मैंने खुद को ‘कुंचोली’ पंचायत के एक छोटे से गाँव में पाया, जहाँ एक मकान निर्माणाधीन था. उस दृश्य को मैंने तस्वीर में कैद करने की कोशिश की.
अवतार सिंह संधू ‘पाश’ पंजाबी कविता जगत के जाने – माने – चाहे जाने वाले कवि हैं. पंजाबी भाषा के सीमित ज्ञान के कारण, मैंने उनकी रचनाएँ हिंदी भाषा में ही पढ़ी हैं. खैर, पाश की रचनाओं की ये खासियत है, कि आप उन्हें किसी भी भाषा में पढ़ें, वो आपको उतना ही रोमांचित करने की क्षमता रखती हैं. मैं एक छोटे से परिवार का हिस्सा हूँ, जिसमे मेरे साथ मेरे माता-पिता व बड़ी बहन हैं. बचपन का एक वाकिया है, जिससे शायद आप भी इत्तेफाक रखते होंगे. घर में जब भी हमारी नापसंद तरकारी बनती थी – करेला, टिंडे या लौकी, या दूध पीने का मन नहीं होता था, माँ अक्सर दीदी और मेरे बीच में प्रतियोगिता का इजात कर हमसे वो काम करवा लिया करती थीं. “चलो देखते हैं, कौन पहले खाना ख़त्म करेगा?” या फिर “जो पहले दूध का गिलास खत्म करेगा, वो मेरा प्यारा बच्चा होगा”. हमारा बालमन इस होड़ में बिना सोचे समझे जुट जाता था.
गत दिनों में श्रम सारथी के साथ काम करते हुए, एक आम दिन की घटना ने मुझे अपनी माँ, और ‘पाश’ की कविता (जो एक मधुर व क्रांतिकारी गीत के रूप में मैं अक्सर सुनती हूँ) की यकायक याद दिलाई.
मैंने खुद को ‘कुंचोली’ पंचायत के एक छोटे से गाँव में पाया, जहाँ एक मकान निर्माणाधीन था. उस दृश्य को मैंने तस्वीर में कैद करने की कोशिश की. अगर मैं अपने अब तक के जीवन पर नज़र डालूं, तो बाल श्रम से मेरा निकट परिचय फ़ेलोशिप के वर्ष में ही हुआ है. इसके पहले भारत की आम जनता की तरह मैं भी यकीन करने लगी थी, कि बाल – श्रम (जो कानूनन अपराध है) भारत से विदा ले चुका है.
यहाँ मैंने पाया कि लगभग १० से ज्यादा बच्चे, जिनकी उम्र १० साल से कम ही प्रतीत हुई, अपने छोटे छोटे हाथों से, छोटे छोटे बर्तनों में रेत भरकर लगभग २०० मीटर की दूरी तय कर रहे थे. उनमे से अधिकांश बच्चों के माता – पिता भी बड़े हाथों व बड़े बर्तनों में बड़ी जिम्मेदारियों का वजन ढो रहे थे.
एक महिला, जिसका एक नवजात गोद में व् दूसरा बालक ‘काम’ पर था, से मैंने नादान सवाल पुछा – “छोटे बच्चो से क्यूँ काम करवा रहे हैं यहाँ? उन्हें खेलने दो, अभी खेलने और पढने की उम्र है” इस पर महिला ने जवाब दिया, “ये भी तो खेल की ही तरह है, बच्चे अपनी राजी ख़ुशी से कर रहे हैं.” बच्चों से पडताल करने पर महसूस हुआ कि सृष्टि की सारी माताएं लगभग एक जैसी ही होती हैं. यहाँ भी माताओं ने बच्चों के बीच इसे खेल व होड़ का रूप दे दिया था. और यहाँ भी कई बालमन बिना विचार किये जुटे हुए थे.
जब मैंने थोड़े से बड़े बच्चों से बात की, तो उन्होंने स्वीकारा, कि – “अब इस खेल में इतना मज़ा नहीं आता, लेकिन फिर पिताजी कहते हैं, कि वो देखो पड़ोसी का बच्चा हमारी मदद कर रहा है, तुम्हे भी उससे सीख लेनी चाहिए और उससे ज्यादा मेहनत करना चाहिए”. और इसी के साथ इस होड़ को घर से निकाल कर सामाजिक परिपेक्ष्य में स्थापित कर दिया जाता है. पुरुषों से बात करने पर मैंने पाया, कि वह इस प्रक्रिया को संस्कार देने के रूप में देखते हैं, आने वाले कल की तैयारी के रूप में देखते हैं, और जो आर्थिक व्यय में कमी आती है, वह अलग. “वो कैसे?” – मेरे पूछने पर उन्होंने उदहारण देते हुए बताया – “अगर हम अकेले काम करेंगे तो ४ से ५ दिन का समय लगेगा. जितने समय हम यहाँ काम करेंगे, उतने दिन की हाजिरी (wages) गंवानी पड़ेगी. बच्चे थोड़ी-घणी (थोड़ी-बहुत) मदद कर देते हैं, तो घर में एक दिन की रोटी और ला पाते हैं. सबका पेट पालने के लिए सब मिल जुल कर ही तो करना पड़ता है.”
इस बात ने न सिर्फ मेरे भीतर तक विक्षेप किया, बल्कि मुझे कई दिनों तक सोचते रहने पर मजबूर किया. क्या हमारे देश, समाज, व अर्थव्यवस्था ने एक वर्ग विशेष को मजबूर कर दिया है, कि वह वंचनाओं को अपनी नियति के रूप में स्वीकारे? क्या उनके साथ व उनकी पीड़ियों के साथ इतना कुछ घट चुका है, कि वह स्पष्टतः जान भी नहीं पा रहे कि उनके साथ अन्याय हुआ है, और हो रहा है? कि इस वंचना से बहार निकलने के लिए सारे प्रयास बेकार मालूम होते हैं? वंचनाओं से उबर पाने की कोशिश तो शायद उन्होंने कब की त्याग दी थी, अब लगता है, कि इच्छा को भी दबा दिया गया है. यह वह दौर है कि जब इच्छाओं की आज़ादी भी खत्म कर दी गयी है, और इच्छाओं पर गुलामी की जंजीरें पहना दी गयी हैं.
श्रम से जुडी समस्याएँ मुझे व्याकुल किये जा रहीं हैं. परत दर परत जितना करीब से समझने की कोशिश करूँ, उतनी ही जटिल व विशाल यह प्रतीत होती है. ऐसे में खुद को निराशा से बचने के लिए कविता, गीत, फिल्मे, व साहित्य का सहारा ले रही हूँ. विशेषकर ‘पाश’ का यह गीत मेरे गुस्से को दिशा देने व आशा के बांध को बनाये रखने में मददगार साबित हुआ है.
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए,
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए,
हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े,
हम लड़ेंगे साथी.
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