मई के महीने में अमेरिका में गोरे लोगों ने घरों में कैद होने को अपनी आज़ादी का उल्लंघन माना और सड़कों पर उतर आए| वो चाहते थे कि दुकानें खोल दी जाएं और वो काम पर वापस जाएं| वो सरकार से कोई सहायता नहीं लेना चाहते थे| पहले-पहल तो इस बेवकूफ़ी भरी मांग पर मुझे हंसी और गुस्सा आया| फ़िर कई दिनों तक सोचने के बाद कुछ चीजें साफ़ होती नज़र आ रही थीं| एक बातचीत के दौरान जुडिथ बटलर ने व्यक्तिवादी अधिकारों के संदर्भ में कहा कि अमेरिका में जिस तरह से लोग मास्क पहनने या अन्य कोई सावधानी बरतने से इंकार कर रहे हैं दरअसल वो व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का ही परिणाम है| ये व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का विचार अमेरिकी मानस में गहरा बसा है और नवउदारवाद के चलते दुनिया भर में भी फैला है| सड़कों पर उतरे गोरे आदमियों और औरतों में से एक ने इस महामारी को ‘स्कैमडेमिक’ कहा, यानि कि असल में कोई महामारी नहीं है केवल लोगों को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है| इस मामले में अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान भी इन लोगों को बढ़ावा देते हैं|
अमेरिका में गोरे लोगों के प्रदर्शन के कुछ दिनों बाद ही काले लोग सड़कों पर निकल आए| जॉर्ज फ़्लॉयड की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या ने एक विशाल जन आंदोलन को जन्म दिया| ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के बैनर तले कई लोगों ने न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया में नस्लभेद के खिलाफ़ आवाज़ उठाई है| क्वीयर समूहों का भी इसमें अहम योगदान रहा और कोरोनावायरस के चलते प्राइड पैरेड्स ना होने के बावजूद क्वीयर समुदाय बड़ी संख्या में नस्लभेद के खिलाफ़ एकजुट हुआ|
ऐसा हमें हिन्दुस्तान में भी सीएए और एनआरसी के खिलाफ़ हुए आंदोलनों में भी दिखा जब ना केवल क्वीयर लोगों ने बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लिया बल्कि गिरफ़्तार भी हुए| इन सब घटनाओं के चलते पुलिस के उन्मूलन (इस संदर्भ में आप एंजेला डेविस, फ़ूको और डब्ल्यु ई बी डूबोइस को पढ़ सकते हैं|) की आवाज़ों को बल मिला है और कई रेसिस्ट लोगों की मूर्तियां गिराई जाने लगीं| अगर हम हिन्दुस्तान का रुख करे तो यहाँ भी ब्राह्मणवादी मानसिकता के जनक मनु की मूर्ति एक न्यायालय में खड़ी है| इस मूर्ति पर कालिख पोतने वाली दो महिलाओं कांताबाई अहीर और शीला पवार पर न्यायालय में मुकदमा चल रहा है| ऐसा न्यायालय जो संविधान पर चलता है| ऐसा संविधान जिसे लिखने वाले डॉ भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई थी| उनका अपराधीकरण हमारे इस वक्त के लोकतंत्र का सत्य है|
मनु असल में कोई नहीं था| मनुस्मृति समय के साथ बदलने वाली एक कानून व्यवस्था थी जिसे हिंदू/ब्राह्मण न्याय व्यवस्था ने आत्मसात किया है| मनु इस व्यवस्था का मूर्त रूप है|
