लखनऊ में वो सत्रह दिन

by | Aug 16, 2023

दिन-ब-दिन गुज़र रहे हैं, न पल ठहर रहे हैं, और न ही समय
अंजान हैं इस अनजाने सफ़र में ,
मंज़िल का पता नहीं, पर मुसाफिर होने में ही मजा आ रहा है!

अब न जाने क्यों सब अच्छा लगने लगा है। अंजान लोग और जगह में भी अपनापन सा महसूस हो रहा है। जिंदगी में एक ठहराव आ चुका है और उस ठहराव में अलग खुशी, एक सुख है। सभी कहते हैं कि जिंदगी एक सफर है और हम सफर के मुसाफिर, मानो कुछ इसी प्रकार मुझे भी लग रहा है। सभी पंक्तियाँ पढ़कर अगर आपको ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मुझसा सुखी प्राणी इस पृथ्वीतल पर नहीं है तो थोडा ठहरते हैं मेरे प्यारे साथियों! मैंने जानबूझकर अपने अच्छे अनुभव को साझा किया है।

बेशक सफर लंबा है और समुदाय की विशेषताएं देखने व सुनने को मिलती रहेंगी। शुरुआत से शुरू करते हैं। उस दिन से रूबरू करना चाहूंगी, जिस दिन मैं इंडिया फेलो ट्रेनिंग के दौरान अपने सभी साथियों (को-फ़ेलोज़) के साथ रात में उदयपुर, राजस्थान के सुहाने रास्ते पर, अपना बोझा-बिस्तर (सामान) लिए अहमदाबाद जाने के लिए तैयार खड़ी थी। उस दिन हम बड़ी ही मस्ती के साथ आती-जाती छोटी-बड़ी गाड़ियों से लगती हुई हवाओं का मजा ले रहे थे और साथ ही हमारी बस का इंतज़ार कर रहे थे। तभी इंडिया फेलो टीम के सदस्यों ने सभी के हाथों में एक पेपर दिया, जो हमारा अगला डेढ़ साल तय करने वाला था। इसको यदि नसीब का गुल्लक कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

सभी की नज़रें उस पेपर पर थी क्योंकि उसमें लिखा था कि फेलो के रूप में काम करने कौन कहाँ जायेगा। अब सभी को अपनी-अपनी मंज़िलों का पता चल चुका था, परंतु इन सभी में मुझे कुछ ख़ास ख़ुशनसीब माना जा रहा था क्योंकि लगभग सभी लोग विभिन्न राज्यों के गावों में काम करने जा रहे थे और मैं लखनऊ शहर में। मेरे कुछ साथी उत्तर प्रदेश से हैं और किन्ही वजहों से लखनऊ में कई साल बिता चुके हैं, तो उन्हें इस शहर से एक लगाव और प्यार है।

उनका पक्का विश्वास था कि लखनऊ में मुझे कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होगी, और बात घूम फिर कर यही बताई जा रही थी कि मुझसा नसीब किसी का नहीं है। सुनकर मज़ा तो आ रहा था। मैं एक तसल्ली और सुकून महसूस कर रही थी। मन ही मन में झूम रही थी कि मैं एक सुविधापूर्ण और सुरक्षित जगह जा रही हूँ। साथ ही मुझे उनकी चिंता भी हो रही थी, क्योंकि वे सभी ऐसी जगह जा रहे थे, जहाँ शायद कोई ख़ास सुविधाएँ नहीं थी।

उस वक्त, सभी लोगों के होते हुए भी, कुछ साथियों ने अचानक उस खाली सड़क पर खेलना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे वे खेलने लगे, मुझे उनकी खुशियों का आभास होने लगा। जब मैंने उन खुशियों को महसूस किया, ऐसा अनुभव हुआ कि वह खुशियां मुझे बुला रहीं थीं और मैं उन्हें जोड़ने पहुंच गई। फिर, मैं भी उसी सड़क पर सभी के साथ खेलने लगी। वहां खेलते समय, मैं फिर से बच्ची बन गई और सफलताओं, असफलताओं, जिम्मेदारियों, और समय की भागदौड़ से जूझती बड़ी लड़की वहां से चली गई। ऐसा अनुभव हुआ कि समय भी वहाँ खेलने लगा।

