हैंडीक्राफ़्ट के दाम इतने महंगे क्यों है?

by | Dec 1, 2023

हैंडीक्राफ़्ट यानी हाथ से बना सामान। जब भी मैं इनके बारे में सुनता हूँ तो एक ही बात ज़ेहन में आती है कि ये इतने महंगे क्यों होते हैं। और जब मैं इनको बनाने की कहानी और मेहनत के बारे में सुनता हूँ तो लगता है कि हैंडीक्राफ़्ट का सामान खरीदना चाहिए और उसे बढ़ावा देना चाहिए पर जैसे ही प्राइस टैग पर नज़र जाती है तो एहसास होता है कि यह तो पहुँच से बाहर है, इसको मैं खरीद ही नहीं सकता। इस विचार के साथ मैं इसके किसी विकल्प की ओर चला जाता हूँ। पिछले कुछ महीनों में खमीर के साथ काम करते हुए इस बारे में थोड़ा और समझ आया, और आज इस लेख के माध्यम से मैं अपनी समझ साझा कर रहा हूँ।

हैंडीक्राफ़्ट महंगे नहीं हैं

अपने स्थान पर इनकी कीमत सही है। पर जब हम इनकी तुलना बाकि चीजों से करते हैं तो पाते हैं कि यह बहुत महंगे हैं, जैसे आज आप कोई कपड़ा खरीदने जाओ तो कपड़े को बनाने कि प्रक्रिया में ज्यादातर चीजें ऑटोमेटेड हो चुकी हैं या उनका इस्तेमाल आसान है पर वहीं जब हम हाथ से बने कपड़े देखते हैं तो हर बार क्राफ़्ट में एक हाथ की सफाई लग रही है जो इसको दूसरों से अलग करती है तो क्राफ़्ट की कीमत तो वही है, पर हमें ऐसा लगता है कि वो बहुत महंगा हो चुका है।

काम की गुणवत्ता 

क्राफ़्ट मशीन की तरह ज़्यादा उत्पादन पर नहीं बल्कि बेहतर उत्पादन पर ज़ोर देते हैं। कभी आप कोई शर्ट सिलवाइए, अच्छे से नाप देकर अपनी ज़रूरतें बता कर और फिर उसे पहनिए, आपको निश्चित ही वो बहुत अच्छा लगेगा। तो ये बहुत आसानी से किसी भी क्राफ़्ट के अंदर संभव है, वहीं पर मशीन में इस तरह का काम बहुत मुश्किल है। तो जिस तरह से क्राफ़्ट में हर बार कुछ हटकर चीजें बनती हैं वो इन्हें बहुत खास बना देती है।

हैंडीक्राफ़्ट

औपनिवेशिक प्रभाव

भारत में आज़ादी के पहले तक जगह-जगह पर कपड़ों और दूसरे क्राफ़्ट का उत्पादन अलग-अलग समुदायों में होता था उनमें से कुछ बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे पाटन, सूरत, माहेश्वर, वाराणसी आदि। इनके अलावा और भी कई जगहों पर भारत में आज़ादी के पहले तक हमारी बहुत बड़ी आबादी न सिर्फ़ इनका उत्पादन करती थी बल्कि इसकी बहुत बड़ी खपत भी भारत में ही होती थी।

पर अंग्रेज़ों के भारत में आने के पश्चात और खास तौर पर 19वीं शताब्दी में जिस तरह से पूरे विश्व में उद्योगीकरण और मशीनीकरण हुआ उसने भारत में हथकरघा उद्योग की कमर तोड़ दी, बहुत से लोगों के पास से काम छीना और वो अपने पीढ़ियों से कर रहे काम को छोड़ कर फैक्ट्रियों की ओर मुड़ने को मजबूर हो गए। फैक्ट्रियों के अंदर भारी मात्रा में एक साथ उत्पादन होने लगा जिसके कारण सामान की कीमतें बहुत ही कम हो गयी, और जो चीजें सही कीमत पर मिल रही थी वो अब लोगों को और सस्ती मिलने लगी। इसके चलते लोग उन्हीं चीजों की ओर मुड़ने लगे और बाजारों से हाथ की बनी चीजें तेजी से गायब होने लगी।

इकॉनमी ऑफ़ स्केल

यह अर्थशास्त्र का एक शब्द है जिसका तात्पर्य है बहुत ज़्यादा मात्रा में उत्पादन करना जिससे कि अचानक से कीमत कम हो जाए और लोगों को वही चीजें कम दाम में मिलने लगें। जैसे कि अगर किसी को 1 मीटर कपड़ा बनाना हो तो वो अगर उसके लिए मशीन या बाकि लोगों को रखें तो उन्हें उस एक मीटर कपड़े के दाम में बहुत कुछ जोड़ना पड़ जाएगा जैसे कि मशीन का दाम, उसको लाने -ले जाने की कीमत और भी बहुत कुछ।

पर अगर वही ये १००० मीटर हो तो आप उतने ही खर्च में १००० मीटर भी बना लेंगे तो ऐसे में बने प्रोडक्ट कि कीमत बहुत कम हो जाती है और उत्पादनकर्ता को इसका भारी लाभ होता है। ऐसे में कंपनी इसको ज्यादा प्राथमिकता देती है और भारी मात्रा में उत्पादन करती है। पर यहां पर एक बात और देखने वाली है जो ये कहती है कि उत्पादन के साथ इतनी मांग भी पैदा करनी होती है और अगर आप नहीं कर पाए तो आप इतना बेच नहीं पाएंगे।