हेमार्केट बुक्स के लिए इमानी पेरी से बातचीत के दौरान अरुंधति रॉय ने इसे ‘पैनिकडेमिक’ कहा, यानि ‘चिंताओं और परेशानियों और घबराहटों की महामारी’| अगर हम दुनिया भर में हो रही घटनाओं को देखें तो हम समझेंगे कि ये दोनों है और उससे भी बढ़कर| अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों में इस बिमारी को असली ना मानने के पीछे कई तरह के कारण हैं जिनके बारे में यहाँ विस्तार से पढ़ा जा सकता है| दुनिया भर में तमाम तरह के समुदाय जो हाशिए पर हैं उनके लिए मुसीबतें और बढ़ गई हैं| मुस्लिमों के साथ दिल्ली में फ़रवरी में हुई हिंसा के बाद मार्च में फ़िर पूरा मीडिया तब्लीगी जमात के नाम पर मुस्लिमों पर हमलावर हो गया, इसे व्हाट्सएप पर फ़ैलाया गया और कई बड़े अखबारों ने इसे ‘कोरोना जिहाद’ कहा| ऐसे कार्टून भी छापे गए जो कोरोना को मुस्लिम बताते हों|
इन सबके बीच पुलिस सीएए और एनआरसी विरोधी मुस्लिम कार्यकर्ताओं और छात्रों को गिरफ़्तार करने में जुटी है| जहाँ जेलों में कैद कई लोग लगातार कोरोना के शिकार होते जा रहे हैं वहीं सरकार राजनैतिक विरोधियों को जेलों में बीमार होने के बाद भी इलाज मुहैया कराने में आनाकानी बरत रही है| सरकार की इस लापरवाही के पीछे क्या मंशा है, हमें ये सोचना चाहिए| इन सब के साथ ही अरब दुनिया की नज़र ट्विटर पर हिंदुस्तानी मुस्लिमों के खिलाफ़ ज़हर फ़ैला रहे हिंदुओं पर पड़ी और उन्होंने प्रधानमंत्री से सवाल किए, जिसके बाद प्रधानमंत्री को सौहार्द की बात ट्वीट करनी पड़ी|
अचानक से अरब के राजकुमार और राजकुमारी हिन्दुस्तान के लिबरल लोगों के मसीहा बन गए और वो भूल गए कि ये वही अरब हैं जिन्होंने कुछ ही दिन पहले एक दक्षिण एशियाई आदमी को चलते फ़िरते हैंड सैनिटाइज़र के तौर पर ड्युटी पर लगाया था और इन्हें दोयम दर्जे का बताया था| लोग भूल गए कि सऊदी अरब ने ईरान को कैसे परेशान किया है और उनके मानवाधिकारों की स्थिति पर कई प्रश्नचिन्ह लगे हैं| जब कई हिन्दुस्तानी मुस्लिमों ने इस बारे में लिखना शुरु किया तब जाकर कुछ लोग थोड़ा शांत हुए| ये लोगों को तुरंत हीरो और मसीहा बना देने की हमारी समस्या को तो दिखाता ही है साथ ही हमारी अपनी राजनीतिक विचारधारा के स्पष्ट ना होने का भी प्रमाण है|
आखिर क्यों हमारे देश में लिबरल लोगों को मुस्लिम युवाओं का बोलना नहीं पसंद लेकिन अरब के राज घराने के लोग मसीहा लगते हैं? क्या ये ‘मुसलमान बोले लेकिन दूर से ही’ की हमारी मानसिकता को उजागर नहीं करता? हिन्दुस्तान में मुस्लिम विरोधी माहौल एक लंबे समय से तैयार किया गया है जो पिछ्ले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है| इसे आरएसएस जैसे संगठनों ने जितना बढ़ाया है उतना ही वैश्विक तौर पर बदलते प्रतिमानों ने भी।
