मैसूर से जयपुर जाने वाली ट्रेन निर्धारित समय से एक घंटा लेट चल रही थी। लगभग 9:15 पर चंद्रपुर स्टेशन आ पहुँची। ट्रेन की प्रतीक्षा में ख्यालों में खोया मैं ट्रेन के सामान्य कोच में जा बैठा। ऐसा नहीं था कि मैं सामान्य कोच से पहली बार सफ़र कर रहा था पर इस बार सफ़र कुछ अलग-सा था। चंद्रपुर से जयपुर तक 22 घंटे की सफ़र में मैंने लोगों को सीट के लिए लड़ते देखा, चढ़ती उतरती लोगों की भीड़ से रास्ता निकालते देखा, पांच लोगों की सीट पर 8 लोगों को समायोजित करते देखा, कोई यहाँ अपने दुख बांट रहा था तो कोई ख़ुशी के पल, और कोई अपने ही ख्यालों में खोया कौन में बैठा था, मानो ज़िन्दगी से कोई शिकायत हो। इसी सफ़र में आगे मुझे सिलिकोसिस समस्या को समझने का अवसर मिला।
कहानियों से भरी यह रेलगाड़ी धीमी गति से अपनी गंतव्य की तरफ़ बढ़ रही थी। मानो सब को गंतव्य तक पहुँचाने का जिम्मा उठा रखा हो। ट्रेन में भीड़ और शोर दोनों ज़्यादा था। इसलिए ऊपरी सीट के कोने में बैठकर सोने की चल रही मेरी कोशिश नाकाम थी। ट्रेन के बाहर घना अँधेरा था और ट्रेन की खिड़की से बीच-बीच में एक हवा की फुहार-सी आ रही थी जो मुझे ठंड का अहसास दिला रही थी। मेरी निचली सीट पर लोग गाना गा रहे थे और बीच-बीच में मैं भी उनके सुर में सुर मिला रहा था। ट्रेन के अंदर और बाहर चल रही गतिविधियों को अपने अंदर समाने की कोशिश कर रही मेरी नज़रे अचानक से मोबाइल की स्क्रीन पर पड़ी और मुझे एहसास हुआ की रात के 1:00 बज रहे हैं और ट्रेन थोड़ी शांत हो रही है। दिन भर के सफ़र से थकीहारी मेरी आंखें अब झपकने लगी थी मानो अब नींद को अपने अंदर पूरी तरह से समाना चाहती हो।
अभी नींद पूरी नहीं हुई थी की स्टेशन पर चाय और गुटखा बेचने वालों की आवाज़ ने मुझे जगा दिया। इस बीच मेरे बाजू में बैठे समवयस्क लड़के ने मुझे पूछा की भैया चाय पियोगे, यहाँ जनरल डिब्बे में सोना थोड़ा मुश्किल है। मैंने भी सिर हिलाते हुए चाय के लिए हामी भरदी और चाय पीते हुए एक दूसरे से बात करने लगे। अपने बारे में बताते हुए उसने कहा की उसका नाम रामकेश है वह बेंगलुरु में टाइल्स और पत्थर घिसाई का काम करता है। बाक़ी यात्रियों की तरफ़ भी इशारा करते उसने कहा कि यह सारे पत्थर का काम करने वाले मज़दूर है। जो बेंगलुरु, तमिलनाडु, केरल, हैदराबाद में अलग-अलग जगह काम कर रहे हैं और अब घर जा रहे हैं। यह सुनकर मैंने उससे पूछा कि यह सारे राजस्थान के है? तो उसने कहा हाँ भैया ज़्यादा तो राजस्थान के ही है और उसमें भी पूर्वी और दक्षिण राजस्थान के लोग ज़्यादा बाहरवास जाते हैं मैं ख़ुद कोटा क्षेत्र से हूँ।
मेरे बारे में बताते हुए मैंने उससे कहा कि मैं भी करौली-धौलपुर के क्षेत्र में काम कर रहा हूँ। और मैं एक फेलो हूँ यह सुनकर उसने हंसते हुए कहा की भैया आप उस डांग क्षेत्र में क्या काम करते हो? सरकारी नौकर हो क्या? वहाँ के लोग तो हमारी तरह ही दक्षिण भारत में पत्थर का काम करते हैं। और जो वहाँ पर हैं उसमें भी ज्यादातर लोग खान में मज़दूर के तौर पर काम करते हैं। वहाँ न तो शिक्षा है और ना ही रोजगार। मैंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है और उसके बाद में बाहरवास चला गया कमाने के लिए।
मैंने उसे सवाल करते हुए पूछा की पत्थर के काम में अच्छी मजदूरी मिलती है क्या? उसने कहा, भैया यह तो हमारी मजबूरी है बस यूं कहें की गुज़ारा हो जाता है। अब हम ज़्यादा पढ़े-लिखे तो है नहीं और ना ही हमें कोई दूसरा काम आता है। हमने अपने बाप दादाओ को यही काम करते देखा है और वही सीखा।