क्राफ़्ट का प्रचार

अब जब आपको मांग पैदा करनी है तो आप क्या करेंगे, आपको कुछ ऐसा दिखाना होगा कि आप बहुत ज्यादा अच्छा ऑफ़र दे रहे हैं और उसमें भी खरीदार का ही फायदा है और यही नहीं आप ये भी प्रयास करेंगे कि ज़्यादा से ज़्यादा खरीदी हो तो हो सकता है आप 1 वस्तु का दाम कम रखें पर 4 लेने पर बहुत कम। या आप कुछ ऐसा करेंगे कि ज़्यादा वस्तु ली जाए ताकि उपभोग को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जाए।

कारीगर की जिंदगी पर असर

मशीनीकरण के पहले या आज भी जहां पर भी क्राफ़्ट पर काम होता है वहां लोग बहुत ख़ुशी से रहते थे। उनका धंधा मांग पर जरूर निर्भर करता था पर इसके बावजूद क्राफ़्ट के लिए जिस तरह से वो अपने समुदाय या परिवार के साथ रहते थे और अपने बड़े पुरखों से सीख कर जिस तरह से इस कला को अपनी आगे वाली पीढ़ी तक पंहुचा रहे थे वो मिलना अब विरले ही है। अब उनको फैक्ट्री या फिर खेतो में या किसी के घर मज़दूर के तौर पर काम करना पड़ता है जहां उनका काम और उसका समय तय होता है। ऐसे में कारीगर अक्सर कार्यक्षेत्र में उपयुक्त देखरेख के अभाव में अपना आत्मबल भी खोने लगते हैं। ऐसे में बहुत जरुरी है कि आज जो भी कारीगर हैं वो अपना काम करते रहे इसके लिए इनको प्रोत्साहन मिलता रहे।

हैंडीक्राफ़्ट

क्राफ़्ट या कला क्यों

एक बहुत बड़ा सवाल मेरे मन में हमेशा से रहा है कि भले ही आप ज़्यादा या कम पढ़ो, कुछ बनने के लिए अपने शहर या अपने लोगों को छोड़ना ही पड़ता है। क्या हम वो सब कुछ अपने शहर में नहीं कर सकते हैं? गांधीजी ने अपने पूरे जीवन चरखा को बहुत बढ़ावा दिया। वो सबको चरखा चलाने के लिए कहते। उन्होंने विदेशी कपड़े का बहिष्कार करने को कहा। वो ग्राम स्वराज की बात करते थे। क्यों? क्योंकि जब आप कुछ अपने गांव में ही बनाएंगे और वहीं उसकी खपत होगी तो आप गैर-जरूरी उत्पादन नहीं करेंगे, लोगो को काम के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा और समुदायों की एक दूसरे के ऊपर निर्भरता बढ़ेगी, जिससे सामाजिक सौहार्द और कलात्मक प्रगति को बढ़ावा मिलेगा। कला व्यक्ति को कुछ और ही बना देती है, एक अलग तरह का इंसान। ये परिवर्तन मैंने कला के साथ ही देखा है।

इकॉनमी ऑफ़ स्केल के नुकसान

जहां एक ओर भारी मात्रा में उत्पादन से कीमत बहुत कम हो जाती है वहीं दूसरी ओर इस वजह से लोग ज़रुरत से ज़्यादा खर्च करते हैं। समाज में दिखावा बढ़ता है। हम अनावश्यक रूप से भारी उपभोग करने के लिए बहुत कुछ पैदा करते हैं जिसकी वजह से हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर बुरा असर हो रहा है। ऐसे में बहुत जरुरी है कि हम उतना ही पैदा करे जितना जरूरी हो।

गांधीजी ने एक बार कहा था, “विश्व में जो कोई भी उत्पात हो रहा है वो बड़े पैमाने पर माल बनाने के पागलपन के कारण ही है। यदि माल जहां आवश्यकता है वहां बने तो टकराव का कोई स्थान नहीं रहेगा।”

और यही नहीं हम उत्पादन किया हुआ सारा सामान इस्तेमाल करने की बजाय उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा बर्बाद भी कर रहे हैं जिसकी वजह से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है और कार्बन क्रेडिट में बढ़ोतरी हो रही है।

हैंडीक्राफ़्ट

यहां हम खुद से यह सवाल कर सकते हैं कि, “मैं क्या कहूं या क्या करूं”। तो जब भी आपको हाथ से बनी कोई चीज़ें दिखे तो कोशिश करें कि आप उसे खरीदें। उन लोगों या ऐसी संस्थाओं का समर्थन करें जो कारीगरों के साथ काम करती हैं। स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन पर ध्यान दें। कुछ भी खरीदने से पहले यह सोचें कि क्या मुझे इसकी जरूरत है या मुझे ये अपने साथ ले जाना चाहिए? और अगर न जरूरत हो तो न लें। साथ ही स्थानीय उत्पादों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दें।

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1 Comment

  1. Satya Narayan Roy

    Bahut achcha likha hai aap ne

    Reply

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