अगर हम इज़राइल के बारे में पढ़ें तो हमें मालूम चलेगा कि कैसे अमेरिका और यूरोप जो यहुदियों से नफ़रत करते थे, विश्व युद्ध द्वितीय के बाद उनके मसीहा बनकर उतरे और अपने किए ज़ुल्मों को छिपाने के लिए फ़लस्तीन (पैलेस्टाइन) से ज़मीन छीनकर इज़रायल बसाया| इज़रायल की लेजिटिमेसी (सार्थकता) साबित करने में इन्होंने अपनी काफ़ी ताकत झोंकी और पड़ोसी मुल्कों से होने वाले युद्ध में उनका साथ दिया| ज़ाहिर है इज़राइल-फ़िलिस्तीन की समस्या युरोप और अमेरिका की बनाई हुई समस्या है लेकिन इसका खामियाजा इन दो देशों के लोगों को ही भुगतना है|इसके साथ ही रशिया के अलावा अन्य कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट देशों को कमतर साबित करने के लिए और मुस्लिम देशों के प्राकृतिक स्त्रोतों पर काबिज होने के लिए, उन्हें ‘आज़ाद’ करने के नाम पर वहां कई तरह के हमले करवाए और उनकी शांति भंग की|
वियतनाम में तो अमेरिका ने बीस साल तक युद्ध किया| अमेरिका ने ये युद्ध मानसिक स्तर पर भी लड़े और अपने मीडिया का फ़ायदा उठाकर दुनिया भर में मुस्लिमों और कम्युनिस्ट/सोशलिस्ट विचारधारा को गलत व क्रूर साबित किया| युरोप और अमेरिका के लोग नाज़ी जर्मनी को हराने का श्रेय भी खुद को ही देते हैं लेकिन हकीकत ठीक इसके उलट है| यूएसएसआर के योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता| आज जब मज़दूर अपनी पूरी ज़िंदगी सर पर लादे, अपने बच्चों को कांधे पर बिठाए, पैदल और भूखे पेट अपने घर लौट रहे हैं और पूरे देश मे कोरोना को व्यवस्थित करने की बिगड़ती हालत के बीच में केरल का लगातर बेहतर प्रबंधन और दुनिया में कोरोना को मात देने में क्यूबा की स्थिति देखते हुए शायद हमें कम्युनिस्ट/ सोशलिस्ट विचारधाराओं का महत्व समझ आना चाहिए था|
लेकिन हमने देखा कि समाज आज़ाद और न्यायसंगत बनने की बजाय और क्रूर हो गया| फ़ासीवादी ताकतें मजबूत हुईं और उन ताकतों पर विश्वास करने वाले लोग पहले से भी ज़्यादा नफ़रती हो गए| उनके नेताओं ने उनसे जो कहा वो उन्होंने आंख मूंद कर मान लिया| जहां हमें विज्ञान पर भरोसा करना था वहीं हम ना केवल झूठे व्हाट्सएप्प फ़ॉर्वार्ड्स के चक्कर में पड़े जो शोर और रोशनी से कोरोना वायरस को खत्म करने का दावा कर रहे थे बल्कि आयुर्वेद के नाम पर एक दवा भी निकाली गई जिसकी सहमति झूठ बोलकर ली गई थी| इसके अलावा, जहाँ पूरी दुनिया के वैज्ञानिक कोरोना की वैक्सीन खोजने की तय तारीख नहीं बता पा रहे हैं वहीं हमने जाने किस आधार पर इसकी एक तारीख तय कर दी है और वो भी 15 अगस्त! हड़बड़ी मे ये तारीख घोषित करने की आखिर क्या वजह है?
क्या हमें बेहतर वैज्ञानिक तरीके से वैक्सीन बनाने के बारे में सोचना चाहिए या अपने देश से जुड़े हुए ज़रूरी तारिखों, धरोहरों आदि को राजनैतिक फ़ायदों के लिए भुनाने के बारे में? हमें सोचना चाहिए कि क्या हमारी सरकारें हमारे स्वास्थ्य को लेकर गंभीर भी हैं? जहाँ सरकारी अस्पतालों की बदहाली की खबरें आम तौर पर दिख रहीं हैं और प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी वसूली भी, वहीं डॉक्टरों को पीटा जा रहा है, झूठे आरोपों में जेल भी भेजा रहा है| उन्हें पीपीई देने की बजाय उनपर फूल बरसाए जा रहे हैं| आखिर एक समाज के तौर पर हमारी और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार की क्या ज़िम्मेदारी है?
