शहर में कहाँ है यह हवा पानी

by | Jul 17, 2023

गांव तहसील से करीब १० किलोमीटर की दूरी पर है. गांव में मोबाइल नेटवर्क नहीं है. आठवीं के बाद गांव में स्कूल नहीं है, स्वास्थ्य समस्याओं के लिए भी १० किलोमीटर या उससे ज़्यादा की दूरी तय करनी पड़ती है. और बुनियादी सुविधाओं के लिए जब यह गांव तहसील की तरफ देखता है तो रास्ते की ख़राब सड़कें इसकी राह को बहुत मुश्किल कर देती है.

इन सब चुनौतियों के बीच में जब गांव की लक्ष्मी बेन से हम गांव से निकलने के बारे में बात करते हैं तो वो बोलती हैं की शहर जाएंगे तो कहाँ मिलेगी ये हवा पानी. खुद का गांव तो खुद का है. बाहर जाएंगे तो कौन अपने रिश्ते वाले मिलेंगे वहां

सुबह के करीब १० बजे रहे होंगे जब मैं अपनी टीम के साथ नखत्राणा के लिए निकल गया। वहां पहुंच कर हम हमारी एक आर्टिसन लक्ष्मी बेन, जो कि प्लास्टिक की बुनाई करती हैं, उनके यहां गए। उनके लिए अपने गांव में अपने लोगों के बीच रहना काफी अहम है. वह मानती हैं कि अपने परिवार के साथ समय बिताना और अपनी मर्ज़ी से काम करना ही सब कुछ है. वह भविष्य के बारे में ज़्यादा नहीं सोचती और अभी के लिए बस घर चलाने में अपने पति का हाथ बटाना चाहती हैं. बच्चों के बारे में पूछने पर वो कहती है कि इनको इतना योग्य बनाना है की यह अपना भविष्य ख़ुद चुन सके।

लक्ष्मी बेन उन बहुत से कच्छ के कारीगरों में से एक है जो खमीर के साथ काम करके अपने भविष्य और अपनी आत्मनिर्भरता की कहानी लिख रहे हैं. मैं इन्डिया फेलो के तौर पे खमीर में कारीगरों के साथ काम कर रहा हूँ.

लक्ष्मी बेन के परिवार में उनके पति पुज्जा जी के अलावा उनके ४ बच्चे हैं जो अभी पढाई कर रहे है. उनके पति पिछले २५ साल से काला कॉटन की बुनाई का काम कर रहे हैं. वह कहते हैं कि इस काम को वो कर तो लेते थे पर उनको माल लाने, ले जाने, और बेचने में बहुत तकलीफ होती थी. फिर वो खमीर के संपर्क में आये और अब ८ साल से साथ जुड़कर उसी काम को बेहतर तरीके से कर पा रहे हैं.

कच्छ जैसे सुदूर क्षेत्र में रहने की वजह से यहाँ लोगों के पास ज़्यादा काम नहीं होता है. और फिर काम करने के कम अवसर मिलने की वजह से जो लोग गांव में रह भी रहे होते हैं वो भी गांव छोड़ कर निकलने लगते हैं. इस वजह से गांव में विकास की प्रक्रिया और भी उदासीन होने लगती है. ऐसे में किसी के लिए भी अपने पारम्परिक काम को समझते हुए उसके बदलते बाज़ार में खड़ा रहना मुश्किल है. साथ ही बाहरी दुनिया से कम जुड़ाव होने की वजह से उनके अंदर अपने काम को आगे बढ़ाने के अन्य विकल्पों का इस्तेमाल करने का आत्मविश्वास भी नहीं आ पा रहा है.

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यह सब उन तक उपलब्ध संसाधनों की पहुँच को भी उनके लिए मुश्किल कर दे रहा है और उनका लाभ न ले पाने की वजह से उनका जीवन और मुश्किल होता जा रहा है. ऐसे में मेरे सहकर्मी राणा भाई ने ८ साल पहले पुज्जा जी को खमीर के साथ जोड़ा. उनको उनके काम के प्रति विश्वास दिलाया और कच्चा माल, मशीन व अन्य ज़रूरी चीज़े भी उन्हें उपलब्ध कराई. इन सब का असर ये हुआ कि आज वो अच्छी तरह से अपना घर चला पा रहे हैं.

