भारत की कुल आबादी में से आधी आबादी महिलाओं की है, हमारे देश में नारी को भगवान की तरह पूजते हैं और कहा भी गया है, यत्र नारी पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः यानी जहां पर नारी की पूजा होती है वहाँ पर देवता निवास करते हैं। ऐसी सोच वाले हमारे देश में जब महिलाएँ रोजगार के लिए उतर रही हैं तब यह देखना दिलचस्प है कि वह किस तरह से अपने लिए कामों का चयन कर रही है या ऐसी क्या बातें है जो वो अपने लिए काम चुनते हुए देखती हैं। यह तब और भी दिलचस्प तब हो जाता है जब हम कामों को महिलाओं के हिसाब से ढालने की कोशिश कर रहे हैं, उनको माहवारी के दिनों में छुट्टी देने पर बात कर रहे हैं, मातृत्व अवकाश दे रहे हैं और वो सब कोशिशें कर रहे हैं जिससे वो काम की मुख्य धारा में आ जाएं और मर्दों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलें।
महिलाओं के काम को हम दो हिस्सों में बाँट कर समझ सकते हैं, एक वो जो संगठित क्षेत्रों में काम कर रही हैं और उनके पास ये सारी सुविधाएँ या अधिकार हैं और दूसरे वो जिन्हें हर रोज काम करने का पैसा मिलता है और कई सामाजिक सुरक्षाएँ नहीं मिलती हैं। पर जब हम महिलाओं के बारे में बात करते है तो हमें वो 7% संगठित क्षेत्र कि महिलाएँ ही दिखती हैं और हम बाकी कि 93% महिलाओं को भूल जाते हैं।
ये महिलाएँ कौन हैं, यह वो हैं जो दूसरों के घरों में, खेतों में, किसी बिल्डिंग को बनाने के लिए मजदूर के तौर पर काम कर रही हैं। पर क्या इनके पास और बेहतर चुनने के मौके हैं? क्या सारी महिलाओं को काम पर जाने की स्वतंत्रता है? जिन वजहों से वो पूजी जाती थीं उन किरदारों को छोड़ कर क्या वह अपने अस्तित्व को स्वीकार कर पाएँगी या उनको समाज उस तरह से स्वीकार करेगा?
आज जब मैं अपनी संस्था में देखता हूँ तो मुझे महिलाओं की अच्छी खासी संख्या दिखती है मगर किन किरदारों में? अधिकांशतः साफ़ सफाई के किरदारों में या खाना बनाने में या पैकिंग जैसे कामों में। और कुछ शिक्षकों की भूमिका में भी हैं। यह बहुत ही दिलचस्प है क्योंकि इन सारे ही कामों में महिलाओं को हम जिस तरह से देखते हैं वो पूरी तरह से फिट बैठता है। और तो और मैंने क्राफ़्ट के अंदर भी देखा है कि जो मुख्य काम हैं जैसे लूम (हैंडलूम जिससे कपड़ा बुनते हैं) पर बैठ कर उसको चलाने का काम पुरुषों के पास है और महिलाएँ महज सहयोगी भूमिकाओं में है। इसका एक बहुत बड़ा असर यह है कि वह कभी अपनी अलग पहचान या खुद को अलग ढंग से स्थापित नहीं कर पाती हैं। इन सभी बातों को और अच्छे से समझने के लिए मैंने इस विषय पर अपनी संस्था में कई महिलाओं से इस बारे में बात की और कुछ बातें मुझे सब में समान लगी और उनको मैंने यहां लिखने की कोशिश की है।
समुदायों में काम की स्थिति:- आप किसी काम को कैसे चुनती हैं और कैसे तय करती हैं कि आपको वह काम करना है या नहीं करना, इस सवाल के जवाब में संस्था में रोज दिहाड़ी पर काम के लिए आने वाली एक महिला कहती हैं कि वह केवल पैकिंग का काम करती हैं और झाड़ू पोंछा का नहीं। और केवल तभी काम करती हैं जब उनके लिए पैकिंग या खाने में इस तरीके से कोई काम हो क्योंकि उनके घर वालों को पसंद नहीं है कि वह बाहर कहीं पर झाड़ू पोंछा करें या किसी की दुकान में काम करें। ऐसे में वह तभी काम पर जाती हैं जब उनके लिए इस तरीके का काम उपलब्ध हो। वह कहती हैं कि अगर पैकिंग या ऐसा कोई काम उपलब्ध ना हो और उन्हें साफ सफाई जैसे किसी काम में भेज दिया जाए तो वह उसे नहीं करना चाहेंगी क्योंकि यह उनके घर वालों को पसंद नहीं है।