बातचीत को आगे बढ़ाते हुए मैंने उससे पूछा कि अपने काम के बारे में थोड़ा और बताओ पत्थर में क्या काम करते हो। जवाब देते हुए उसने कहा की भैया हम पत्थर की घिसाई करते हैं, टाइल्स लगाते हैं और खान से पत्थर निकालते हैं। आगे बताते हुए उसने कहा की भैया यह काम अच्छा नहीं है, आदमी जल्दी ख़त्म हो जाता है। मैंने कहा ऐसा क्यों उसने कहा भैया धूल मिट्टी में काम करना पड़ता है सिलिकोसिस हो जाता है।
रामकेश की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। क्योंकि पिछले 4 महीने से मैं उसी क्षेत्र में काम कर रहा हूँ जहा पर लोग मजदूरी के लिए खान में काम करते हैं और पत्थर निकाल कर उनकी घिसाई करते हैं। पत्थर निकालते वक़्त और पत्थर की घिसाई में धूल निकलती है। जो सांस लेते वक़्त फेफड़ों तक पहुँचती है। सिलिकोसिस फेफड़ों की एक जटिल बीमारी है। सिलिकोसिस को जानने के लिए मैंने गूगल किया तो मुझे पता चला की सिलिकोसिस यह जो बीमारी है अगर एक बार हो जाए तो उसका कोई इलाज़ नहीं है। फिर भी लोग अपनी जान खतरे में डालकर यह काम कर रहे हैं जहाँ पर कोई सुरक्षा नहीं है।
सिलिकोसिस समस्या की जड़ की खोज में
मेरे मस्तिष्क में बहुत से सवालों ने घर कर दिया था। इसका जवाब मुझे मेरे क्षेत्र में पहुँच कर ही मिलने वाला था। इन सारे सवालों के साथ मैंने जयपुर स्टेशन पर क़दम रखा और बस स्टेशन पहुँचकर करौली की बस में बैठ गया। बस ने मुझे 4:00 बजे करौली उतार दिया। अब मेरी नज़रें उस बस को ढूँढने लगी जो मुझे मेरी ऑफिस तक पहुँचाती। 30 मिनट के खोज अभियान के बाद मुझे वह बस दिखी और मैंने चैन की सांस ली। बस में बैठा मैं करौली से बाहर आते ही बाहर हो रही गतिविधियों को देखने लगा अब जब मस्तिष्क में खान और पत्थर के विचार थे तो मुझे कहाँ स्वस्थ बैठने देते। अब मेरी नज़रें वह चीज भी देखने लगी जो अब तक मेरी नजरों के लिए अनदेखा था। मैंने देखा रास्ते की दोनों तरफ़ खान ही खान है जहा लोग पत्थर निकाल रहे हैं। ना तो उनके पास कोई सुरक्षा कवच है, और ना ही उनके चेहरे पर कोई डर। बस दिख रहा है तो काम करने की मजबूरी। 28 घंटे के लंबे सफ़र से मैं और मेरा दिमाग़ दोनों थक चुके थे।
अगले दिन सुबह लगभग 7 बजे के आसपास सूरज की पहली किरण के साथ मेरी आँख खुली। अपने निजी और ऑफिस के कुछ आवश्यक काम को पूरा करके में निकल पड़ा अपने सवालों के जवाब ढूँढने और जा पोहचा बुगडार नाम के गाँव में जो मेरी ऑफिस से लगभग 7 km की दूरी पर है। हालांकि ये पहली बार ही था कि में बुगड़ार गया, पर पिछले चार महीनों से क्षेत्र में काम करते हुए कुछ लोगों से मीटिंगों में मुलाकात हो गई थी। कुछ परिचित लोगों से गाँव की जानकारी इक्कठा करी तो पता चला की गाँव में लगभग 700 परिवार है, और कुल जनसंख्या 3500-3700 के आसपास है। और जनसंख्या अनुसूचित जाति और जमाती के दायरे में आती है। शैक्षणिक स्तर औसतन से कम है और उसमें भी पुरुषो के मुकाबले महिला पिछड़ी है। गाँव में घूमते हुए मुझे विचार आया की व्यक्तिगत बातचीत से ही चीजों का पता चलेगा और में उन लोगों को ढूँढने लगा जो जानकारी देने के लिया राजी हो जाए। अंत में शोध अभियान के बाद मुझे कुछ लोग मिल ही गए जो मेरे प्रश्नों का समाधान कर सकते थे।
मिठालाल जाटव से की गई बातचीत …
मैं: नमस्ते बाउजी।
मीठालाल: रामराम बेटा रामराम।
मैं: क्या नाम है आपका? घर पर सब ठीक है?
