से देसी उन अपने पुराणी सफलता को दोहराने लगा।
रुकावट कहाँ हैं
देसी उन बहुत ही कड़ा होता है और चुभता है। इसके साथ इसमें कीड़े भी जल्द ही लग जाते है। इसकी पूरी मूल्य श्रृंखला को चलते हुए इसकी कीमत ज्यादा हो जाती है। फिर यह दूसरे उन से मुकाबला नहीं कर पाती। इन सब का परिणाम यह है की अब इसकी मांग में भयंकर गिरावट है। बाजार में बहुत से सिंथेटिक उन आ गए है। जो इन कमियों को पार करते हुए दिखते है।
बदलाव की वजह
सब कुछ शुरू करने के लिए हमने महिलाओं को ट्रेनिंग दी। पूरे कच्छ में १०० से ज्यादा महिलायें जोड़ी, जो हर महीने घर से ही काम कर तीन से पांच हज़ार तक आराम से कमा लेती थी। उस धागे से ख़मीर आगे रग, कपड़े, दाबड़ा जैसी चीज़ें बनाता था। शुरू शुरू में यह सब करने का जिम्मा हमने अपने कंधो पर लिया। पर आखिर कब तक ? एक न एक समय इसको बाजार में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। उस समय कौन इस पूरी मूल्य श्रृंखला को चलाएगा। हमारी संस्था के तौर पर सीमाएं है।
एक लंबे समय तक काम करने के बाद हमे महसूस हुआ। हम सभी महिलावों को साथ में लेकर नहीं चल सकते। इसलिए हमने इन बहनों से रेटिया (एक तरह का चरखा) वापस ले लिया। और इनके लिए पेटी चरख़ा विकल्प के रूप में लेके गए, जिसके ज़रिए वो सूत कताई कर पाए। लेकिन शायद उनके लिए रेटिया छोड़ के पेटी चरख़ा अपनाना इतना आसान नहीं रहेगा।
हमारी सीमाएं
जब भी हम सामाजिक क्षेत्र की संस्था या सरकार की बात करते है। तो हमें उम्मीद होती है की वो सारे उतार चढ़ाव देख लेंगे। जैसे कामो पर पड़ने वाला असर, कच्चे माल कि उपलब्धता या ऐसी कोई भी जरुरत। ऐसी तमाम जरूरतों पर हम एक संस्था के रूप में कोशिश करते है अच्छा करने की। इसके लिए कुछ जगहों पर हम सीधे कारीगरों से या अपने समुदायों से बनी वस्तुओं को संस्था के माध्यम से सीधे बाजार में भेज कर उनकी मदद करते हैं। पर कुछ जगहों पर संसाधनों के अभाव या अन्य कारणों से ऐसा नहीं हो पता। तो वहां पर यह काम स्वयं सहायता समूह या दूसरे उद्यमी कर रहे है। पर हर दिन बदल रहे बाजार में एक सवाल मेरे मन में आता है। क्या ऐसे में हमारी जैसी संस्थाए या लोग, इन बदलावों का सामना करने में समुदायों कि मदद कर पाएंगे।
बदलाव की कीमत
इन सब बातो को देख के मुझे लगता है, कि एक तरफ हम समुदाय को मजबूत करने के लिए अलग अलग ढंग से प्रयास करते है। जहां कई बार हम सफल होते है। तब तक तो सब अच्छा होता है, पर जब हम सफल नहीं हो पाते तो हमारे पास क्या विकल्प बचता है? जैसे एक बहन, एक गांव में हमसे पूछती है कि “अब अगर उन का काम नहीं होगा तो हमारा क्या होगा? हम क्या करेंगे?”
समुदाय को हमारी जरुरत?
अभी हाल ही में हमारी संस्था ने एक मूल्याँकन किया। एक संस्था के रूप में अभी हमारी जरूरत कारीगरों को है या नहीं है, इसकी जाँच करना यह हमारा मुख्य उद्देश था। इस मूल्याँकन दरम्यान “क्या आप खुद जीविका कमाने के योग्य हो गए हो? और अपना काम और काम से रोजगारी खुद प्राप्त कर सकते हो? अगर खमीर नहीं होगी तो क्या होगा?” इस तरह के बहोत सारे सवाल कारीगरों से पूछे। लोगों का तो यह कहना था, कि खमीर को तो होना ही चाहिए। संस्थाने हमारी इतनी मदद की है। और उसकी वजह से हमें हमेशा काम मिलता रहा है। और वहीं कुछ कारीगरों का यह मानना था कि उन्हें डिजाइन में नयापन कैसे लाया जाये और उनकी बनाई हुयी चीजों को बाज़ार में अच्छा स्थान कैसे दिलाया जाये? यह भी सीखाया जाना चाहिए।
ऐसे में डिज़ाइन, बाजार और ऐसे बहुत से छोटे और बड़े प्रश्न उभर कर आते है। जिनपर कौन काम करेगा, संस्था करेगी तो कब तक? यदि संस्था नहीं करेंगी तो समुदाय कब इतना सक्षम होगा कि वह यह खुद के लिए कर पायेगा?
इन सब बातों को सोचते हुए मुझे इंडिया फ़ेलो प्रशिक्षण कार्यक्रम दौरान की एक बात याद आती है। कि कच्छ जैसी परिस्थितियों में हमारे पास में विकल्प क्या है? क्या हम सब कुछ बाजार पर छोड़ सकते हैं? या फिर हमें चैरिटी के साथ वेलफेयर जैसे सोच की जरूरत है। यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल है। अभी मेरे पास में इसका एक ही जवाब है कि हमे डेवलपमेंट के लिए दोनों में से किसी भी सोच को पकड़ते है। तो कुछ लोग हमारे हाथ से निकल जाएंगे, या व्यवस्था कमजोर ही बनी रहेगी। इसमें सबसे अच्छा काम तब होगा जब दोनों एक दिशा में मिल के काम करे।
शिवांशुद्वारा लिखित अन्य ब्लॉग: कार्यक्षेत्र में महिलाओं की संख्या को कैसे बढ़ाया जाये, हैंडीक्राफ़्ट के दाम इतने महंगे क्यों है?
0 Comments