वो कहते हैं कि राणा भाई उनके लिए जो करेंगे वो अच्छा ही होगा. उनके ये शब्द जहां एक तरफ राणा भाई पर भरोसा दिखाते हैं, वही दूसरे तरफ उनकी ये निर्भरता उनको असुरक्षित भी करती है.

उनके पास न तो खेत है और न ही जानवर, और शहर या किसी अन्य काम से जुड़ने की दूरी भी है. गांव में रहना उनके लिए एक अपनापन का अहसास कराता है. वो अपनी जड़ों, अपने लोगों से किसी भी कीमत पर नहीं बिछड़ना चाहते. वे भविष्य की चिंता नहीं करते और वर्तमान में जीते हैं. उनका मानना है कि जैसे आज हमें सब कुछ मिल रहा है, वैसे ही आगे भी मिलेगा. बच्चों के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि वे उन्हें पढ़ा-लिखा रहे हैं, अब उसके साथ आगे क्या करना है, ये बच्चे खुद तय कर सकते हैं. गांव में १०वीं के बाद आगे की पढ़ाई की सुविधा नहीं है तो वे सीधे १२वीं की परीक्षा दे सकते हैं, लेकिन उसकी पढ़ाई करने के लिए उनके पास स्कूल नहीं है.

लक्ष्मी बेन ने भी अपनी पति के नक़्शे कदम पर चलते हुए खमीर से प्लास्टिक वीविंग सीखी और उसके बाद करीब 1 साल से यही काम करके अपने परिवार की जीविका में सहयोग कर रही हैं. उनके पास घर में एक छोटा सा टीवी है, जिस पर वे सत्संग सुनती हैं और सत्संग में सुनी गई बातों को अपने जीवन में अपनाने की कोशिश भी करती हैं. उनकी आकांक्षाओं के बारे में पूछने पर वे कहती हैं कि अभी उनका जो घर है, वह उनके लिए पर्याप्त है, पर आगे जब उनके बच्चे बड़े हो जाएंगे, तो उन्हें एक बड़ा घर चाहिए होगा, जो उनका इकलौता सपना है.

उनसे बात करके मुझे एक बात समझ में आई और वह है कि उनका सशक्त होना बहुत ज़रूरी है ताकि वे अपनी बात दुनिया के सामने रख सकें. आज उनकी ज़िन्दगी की हर छोटी-बड़ी चुनौती में खमीर उनका साथ दे रहा है, पर आखिर कब तक? क्या उनकी कला उन्हें वह आत्मसम्मान दे पाएगी, जहां वे अपने लिए अपनी बात दुनिया के सामने रख पाएं? क्या वे खुद के लिए निर्णय ले पाएंगी?

मेरे मन में एक और बड़ा सवाल है कि उनके गांव में उनके जैसे और लोगों तक मौके कब तक पहुंचेंगे. क्या गांव की सड़कें गांव वालों के सपनों का बोझ उठा पाएंगी, या गांव से निकलकर शहरों की भागदौड़ भरी जिंदगी की ओर जाना ही एकमात्र विकल्प है?

इस परिवार और ऐसे कई परिवारों के लिए गांव उनकी आस्था, उनका प्यार है और वहां की हवा-पानी में उनका दिल बसता है. वे इसे आखिरी साँस तक नहीं छोड़ना चाहते और इसी कारण वे शायद कहते हैं कि बाहर हमें सब मिलेगा, पर कहां मिलेगी यह हवा, यह पानी.

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1 Comment

  1. Vikram

    It’s a perpetual question, isn’t it? Not all people will grow at the same rate and not all people in the village can be given equal and diverse opportunities by a singular institute. Great read Shivanshu! Next time I would like to read about if the villagers understand your point of view in this article!

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