उनकी अलग-अलग क्षेत्रों को लेकर समझ:- मैं मेरी संस्था के कुक से मिला जो एक पुरुष हैं और जब उनसे मैंने पूछा की महिलाएँ अपने लिए काम कैसे चुनती हैं तो उन्होंने मुझसे पूछा कि आपके हिसाब से जहाँ से आप आए हो वहाँ पर सबसे ज्यादा लोग क्या करते हैं? मैंने कहा मेरे हिसाब से वहाँ लोग पढ़ाई को बहुत महत्व देते हैं और लोग पढ़ाई बहुत करते हैं और इससे जुड़े कामों में जुड़े हुए हैं। वह कहते हैं कि महिलाएँ उन्हीं कामों में जाती हैं जिसकी उन्हें समझ होती है वह फैक्टरी में भी जाएँगी तो वही काम करेंगी जो उनको आता रहेगा। जो उनको लगेगा कि वह कर लेंगी। और ऐसे में कई बार वह नए काम नहीं करती।
जब मैंने और महिलाओं से इस बारे में बात की तो मुझे उनकी बात सच साबित होते हुए दिखी। ज्यादातर महिलाएँ मुझे परम्परागत कामों में ही दिखी, खास तौर पर उन कामों में जिनमें उनकी नारी वाली छवि सुरक्षित दिख रही थी।
परिवार में द्वितीयक अर्जक होना:– ज्यादातर जिन महिलाओं से मैंने बात की उनका मानना था कि उनका कमाना परिवार में उतना आवश्यक नहीं है। वह कमाती हैं ताकि अपने परिवार का साथ दे पाएँ और जब उन्हें अपने हिसाब का काम नहीं मिलता तो वह काम पर नहीं जाती। यह प्रवृत्ति उनके काम को वो आधार नहीं दे पा रहा है जिसकी आवश्यकता है। क्योंकि वो द्वितीय अर्जक ही मानी जाती हैं। इस वजह से उन्हें वो प्रशिक्षण या प्रोत्साहन नहीं मिलता जिसकी सहायता से वो आगे बढ़ पाए। उनके काम करने को उस तरीके से महत्व भी नहीं दिया जा रहा है। इसका एक कारण उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी हैं जो उनको निभानी पड़ती है, भले ही वह बाहर काम करें या नहीं। ऐसे में वह जब घर का सारा काम कर ही रहीं हो तो वह बाहर कोई बड़ी जिम्मेदारी अपने सर पर नहीं लेना चाहेंगी। इस वजह से भी वह लीडरशिप रोल्स में नहीं दिखतीं, क्योंकि उनको अपने परिवार को प्राथमिकता देना ही पड़ता है।
इस बारे में संस्था की “ध्वनि” (जो की अभी HR में इंटर्नशिप करने आयी हैं) कहती हैं कि उनकी मम्मी ने अभी हाल ही में एक चॉकलेट बनाने का बिजनेस चालू किया है जो उन्होंने अभी छोटे स्तर पर ही शुरू किया है। जब मैंने उनसे यह पूछा कि उनको यह करने की क्या जरूरत पड़ी तो वो कहती हैं, ऐसे ही क्योंकि वह कुछ अच्छा करना चाहती थीं। इस वजह से उन्होंने यह काम शुरू किया और अभी वह यह रिश्तेदारों और करीबी लोगों को बेच रही हैं, उनके ऊपर इस बिज़नेस को सफल बनाने का ऐसा बहुत ज्यादा दबाव नहीं है और वह इस लिए कर रही हैं क्योंकि उन्हें यह अच्छा लगता है।
परिवार की बढ़ती आर्थिक आवश्यकता:- जब पुरुष बाहर का और महिलाएँ घर का काम कर रही थीं तो उन्हें मुख्यधारा में आकर कमाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यह सवाल पूछने पर संस्था की ही एक महिला ने कहा कि पहले हमारे इतने खर्च नहीं थे बच्चों को इतना पढ़ाना नहीं पड़ता था। कम में गुजारा हो जाता था पर आज जमाना दूसरा है। आज बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए पति-पत्नी दोनों का कमाना बहुत जरूरी है और इसलिए उनके आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक है कि दोनों कमाए।