एक दिन वह था, जब सभी साथी धीरे-धीरे सहमी हुई सांसों और आंखों में नमी के बावजूद चेहरे पर चमकती मुस्कान के साथ एक-दूसरे को अलविदा कह रहे थे। सभी की धड़कनें तेज हो रही थीं। उदयपुर और अहमदाबाद का सफर तो मौज-मस्ती व नयी सीख के साथ पूरा हो चुका था, पर अब एक और अनजान जगह पर अजनबी लोगों के बीच लंबे समय तक रहना चुनौतीपूर्ण लग रहा था। कुछ नया कर दिखाने का मौका ज़रूर था पर साथ ही कई डर भी थे। यदि जो सोचा था वह न हो पाए, तो क्या होगा? हमारी और उनकी भाषा, सोच, और जीवनशैली में भिन्नता हो तो क्या करुँगी? इन सभी विचारों के बीच, मेरा मन व्याकुल था।

आखिरकार उत्साह के साथ, अपने सभी साथियों से लखनऊ पर की गयी चर्चा को दिल और दिमाग दोनों में बसाकर, उनसे मिले हुए हौसले और विश्वास व अपने भारी सामान के साथ मैं अहमदाबाद से दिल्ली और फिर लखनऊ की ओर रवाना हुई। इस दौरान दिल में खूब सारे सवालों के बादल छाये हुए थे। नवाबों का शहर, लखनऊ, कैसा होगा? समुदाय में बदलाव और मज़बूती से काम करने की इच्छा के साथ-साथ वहाँ का लजीज खाना चखने का मन भी बना हुआ था। खूब सपने देख लिए थे और इस तरह मैं २२ मई को सवेरे करीब ६ बजे, आलमबाग़ बस स्टैंड पर पहुंच गई।

लखनऊ
आलमबाग बस स्टैंड

सफ़र रात का था, महिलाएं बहुत कम थीं। 85 प्रतिशत पुरुष ही थे। इस परिस्थिति में नींद तो दूर की बात थी, मेरे सामान ने मुझे पूरी तरह थका दिया था। मेरा सामान इतना था कि लोग मुझे नजरअंदाज कर मेरे सामान को घूरते रहे। मदद का हाथ तो मिलने से रहा! कुछ समय बाद मैं मुझे दिए गए पते पर पहुंच गई, परंतु वहाँ पहुंचकर भी मुझे तीन घंटे इंतजार करना पड़ा क्योंकि कार्यालय बंद था। मैं दरवाजे के बाहर, अपने सामान के बीच बैठी रही। आते जाते लोग अजीब नज़रों से देखते रहे। कुछ लोगों को लगा कि मैं रास्ता भटक गयी हूँ। चिंताग्रस्त नज़रें मेरी चिंता बढ़ा रही थी। थकान के साथ-साथ मुझे भूख भी लगी थी परंतु सामान छोड़कर कहा जाती। लंबी प्रतीक्षा के उपरांत सद्भावना ट्रस्ट से एक साथी ने संपर्क किया और मुझे सूचित किया कि ऑफिस खुल गया है।

अब थोड़ी राहत की साँसें लेकर दूसरी मंजिल पर अपना सामान लिफ्ट के बाहर रखने वाली ही थी, कि बड़ी-सी बंदरों की सेना मानो मेरी प्रतीक्षा करती नजर आई। ऐसा भी दृश्य देखने मिलेगा, वह भी एक शहर में; यह दूर-दूर तक सोचा न था। उन्होंने मेरे सामान पर हमला बोल दिया और मैं उनके आक्रमण से डरी-सहमी किसी तरह लिफ्ट के भीतर गयी। खुद को सुरक्षित कर लिया। अब मैं एक ही समय पर रो भी रही थी और हंस भी रही थी!

बंदरों की वह डरावनी और दिल दहलाने वाली आवाज़ आज भी मेरे सपनों में आती है। हालांकि यह एक अलग बात है कि अब उनकी चीख सुनने और उनके दर्शन रोजाना करने की आदत हो चुकी है। आखिर में मौजूद लोगों की सहायता से, किसी तरह बंदरों को भगाया गया और मुझे मेरे कार्यस्थल (सद्भावना ट्रस्ट) में पहुँचाया गया। मैं बिल्कुल शांत खड़ी थी, पसीने से लथपथ।

अब सभी दबी मुस्कान मुंह पर रखे हुए मेरी ओर देख रहे थे। मानो कई सारे सवाल उनके दिल-ओ-दिमाग में चल रहे हों। थोड़ी देर में ही हमीदा जी (संस्था संचालक और मेरी मेंटर) से खूबसूरत मुलाकात हुई और बातचीत में उन्होंने समझाया कि जब तक मुझे रहने के लिए कोई उपयुक्त जगह नहीं मिल जाती तब तक मैं कार्यालय (office) में ही रहूं, और खाना भी ऑफिस का ही पाक-कमरा (pantry) इस्तेमाल करके जरूरत की चीजें खरीद कर स्वयं बनाऊं। इस पर मैंने भी सहमति दी। मेरे पास कोई विकल्प भी तो नहीं था। एक अंजान जगह पर मुझे मेरा इंतजाम, यानी रहना-खाना आदि, स्वयं देखना था।