मीठालाल: लाला मेरा नाम मीठालाल है, घर पर सब राजी ख़ुशी है परेशानियाँ तो होती ही है हर जगह।
मैं: आप क्या काम करते हो? खेती करते हो क्या?
मीठालाल: नहीं बेटा हमारे पास खेती नहीं है, हम तो मजदूरी करते है खान में, फिलहाल तो में काम नहीं करता मेरी तबीयत खराब चल रही है।
मैं: क्या हुआ बाऊजी तबीयत क्यों खराब है?
मीठालाल: लाला सांस की बीमारी हो गई है, सांस लेने में परेशानी हो गई है।
मैं: आप सिलिकोसिस समस्या से झूँज रहे है क्या?
मीठालाल: हा लाला वही बीमारी है।
मैं: कितने सालों से ये पत्थर का काम कर रहे हो बाऊजी?
मीठालाल: अरे ख़ूब साल हो गए में 16 साल का था तब से कर रहा हु, अभी मेरी उमर 49 है।
मैं: और ये सिलिकोसिस समस्या कब से हो रही है? कोई दवाई ली क्या?
मीठालाल: लाला 12 साल हो गए मुझे ये बीमारी की शिकायत है, दवाई गोली तो चल हो रही है परेशान हो गया हु।
मैं: ये बीमारी क्यों हुई?
मीठालाल: अब क्या बताऊँ लाला पत्थरों में काम करते है, खान से पत्थर निकालते है धूल मिट्टी में काम करते है, बस उसीसे हुई है।
मैं: और लोगों को भी है क्या ये बीमारी?
मीठालाल: लाला हर घर में आपको एक मरीज मिलेगा हमारे यहाँ, कुछ नहीं है यहाँ जैसे तैसे ज़िन्दगी काट रहे है।
मैं: आप लोग ये खान में ही क्यों काम करते हो?
मीठालाल: दूसरा क्या करे? यहाँ यही काम है, हमारे पास नाही ज़्यादा खेती है, और नाही दूसरा कोई रोजगार। अब परिवार को तो पालना है नहीं तो भूखे मरेंगे। और हमारे पीढ़ियों ने भी यही काम किया है और उनकी देखा देखी हमने भी सिख लिया। अब हम ज़्यादा पढ़े लिखे तो है नहीं की शहर में कोई नौकरी करे। अब मुझसे काम नहीं होता है, घरवाले मजदूरी करते है। देखो आप हमारे लिए कुछ कर पाओ तो हमारा भला होगा।
अमरलाल जाटव से बातचीत
मीठालाल जाटव से बात करके में जा पोहंचा अमरलाल जाटव के घर। अमरलाल जाटव 49 वर्ष की आयु में है और पिछले 12 साल से पीड़ित है। अमरलालजी का स्वास्थ अब पूरी तरह से ढल चुका है वह अब न तो बिना मदत चल सकते है और नाही कुछ काम कर सकते है।
सिलिकोसिस से ग्रस्त अपनी जिंदगी के आखरी पड़ाव में चल रहे अमरलाल बताते है कि परिवार की कमजोर आर्थिक स्तिथियों को देखते हुए वह 18 साल की उमर में ही पत्थर के काम में लग गए। महज 35 साल की उमर में ही वह सिलिकोसिस से ग्रस्त हो गए और उनके लिए शारीरिक परिश्रम करना मुश्किल हो गया।
अमरलालजी के परिवार में 6 लोग है। पति-पत्नि, मां और उनके 3 बेटे। तीनों ही बच्चे 15 साल की उमर से छोटे है तो परिवार को चलाने की पूर्ण जिम्मेदारी उनकी पत्नी इंद्रा पर आ गई। इंद्रा जी की उमर लगभग 40 साल है और मजदूरी करके परिवार का भरण पोषण करती है। स्तिथियों को समझाते हुए इंद्रा जी बताती है की दूसरा रोजगार उपलब्ध ना होने की वजह से वह बस बेलदारी का काम करती हैं। बेलदारी (किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर हेल्पर के तौर पर काम करना) का रोजगार भी तभी उपलब्ध होता है जब गांव में या आसपास के गांव में किसी का कोई पक्का निर्माण हो रहा हो।
गांव में खेती न होने की वजह से खेती में मजदूरी मिलना मुश्किल है। इंद्रा जी बताती है की परिवार में जब कोई कमाने वाला न हो और बच्चे भी छोटे हो तो कही बाहर जाकर मजदूरी करना भी मुश्किल होता है। घर को चलाने के लिए कर्जा लेना पड़ रहा है। आगे स्तिथि को समझाते हुए उन्होंने बताया की अमरलालजी को हर महीना 1500 रुपए सिलिकोसिस का सरकार की तरफ से मुआवजा तो मिलता है पर वो राशि परिवार को चलाने के लिए पर्याप्त नही। अपनी लाचार और बेबस जिंदगी को बया करती इंद्रा जी की आंखों में आसूं थे।