जब हिन्दुस्तान में मुस्लिमों को बीमारी फ़ैलाने वाला बताया जाने लगा तो मुझे सिर्फ़ इसलिए बेचैनी नहीं हुई क्योंकि ये झूठ है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि मेरे समुदाय ने ये एक लंबे समय तक झेला है| क्वीयर लोगों को, और खास तौर पर ब्लैक और ब्राउन गे/बाईसेक्शुअल आदमियों और ट्रांसजेंडर लोगों को पहले भी एक बिमारी का कारण बताया जा चुका है| हमें दुनिया भर में कई तरह की गालियां और प्रताड़नाएं मिली हैं, सरकारों ने हमारे खिलाफ़ कानून बनाए और हमें ज़लील किया| धार्मिक संगठनों और लोगों ने इसे ईश्वर का न्याय बताया| हमने कितने ही लोगों को इस बिमारी से लड़ते हुए खोया है और आज भी ये लाइलाज है|
दुनिया के तमाम गरीब ब्लैक/ ब्राउन क्वीयर लोगों, दलित/ बहुजन/ आदिवासियों, मज़दूरों और औरतों के लिए मौजूदा इलाज तक भी पहुंच तय नहीं हो पाई है| इसी बीच कई जगह फ़िर से नई बीमारी के लिए हमारे समुदाय को दोषी ठहराया जा रहा है| हैदराबाद में पोस्टर चिपकाए गए जिनमें लिखा था कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग कोरोना फ़ैलाते हैं इसलिए उन्हें मारकर भगा दो या पुलिस को फ़ोन करो| युगांडा में पुलिस ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का उल्लंघन करने के झूठे और बेबुनियादी आरोपों पर क्वीयर समुदाय के रिसोर्स सेंटरों पर हमले कर रही थे| कुछ लोगों ने इसे ‘क्वीयरोनावायरस’ तक कहा है| हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जो हमारी मौतों का जश्न मनाती है|
इस बीच हम तमाम तरह की और हिंसाएं भी देख रहे हैं| मेरे सामने मैंने इस बीच दो औरतों को पिटते देखा है| लेकिन ये घर की बात है| मुझे दो महीने के भीतर करीबी लोगों से 6 क्वीयर व्यक्तियों की आत्महत्या की खबरें मिली। उन्होंने ये कदम अपने टॉक्सिक घरों में कैद रहकर उठाया| सेक्स वर्कर्स के धंधे चौपट हो गए, उनके लिए किसी तरह की कोई सहायता सरकार की तरफ़ से नहीं मिली है| ना ही सरकार और समाज के लिए उनके घर हैं न उनके घर की बात की किसी को कोई परवाह है|
ट्रांस* व्यक्तियों को राशन दिलाने के लिए कई संस्थाओं और कार्यकर्ताओं को कोर्ट जाना पड़ा, उसके बावजूद उन तक बेहतर राशन नहीं पहुंच सका| उनके घरों के चूल्हे कैसे जलते होंगे? जिन लड़कियों के साथ हमने महीनों काम किया है उनमें से कई अभी मिलने पर गुमसुम और चुप सी हो गई हैं| इस बीच उन्होंने भी बहुत कुछ देखा सुना है| कुछ बातें वे बता रही हैं कुछ नहीं बता पा रही हैं| क्या ये चुप्पी भी सिर्फ़ उनके घर की बात है? जो महिलाएं अपने अब्युसिव रिश्तों में और जो क्वीयर लोग अपन टॉक्सिक परिवारों के साथ कैद हैं. ये भी घर की बात है| क्या इस घर में रहना आसान है? ये देश, जो कि हम सबका घर है, यहां जिस तरह से छात्रों, मुस्लिमों, औरतों, क्वीयर लोगों, दलितों, आदिवासियों, बहुजनों, विकलांग लोगों पर हमले हो रहे हैं क्या मन में एक बार भी ख्याल नहीं आता “रहने को घर नहीं है हिन्दोस्तां हमारा”?
