कागज़ का देस

by | Aug 20, 2020

जिस समय यह लेख लिखा जा रहा है हिन्दुस्तान कोरोना वायरस के केसेस में दुनिया में तीसरे नं. पर है और एशिया में पहले| बिहार और असम एक भीषण बाढ़ से गुजर रहे हैं जिनमें लोगों के घर, मवेशी, पूंजी, बच्चे सब बह रहे हैं| कश्मीर में इंटरनेट के साथ-साथ बहुत कुछ बंद हुए एक साल हो चुका है|जिस समय पूरी दुनिया एक सूक्ष्म वायरस से लड़ने में नाकाम साबित हो रही है, हमारे देश में दुश्मन सेना से लड़ने के लिए फ़ाइटर प्लेन खरीदे गए हैं| लगातार दुश्मन होती दुनिया में शायद ये ज़रूरी भी है कि हमारे पास हर तरह की तकनीक हो ताकि अगर कोई दुश्मन देश हम पर आक्रमण करे तो हम उससे निपटने में काबिल हो सकें|

हां वो अलग बात है कि दुश्मन देश का आक्रमण एक संभावना है और एक सूक्ष्म वायरस के सामने लगातार हारता स्वास्थ्य तंत्र हमारी हकीकत| वैसे तो हम इस समय ये भी सोचने की कोशिश कर सकते हैं कि हमारा दुश्मन कौन होता/ बनता है लेकिन शायद ऐसा करने से हमारे जरूरत से ज़्यादा फूले हुए राष्ट्रीय दंभ पर असर पड़ सकता है|आखिर हम एक देश या समाज के तौर पर अपनी प्राथमिकताएं कैसे तय करते हैं?

और ये केवल एक राजनैतिक नेतृत्व से जुड़ा हुआ सवाल नहीं है, बल्कि हमारी सामाजिक चेतना से भी जुड़ा हुआ है| कोई भी राजनैतिक नेतृत्व बिना सामाजिक इच्छाशक्ति के काम नहीं कर सकता| हम एक समाज के तौर पर जो चाहते हैं उसे ही हमारी सरकारें हमें सुपुर्द करती हैं| तो ऐसा नहीं है कि हम मासूम लोग स्वास्थ्य सुविधाएं, बाढ़ से राहत आदि चाहते हैं और हमारी सरकारें मंदिर बनाने और पुष्पक विमान खरीदनें में व्यस्त है| ये हम सब की सहमति से ही संभव हो पाया है और अगर इसे बदलना है तो उसके लिए भी हम सबकी सहमति चाहिए होगी| हम ऐसा क्यों सोचते हैं ये भी समझना ज़रुरी है| हम एक देश और एक समाज के तौर पर जड़ हो चुके हैं| हमारी प्राथमिकताएं स्वास्थ्य, शिक्षा और बेहतर इंफ़्रास्ट्रक्चर ना होकर मंदिर-मस्जिद और युद्ध हो चुके हैं|

टीवी स्टुडियो से लेकर चाय की टपरियों तक हर कोई तुरंत ही मिसाइल लेकर दुश्मन देश को धूल चटा देने को तत्पर है, वो अलग बात है कि भूख के चलते खुद नमक चाट कर सोना पड़ रहा है| इस बात से ये अर्थ बिल्कुल नहीं निकालना चाहिए कि सारा दोष लोगों का है|

हमें ये समझना होगा कि सामाजिक चेतना और राजनैतिक नेतृत्व एक दूसरे के पूरक होते हैं, यानि सामाजिक चेतना राजनैतिक नेतृत्व का निर्माण करती है और राजनैतिक नेतृत्व सामाजिक चेतना का, और इन दोनों को निर्देशित करता है पूंजीपति वर्ग| ये वर्ग तमाम तरह के प्रचार प्रसार के माध्यमों से तय करता है कि लोगों को क्या सोचना चाहिए, व कितना और कैसे| ये वर्ग तय करता है कि इसके खुद के लाभ के लिए किस तरह के राजनेता होने चाहिए जो किस तरह के कायदे-कानून बनाएं| राजनैतिक और पूंजीपति वर्ग के इस मेल ने ही दरअसल लोगों को उनकी बुनियादी ज़रूरतों के संघर्ष से मोड़कर आपस में लड़ने पर बाध्य किया है| कहां तो हमें काम और उसके बराबर दाम के बारे में बात करनी था और कहां हम पुष्पक विमान के आने का जश्न मना रहे हैं|