दिनेश जाटव से बातचीत
अंत में मैंने दिनेश जाटव से बातचीत की और लगभग यही जवाब मुझे मिले। दिनेश एक 25 साला का युवा है जो 17 साल की उमर से पत्थर घिसाई का काम कर रहा है। दिनेश ने दिल्ली, हैदराबाद, कोटा, मुंबई जैसे शहरों में पत्थर घिसाई का काम किया है और अभी कर रहा है। दिनेश शादीशुदा है और उसका परिवार है, रोजगार ना होने के चलते परिवार से दूर रहना पड़ता है। दिनेश ने बताया की उसके पिताजी और चाचा कम उमर में ही चल बसे सिलिकोसिस की बीमारी से और उसको भी डर है कि भविष्य में उसे भी इन्हीं हालातों से गुजरना पड़ेगा।
जिले में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी सिलिकोसिस के मरीज़ों की संख्या में बढ़ोतरी कर रहा है। दिनेश के मुताबिक लोग बदलाव तो चाहते है पर पर्याई व्यवस्था ना होने के कारण लोग अपना पारंपरिक काम छोड़ नहीं पा रहे। जिन परिवारों में सिलिकोसिस से पीड़ित व्यक्ति है, जो अब शारीरिक काम करने की क्षमता नही रखते उन परिवारों के नई उमर के बच्चे अब इस काम को करते है क्योंकि परिवार को चलाने वाला दूसरा कोई नहीं।
परिस्थितियों को देखते हुए राजस्थान सरकार ने सिलिकोसिस के मरीजों को मुआवजा तो जारी किया है पर उसमे भी पारदर्शकता की कमी है। मुआवजा के तौर पर जो सर्टिफाइड मरीज है उनको पुनर्वास राशि 3 लाख रुपए है और अगर मरीज की मौत होती है तो 2 लाख रुपए अलग से राशि का प्रावधान है। उसके साथ अगर मरीज काम करने की अपनी क्षमता खोता है तो 1500 रुपए राशि हर महीना पेंशन के तौर पर मिलने का प्रावधान राजस्थान सरकार ने रखा है।
पर लोगों के मुताबिक ये मुआवजा और पेंशन पाने की प्रक्रिया भी जटिल है और मुआवजा मिलेगा इसकी भी कोई शाश्वती नही। जिन लोगों को 1500 रुपए पेंशन मिल रही है वो बताते है की हर माह राशि खाते में जमा नहीं होती। कभी कभी पांच पांच महीने बाद राशि खाते में आती हैं और वो भी पूरी आए ये भी शाश्वती नही। क्षेत्र की समस्या को समझते हुए डांग विकास संस्थान करौली जिले में एक संस्थान है जो इन मुद्दों पर काम कर रही है।
ड्राई ड्रिलिंग
जानकार लोगों से बातचीत के बाद मुझे पता चला की सिलिकोसिस के बढ़ने की मुख्य वजह यहां हो रही ड्राय ड्रिलिंग है। जिसमें पानी का इस्तमाल नही होता और ड्रिलिंग के वक्त धूल उड़ती है जो फेफड़ों तक पोहचती है। वेट ड्रिलिंग के लिए जो साधन लगते है वो महंगे होने के कारण खान के मालिक भी ड्राय ड्रिलिंग कराते है जिससे मुनाफा ज्यादा हो। इन सब में खान में काम कर रहे मजदूरों के स्वास्थ्य का कोई खयाल नहीं रखा जाता, जिसके कारण उन्हें सिलिकोसिस होता है।
राजस्थान जैसे इलाको में जहा बहुत ज्यादा गर्मी होती है, वहा पर मास्क लगाना भी मुश्किल है। क्योंकि जब मजदूर खान में काम करता है तो धूल की वजह से मास्क के ऊपर एक परत बन जाती है जिसमे सांस लेना मुश्किल होता है। और जिनको पहले से ही सिलिकोसिस की समस्या है उनके लिए खतरा और बढ़ जाता है। ज्यादातर माइन्स अवैध तौर पर चल रही है जरूरत है सरकार को एक मजबूत कानून लाने की जिससे इन सब पे रोक लग सके और साथ ही जरूरत है मौजूदा रोजगार की व्यवस्था को बदलने की और नए रोजगार उपलब्ध कराने की जिससे क्षेत्र में एक क्रांति आए।
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