बचपन एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही मेरे साथ आप में से कईयों के ज़हन में भी कई खूबसूरत लम्हें और तस्वीरें तैरने लग जाती होंगी. नाना-नानी, पापा-मम्मी सहित घर के सभी बड़े लोगों से मिलने वाला लाड़-प्यार व उपहार याद आ जाते होंगे. खेल-खिलौने, चॉकलेट एवं पसंदीदा मिठाइयों की यादें ताज़ा हो जाती होंगी. कई बार जब हम कोई संगीतकार, फिल्मकार, लेखक एवं चित्रकार की रचनाओं में बचपन का उल्लेख देखते, सुनते या महसूस करते हैं तो हमारा हृदय उन्माद से भर जाता है. क्या आपके साथ ऐसा नहीं होता?
पर क्या कभी आपका सामना उन बच्चों से हुआ है जिनका बचपन ऊपर ज़िक्र किए हुए वाक्यों जितना खूबसूरत नहीं होता? खिलौने और किताब थामने वाले मासूम हाथों में भीख का कटोरा या नाज़ुक कंधों पर घर की आजीविका चलाने का बोझ लिये हुए बच्चों से आपकी मुलाकात तो हुई होगी.
वैसे तो मैं ऐसे कई बच्चों से मिला हूँ पर यहां जिस बच्चे का जिक्र कर रहा हूं उससे मेरी मुलाकात अभी हाल ही में हुई है. इंडिया फेलो के मध्य अवधि प्रशिक्षण (mid point training) के बाद मैं वापस अपने कार्यस्थल पर लौट रहा था. शताब्दी ट्रेन से मैं दिन में लगभग सवा ग्यारह बजे हल्द्वानी शहर में उतरा और स्टेशन के बाहर जाकर टैक्सी के इंतज़ार में सड़क किनारे खड़ा हो गया. सामने एक कोने में कूड़े-कचरे का छोटा सा ढेर पड़ा था. तीन बच्चे (जिनकी अनुमानत: उम्र 8 से 14 वर्ष होगी), उस कचरे के ढेर में अपने मतलब की चीजें ढूंढ रहे थे, और मिल जाने पर अपनी-अपनी बोरियों में रख ले रहे थे. अगले तकरीबन 10 मिनट तक मैं उन बच्चों को लगातार देखता रहा. उसके बाद मुझे टैक्सी मिल गई और मैं उसमें सवार हो गया.
आगे के अपने ढाई घंटे के सफर में मेरा आधे से ज़्यादा समय उन्हीं बच्चों तथा उन जैसे दर्जनों बच्चों (जिनसे मैं पहले मिल चुका हूँ), के विचार एवं कल्पनाओं में बीता. अपने मस्तिष्क के अंदर उत्पन्न होने वाले सवालों और ख्यालों के द्वंद में मैं उलझा रहा. उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं…
- दुनिया में कोई अमीर और कोई गरीब क्यों है?
- किसी के पास ज़रूरत से ज़्यादा तो किसी के पास ज़रुरत पूरी करने के साधन भी क्यों नहीं हैं?
- जिनके पास कोई चीज़ ज़्यादा है, वह अपनी चीज़ें उनके साथ क्यों नहीं बांटते जिनके पास कमी है?
- मैं इसके बारे में क्या कर सकता हूं?
- मैं कब बेहद दौलतमंद बनूंगा?
- क्या गरीब लोगों की मदद करने के लिए दौलतमंद बनना जरूरी है?
- देश में हजारों NGOs के काम करने के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में बच्चे भूखे एवं अशिक्षित क्यों हैं?
इन्हीं सब प्रश्नों को सोचते हुए व ऐसी ही एक और घटना को याद करते हुए मैंने निम्न पंक्तियां लिखी हैं…
उन मासूम सी आंखों में एक चमक है,
मजबूरी की उसे न भनक है,
वह परिंदा उड़ना चाहता है,
और मैं उसे उड़ाना.
पर किसी अपने ने ही,
उसके पंखों को काट दिया है,
वह गिर कर ज़मीन पर फड़-फड़ा रहा है,
दर्द में अकेला तड़प रहा है,
और हम बेड़ियों में जकड़े,
उसे तड़पता देख रहे हैं.
वो मासूम परिंदा दिनभर,
नंगे पांव कूड़े-कचरे चुनता है,
पर उसका नसीब तो देखो,
उसे दो वक्त का खाना,
और पूरा ढ़कने के लिए,
कपड़ा भी नहीं मिलता है.
वह पढ़ नहीं पा रहा,
क्या यह उसका कसूर है?
वह नादान परिंदा इस जीवन में,
कितना बेबस और मजबूर है,
अगर हैं हम सामर्थ्यवान तो फिर,
क्यों हैं हम उन जैसे लाखों की,
मदद करने से दूर?
बेबसी का यह आलम,
हम यूँ ही नहीं देखेंगे,
हम में है वह साहस और जज़्बा,
जिससे दुनिया को बदल देंगे.
कहीं देर ना हो इसलिए,
आपकी भी ज़रूरत है,
मदद उनकी करनी है,
जिन्हें मजबूरी की नहीं भनक है.
उस मासूम सी आंखों में,
आशा की किरण जगाना है,
उन दबे हुए परिंदों को,
हमें ऊपर उठाना है.
करेंगे हम उनकी मदद,
किया हमने यह संकल्प है,
देश का विकास तभी संभव है,
इसके अलावा नहीं कोई विकल्प है.
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