पारिवारिक जिम्मेदारियाँ:- परिवार की बढ़ती आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भी महिलाएँ अपने परिवार की जिम्मेदारियों से स्वतंत्र नहीं हो पाती और उन्हें कोई भी काम करते हुए यहाँ पर ध्यान देना पड़ता है कि वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को उसके साथ कैसे पूरा कर पाएँ। इस बारे में पूछने पर संस्था में काम करने वाली एक महिला कहती हैं कि जब वह पहले खेतों में काम करती थीं उनके साथ में बहुत सारी बहनें जाती थीं। उसका समय सुबह सात बजे से दोपहर एक बजे तक था। तो सुबह ज़रूर जल्दी जाना पड़ता था पर शाम को आकर अपने घर के सारे काम निपटा सकती थीं। इसी तरीके से जब वह मेरी संस्था के साथ में काम कर रही है तो इसका समय 10 से 6 है जिसकी वजह से वह दोनों समय अपने परिवार को देख पाती हैं।
इस बारे में एक दूसरी महिला से जब मैंने पूछा कि कच्छ में जब आज न सिर्फ कई कंपनियाँ हैं और कमाने के ज्यादा मौके भी तो आप वो ४ गुना कमाई छोड़ कर खमीर यानी मेरी संस्था के साथ क्यों काम करती हैं? इस बारे में वो कहती हैं कि कंपनी में 12 घंटे काम करना पड़ता है। काम के समय काफी कठिन हैं और उसके साथ में घर को देखना काफी कठिन है। इसलिए हम वहाँ काम नहीं करते, यहां भले ही वहां से कम मिलता है पर हम अच्छे से अपने परिवार का ध्यान रख पा रहे हैं।
साथ, संग और भरोसा:- संस्था के साथ ही काम करने वाली पुष्पा बेन, जिनके पास १० वर्ष से भी अधिक का अनुभव है बताती हैं कि जब वह फ़ैक्ट्री में काम करने जाती थीं तो उनका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा पैसा कमा के घर वालों को सपोर्ट करना था। इसके लिए कई लड़कियाँ मिल कर एक ऑटो से रोज साथ जाती थीं और साथ ही आती थीं। लड़कियों की यूनिट लड़कों से अलग थी तो उन्हें कोई डर या संकोच भी नहीं था। वो इन चीजों से मुक्त होकर काम कर पा रही थीं।
यही बात जब मैंने संस्था में कई महिलाओं से पूछा तो उनका भी मानना था कि वो साथ में आती-जाती हैं। इसके अलावा संस्था में ज्यादातर महिलाएँ और कई पुरुष भी उनके समुदाय के ही हैं और उनको मासी या बेन कहके बुलाते हैं और उनकी नज़रों में एक इज्जत भी दिखती है जिसकी वजह से उन्हें संस्था में कभी डर नहीं लगता है।
कार्य क्षेत्र पर सुरक्षा:- मुझे लगता है यह महिलाओं के काम पर आने का बहुत महत्वपूर्ण कारण है। अगर वह किसी जगह पर सुरक्षित नहीं महसूस कर रही हैं तो वहाँ काम नहीं कर पाएँगी। सुरक्षा केवल काम करने तक सीमित नहीं है बल्कि उससे आगे वहाँ आने-जाने, सहज महसूस करने और इसके अलावा भी उन कई बिन्दुओं से जुड़ा हुआ है जिनकी हमने बात ऊपर की।
सभी बातों को समझ कर मुझे लगा कि जब हम महिलाओं के बारे में, उनके काम के बारे में या किसी और रोजगार के बारे में बात करें तो उनको आरक्षण देना भर ही पर्याप्त नहीं है बल्कि हमें यह भी सोचना होगा कि कैसे हम समुदायों के भीतर वह जगह बना पाएँ जहाँ पर वो मुक्त होकर खुद को अभिव्यक्त कर पाएँ, जहाँ वो बेधड़क आ-जा पाएँ, और अगर वह स्वयं को एक नए ढंग से तराशना चाहें तो वो भी कर पाएँ। उनके काम को भी बराबर मूल्य मिले और उनकी वास्तविक स्थितियों को समझ कर उनके लिए नीतियाँ भी बनें।
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