देश की इस राजनीतिक स्थिति में फ़िलहाल सभी तरह की लोकतांत्रिक आवाज़ों को दबाने के लिए कई तरह की बेबुनियादी गिरफ़्तारियां की जा रहीं हैं| ये गिरफ़्तारियां भेदभाव को बढ़ावा देने वाले कानूनों का विरोध करने वाले लोगों को निशाना बनाती हैं जिसमें एनआरसी प्रमुख है| ये वही एनआरसी है जिसके चलते असम में तकरीबन 19 लाख लोग अपने ही देस में परदेसी हो गए| पूरे देशभर में ये आंकड़ा कितना भयावह होगा इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है| ये वही एनआरसी है जिसमें कागज़ दिखाना होता है| कागज़ सबूत होता है देस में और देस का होने का| कई बार ये कागज़ लोगों की औलादों के साथ बाढ़ों में बह जाया करते हैं|

क्या जिन लोगों की औलादें कागजों के साथ बह जाती हैं उनका कोई देस होता होगा? और जिस देस में बच्चें बह जाते हों लेकिन कागजों का रखना ज़रूरी समझा जाता हो, ऐसे देस से लोगों का कैसा रिश्ता बनता होगा?

कागज़ बड़ी अनूठी चीज़ होती है| बिन कागज़ अब ना आप देस के हैं और ना ही देस आपका है| सभी तरह के संबंध कागज़ से तय होते हैं|घर का कागज़, ब्याह का कागज़, औलाद का कागज़, स्कूल का कागज़, नौकरी का कागज़, गाड़ी का कागज़, जनम का कागज़, मरन का कागज़; बिना कागज़ के आदमी भूत हो जाता है| और कोई भी सरकार भूतों को अपने यहां नहीं रखना चाहती|

कागज़ बनाने के लिए सरकारी स्कूल के मास्टर से लेकर एनजीओ वाली दीदी तक फ़ार्म भरते हुए अगर कभी गलती से ठाकोर को ठाकुर लिख दें तो ना सिर्फ़ नाम बदलता है बल्कि पहचान भी बदल जाती है| दीदी को कई बार जनमदिन भी खुद से सोच कर लिखना होता है क्योंकि कागज़ पर “घर ढ़हने वाले बरस सावन के दूसरे सोमार को” नहीं लिखा जा सकता| लोगों की ज़िंदगियां यूं तो कागज़ों से आसान होनी थीं लेकिन किसे पता था ये कागज़ ना होने से अपने ही देस में परदेसी हुआ जा सकता है| और उसकी सज़ा भी होगी?

इसीलिए जब सोलह बरस की साइमा* के पति ने उसे मार-मारकर अधमरा कर घर से निकाल दिया और उसके आधार कार्ड का कागज़ फ़ाड़ कर फेंक दिया तो वो अपनी दुधमुंही बच्ची को लेकर कुछ ही दिनों बाद अपना आधार का कागज़ दुबारा बनवाने के लिए सरकारी दफ़्तरों और एनजीओ वाली दीदी के चक्कर लगाने लगी| सब उसे बताते कि कागज़ दुबारा नहीं बनेगा, जो पहले से है उसका प्रिंट निकल जाएगा और वो मायूस हो जाती| उसके पास कागज़ की फोटोकॉपी तो थी लेकिन जब वो प्रिंट कराने जाती और दुकानदार ओटीपी के लिए नंबर मांगते तो उसका मुंह छोटा हो जाता|

“नंबर तो उनका दिया है, वो नहीं बताएंगे”, वो धीरे से बोलती और दुकानदार उसकी फ़ोटोकॉपी वापस थमा देता| साइमा मुंह लटकाए लौट आती| अब साइमा को आधार कार्ड प्रिंट करने का सही तरीका बता दिया गया है| उसके पास कागज़ हो जाएगा लेकिन ऐसी ना जानी कितनी साइमा हैं जिनके कागज नहीं हैं, नहीं हो सकते| वे सब भूत हैं| इस देस में उनका ठिकाना आखिर कितने दिन का है?

*बदला हुआ नाम

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3 Comments

  1. Pankaj Kumar

    बहुत ही जोरदार लिखे हैं । आभार 🙏

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    • Dharmesh Chaubey

      शुक्रिया

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  2. Dharmesh Chaubey

    शुक्रिया

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