लखनऊ
कार्यालय के बाहर सीढ़ियों पर बंदर

अब परेशानियाँ खत्म होती दिखाई दे रही थी, क्यूंकि भले ही थोड़े दिन, पर सिर पर छत का तो सहारा मिल गया था। मैं संस्था की गतिविधियों में शामिल हो गई। दोपहर में सभी अपने-अपने घर से लाया खाना खाने लगे। परंतु, कुछ बनाने की सोच में ही, मौजूदा परिस्थितियों और नए लोगों के चलते, मैं काफी असहज महसूस कर रही थी। जब भूख बहुत अधिक लगी, मैंने सोचा की बाहर से कुछ खाना लाऊं। जरीना, मेरी एक साथी, मेरे साथ जाने को तैयार हुई।

मेरे मन में लखनऊ के मशहूर खानपान की चर्चा जाग गई। कुलचे-नहारी, छोले-भटूरे, कोफ्ते, बिरयानी…आहा! लेकिन जब मैंने दुकान पर उस रोटी के आटे पर लाखों की संख्या में मक्खियों को देखा, मेरी थकी आंखें खुली की खुली रह गईं। सभी दुकानों का हाल वैसा ही दिखाई दे रहा था। अंततः मैंने तय किया कि मैं कुछ नहीं खाऊंगी और अपने बैग में रखे हुए चिप्स से ही पेट पूजा की।

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शाम सात बजे के करीब सभी के घर जाने का वक़्त हो गया था। उन पांच बड़े-बड़े कमरों के बीच मैं अकेली रह गई थी। धीमी आवाज में गाने लगाकर, मैं आलीशान खटिये पर लेट गई जो कार्यालय के मध्य में रखी गई थी। लेटते ही आँख लग गई थी, परंतु रात के अंधेरे में मेरी नींद टूट गई। लिफ्ट की आवाज़, बंदरों की चीखें, और सबसे डरावना वह सी.सी.टी.वी कैमरा जिससे बाहर अंधेरे के कारण डरावना माहौल दिखाई दे रहा था। मैं जिस आराम की उम्मीद में थी, वह तो चला गया, और मेरी भूख भी अब शांत हो चुकी थी।

यह स्थिति सत्रह दिनों तक चली। इन दिनों मैं अपने साथियों के चेहरे और उनकी बातों को याद करती और सोचती कि क्या मैं सचमुच इतनी खुशनसीब थी? वह यादें मेरी हंसी को रोक नहीं पातीं, क्योंकि मैं नास्तिक हूँ, पर उस समय डर से मैंने सभी देवी-देवताओं का आवाहन किया और उन्हें याद कर मंत्र और गाने सुने।

अब हालात बदल गए हैं, देखते ही देखते डेढ़ महीना गुज़र चुका है। शुरुआत बहुत अजीब हुई थी। इस लेख को पढ़ते समय आपकी हँसी और मुस्कराहट में कमी न हो, जो की इस सफ़र में बहुत जरूरी है। मुश्किलों में खुशियाँ ढूँढ़ना बस सुना था, आजकल वह समुदाय में देख रही हूँ, और उनसे सीख भी रही हूँ। इस सफ़र में हर दिन नया है, हर दिन भूमिकाएँ बदलती रहती हैं। कभी-कभी काफी तनाव महसूस होता है। खालीपन सा लगता है। क्या पता क्यों यहाँ ऐसे हालात में रह रहे हैं? क्या होगा? समुदाय के लिए कुछ कर भी सकेंगे या नहीं? और भी बहुत कुछ!

बस सवालों की मंडी लगी है पर यकीन मानो उस पल से बेहतर कोई पल नहीं लगता, जब आप अपने समुदाय में रहकर किसी को अपने सुख-दुःख का हिस्सा बनाते हैं और वे आपकी बातों पर गौर करते हैं; आपको और आपकी बातों को महत्व देते हैं, जैसे उनके जीवन में आपकी कीमत और जगह बन गयी हो।

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1 Comment

  1. Vikram Kandukuri

    तुम खुशनसीब हो।

    Reply

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