हमने जिस तरह की दुनिया का सपना देखा है वो धीरे-धीरे और दूर होता नज़र आ रहा है| ना केवल लोगों के बीच दरारें बढ़ती जा रही हैं बल्कि प्रिविलेज्ड लोगों को ये भ्रम भी हो गया है कि दरअसल वो ही असली विक्टिम हैं और इन ‘माइनॉरिटीज़’ ने उनके हक छीन लिए हैं| वे रिवर्स रेसिज्म, रिवर्स कास्टिज़्म, मिसएंड्री, हेट्रोफ़ोबिया आदे कहने लगे हैं| हिंदुस्तान में 80% हिंदु आबादी के बावजूद वे हिंदुफ़ोबिया से परेशान हैं| इस तरह की बातें हमारे समय में लगातार पस्त होती आर्थिक और सामाजिक नीतियों के कारण ही संभव हो पा रही हैं| पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बढ़ते प्रभाव ने सामाजिक ढांचे में प्रिविलेज्ड लोगों की आर्थिक स्थितियों पर भी हमले किए हैं जिसका कारण वे अस्मिता आधारित राजनीति करने वाले लोगों और खास तौर पर आरक्षण को दोषी मानते हैं| कोरोना वायरस के कारण जब तमाम मजदूरों, कामगारों और ट्रांस व्यक्तियों को राहत पहुंचाने का काम किया जा रहा था तब कई लोगों ने इसकी भी शिकायत सोशल मीडिया पर दर्ज की| उन्होंने अपने पसीने और खून से इस देश को बनाने वालों को कामचोर और निकम्मा कहा, उन्हें गालियां दी और उन्हें उनकी खराब हालत का ज़िम्मेदार ठहराया|
भूखे पेट पैदल मज़दूरों को दरकिनार कर लोग रामायण देखने में मशगूल रहे और जब प्रगतिशील समूहों और लोगों के कड़े विरोध के बाद ट्रेनें या बसें चलाईं गईं तो वे भी खस्ताहाल थीं और बिन पते के पहुंच रहीं थीं|
हमें समझना होगा कि ये बदइंतज़ामी इसलिए संभव हो पाई है क्योंकि हमने अपनी सरकार से सवाल करना छोड़ दिया है| उसकी हर बात को पत्थर पर खींची लकीर मान लिया है और उसका विरोध करने वालों को सरकार ही नहीं बल्कि देश का दुश्मन भी मान लिया है| ये इसलिए संभव हुआ है क्योंकि सरकार को एक खास धर्म और उसके रक्षक के तौर पर देखा जा रहा है ना कि देश को चलाने वाले एक ढांचे के रूप में| सरकार, धर्म और देश हमारी कलेक्टिव मेमोरी में गड्ड-मड्ड हो गए हैं| इसी के चलते अगर कोई ये कहे कि सरकार कोरोना वायरस को काबू नहीं कर पा रही है तो उसे धर्म और देश पर हमला माना जा रहा है| इस विचार को न केवल चुनौती देने की ज़रूरत है, बल्कि समझने की भी ज़रूरत है| और ये तभी हो पाएगा जब हम लगातार हर तरह के लोगों से बातचीत करेंगे| ये मुश्किल काम है, और कई बार सामने मौजूद व्यक्ति बात नहीं करना चाहते| लेकिन जो लोग एक बेहतर दुनिया का सपना देखते हैं उन्हें इस काम को गंभीरता से लेना होगा| और वो कई जगह पर ले भी रहे हैं| इस पूरे समय में लोगों ने ना केवल अपने नैरेटिव तैयार किए हैं बल्कि खूब लिखा-पढ़ा है| लोगों ने कई माध्यमों से अपनी बात कहने की कोशिश की है| वो कितना सफ़ल होंगे ये कहना आसान नहीं है, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि सब तरह की बातों की संभावनाएं इस दौर में बेहद तेजी से उभरी हैं|
इन नई उभरती बातों का हमारे आने वाले समय में क्या प्रभाव होगा ये नहीं कहा जा सकता लेकिन जो लोग एक बेहतर दुनिया का सपना देखते हैं उन्हें अपने आपसी मतभेदों पर काम करके पहले से भी ज़्यादा एकजुट होने की ज़रूरत है| इसके लिए ज़रूरी है कि हम अपने समुदायों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझें और अपनी प्रिविलेज्ड सामाजिक स्थिति भी| हम अपनी लड़ाईयों को ही इकलौती लड़ाई ना मानें बल्कि ये समझें कि अन्य लोग भी अपने स्तर पर सामाजिक और राजनैतिक लड़ाईयाँ लड़ रहे हैं|
अस्मिता आधारित आंदोलनों और वर्ग आधारित आंदोलनों के साथ आने की जितनी ज़रूरत इस समय महसूस हो रही है उतनी पहले कभी नहीं हुई| दोनों तरह की राजनीतियाँ हमारी सामाजिक समझ को बढ़ाने और बदलने के लिए बेहद ज़रूरी है| इनके आपसी मतभेदों पर इन्हीं लोगों को काम करना होगा| अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो ना केवल बचा-खुचा लोकतंत्र बल्कि अपनी धरती भी बहुत जल्द खो देंगे|
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