मुझे खमीर में काम करते हुए तीन महीने हो चुके हैं। पिछले तीन महीनों में फील्ड टीम के साथ बहुत सी नयी चीजों को सीखने व समझने का मौका मिला। इस दौरान मुझे कुछ बड़े और दिग्गज कुम्हारों से मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ जो कच्छ में पॉटरी को समझने आये थे। इनमें थे राजू जी जो पुणे में अपना म्यूज़ियम चलाते हैं और कला की अच्छी परख व जानकारी रखते है। उनके साथ थे राजेश जी जो मुंबई में अपना पॉटरी स्टूडियो चलाते हैं।
जब मैं पहली बार उनसे मिला तो मन में झिझक थी कि पता नहीं कैसे उनसे बात करूंगा या क्या मुझे उनसे मिलने जाना भी चाहिए या नहीं क्योंकि वो पॉटरी का काम देखने आये थे और मैं बुनाई में काम कर रहा था। फिर फ़ेलोशिप का एक बहुत ही महत्वपूर्ण मूल्य मुझे याद आया जो कि है openness to learn (सीखने के लिए खुलापन) और मैंने तय किया कि मैं उनसे मिलूंगा व बात करूंगा।
सूरल भिट से शुरुआत
सबसे पहले हम सूरल भिट गांव गए जो भुज से २० किलोमीटर की दूरी पर है। वहां हम रामजू भाई से मिले जो भुज के एक पुराने और चर्चित कुम्हार हैं। उनका आज पॉटरी में अच्छा नाम है और खमीर के साथ काफी पुराने सम्बन्ध भी हैं। बातचीत की शुरुआत राजेश जी ने उनसे ‘गरबा-दीया‘ के बारे में पूछ कर की। पौराणिक मान्यता के अनुसार गरबा-दीया या गर्भ-दीप को स्त्री के सृजन शक्ति का प्रतीक माना गया है। इसकी स्थापना के साथ ही उसके पास महिलाएँ रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर मां दुर्गा के समक्ष गरबा नृत्य करती हैं। रामजू भाई ने बताया कि यह कच्छ की शान है और वो हर साल इस दिये को ज़रूर बनाते हैं।
इसके अलावा उन्होंने उनकी भट्टी में ईंधन के बारे में बात करते हुए कहा कि वो अभी प्लास्टिक वेस्ट को भट्टी जलाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका धुआँ उनको नुकसान तो करता है पर उसका उनके पास एक ही विकल्प है और वो है बुरादा जो कि महंगा पड़ता है। उन्होंने हमें चकिया भी दिखाया जिस पर वे पॉटरी करते हैं। उसे उन्होंने स्कूटर के इंजन से बनाया था व उसमें क्लच और गियर भी है। कोविड में उन्हें कोई ख़ास तकलीफ नहीं हुई क्योंकि उनकी ज़्यादातर बिक्री आस-पास ही होती है और वहां पर इसकी डिमांड बनी रही।
खावड़ा की कुम्हारी
इसके बाद हम लोग खावडा गए जहां हमारी मुलाकात अब्दुल भाई से हुई जिन्हें उनके काम के लिए राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा जी से पुरस्कार भी मिल चुका है। उन्होंने बताया कि कैसे नए लोग इस काम से ज़्यादा मजदूरी करना पसंद करते हैं क्योंकि उसमें पैसा तुरंत मिल जाता है जबकि यहाँ कई महीने काम बनाना पड़ता है, और उसके बाद भी बिके न बिके यह सवाल हमेशा बना रहता है।
साथ ही उनके जो मालधारी समुदाय के बड़े खरीददार थे, वे अब डेयरी के काम में जुड़ना शुरू कर रहे हैं तो अब वे पहले जैसे दूध या दही को रखने के लिए मिट्टी के बर्तनों की बजाय प्लास्टिक या स्टील के बर्तन और फ्रिज का प्रयोग कर रहे हैं। इससे उनकी डिमांड पर काफी असर पड़ा है।
वे नए-नए प्रयोग करते रहते हैं और उनकी इच्छा है कि कुछ ऐसा बनाएं जिससे और लोग यह कला सीख सकें। बहुत से छात्र दूर-दूर के कॉलेजों से भी उनके पास सीखने आते हैं पर जगह व संसाधनों के अभाव के कहते वो सबके रुकने का प्रबंध नहीं कर पाते हैं।
खावड़ा के पास लोढ़ाई गांव में हम इस्माइल भाई से मिले जो अंतिम संस्कार में प्रयोग किये जाने वाले छोटे घड़े बनाते हैं, और साथ ही प्लेट व घड़ाई (मिटटी के घड़े जिनपर डिज़ाइन बनती है) का काम भी करते हैं। उनका समर्पण और काम को लेकर उनकी लगन मुझे कमाल की लगी। वो मिट्टी या तो पहाड़ या तालाब से लाते हैं और कई बार दोनों मिट्टियों को मिला कर भी प्रयोग करते हैं।
वीड़ी बगीचा गांव में हम
इसके बाद हम अंजार के एक गांव, वीडी बगीचा गए, जहाँ हमें रजक भाई मिले जो कि पिछले ४० साल से मिट्टी के बर्तनों पर रंग करके उसे बेच रहे हैं। लोग इसे बहुत पसंद करते हैं, तो उनके पास इसका एक अच्छा मार्केट है। वो भट्टी में ईंधन के तौर पर देवदार (pine) का इस्तेमाल करते हैं। कई सारे कुम्हार अभी तालाब या समुद्र के किनारे से मिट्टी ला रहे हैं जो अच्छी क्वालिटी की है लेकिन जिस तरह सरकार बड़ी कंपनियों को ज़मीन दे रही है, उससे उनको भविष्य में मिट्टी मिलते रहने पर एक बड़ा सवाल लग रहा है।
वापस आकर मैंने राजू जी और राजेश जी से पूछा कि इस पूरी यात्रा में हम इतने सारे लोगों से क्यों मिले और हम उन सब में क्या देख रहे हैं। जवाब में उन्होंने कहा,
क्राफ्ट और आर्ट दो अलग-अलग चीजें नहीं है। क्राफ्ट का मतलब है कि आपको कोई चीज़ बनानी आ गयी है और आप उसे रोज़ बना रहे हैं पर आर्ट का मतलब है कि आप बारीक़ से बारीक़ चीजों पर ध्यान देकर हर बार कुछ नया, कुछ अलग बना रहे हैं, हम आर्ट और क्राफ्ट को एक साथ लाना चाहते हैं। हमें ऐसे पॉटर्स की तलाश है जो अपने काम को क्राफ़्ट से ज़्यादा एक कला के तौर पर देखते हों, जिसमें वो हर रोज़ सुधार कर रहे हों, कुछ अपनी बात जोड़ रहे हो। ऐसे कारीगरों को वे अपने यहाँ एक प्रदर्शनी (exhibition) में बुलाएँगे और उनके साथ आगे काम करेंगे
उन्होंने यह भी कहा कि अभी हम जिस प्रकार से विकास कर रहे हैं, उस प्रक्रिया में हम यह भूल गए हैं कि प्रकृति का भी एक बहुत बड़ा मूल्य है। आज क्राफ्ट की कीमत कम हो रही है और उसी के साथ कारीगरों का महत्व भी घट रहा है। हम मशीनीकरण के युग में जिस तरह आगे बढ़ रहे हैं वो ख़तरनाक है। हस्तकला कि अपेक्षा मशीन से बनी चीज़ें बहुत सस्ती हैं और खपत पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है।
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