सवाल थे हर कदम पर, क्या तुमने जवाब ढूंढने की कोशिश की?
सीख थी हर मोड़ पर, क्या तुमने कुछ सीखने की कोशिश की?
दोस्त थे हर रास्ते पर, क्या तुमने हाथ बढ़ाने की कोशिश की?
आइए चलते हैं वल्लभपर जो कि गुजरात के कच्छ जिले का एक छोटा सा गांव है। यह नज़दीकी तालुका से कुछ 35 कि.मी कि दूरी पर है। यहाँ रेत के बीच में एक स्कूल का कैंपस बसा हुआ है जहाँ लगभग सौ बच्चे एक से आठवीं कक्षा तक पढ़ते हैं। जैसे एक बगीचे की ख़ूबसूरती फूलों से होती है ठीक वैसे ही इस स्कूल कैंपस की ख़ूबसूरती बच्चों से है, उनके मुस्कुराते हुए चेहरे से है। इस कैंपस को और ऐसे ही दो और गांव में अलग-अलग कैंपस को चलाता है ग्राम स्वराज संघ (जीएसएस)। यहाँ बच्चों के खाने से लेकर रहने तक, सारी चीज़ों का इंतज़ाम किया गया है, वो भी निःशुल्क। बच्चे यहाँ मस्त होकर रहते हैं।
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इस कैंपस में टीचर की कमी होने कि वजह से मुझे मेरी फेलोशिप के दौरान जीएसएस द्वारा यहां अंग्रेज़ी की टीचर के तौर पर कार्य करने तथा बच्चों को जीवन मूल्यों से रूबरू कराने भेजा गया। क्योंकि यह शहर से बहुत अंदर है, बच्चे भी बाहरी दुनिया से ज़्यादा वाक़िफ़ नहीं हैं। मैंने अपने काम को पूरे उत्साह के साथ शुरू किया। लेकिन कुछ समय बाद मुझे लगने लगा कि मैं बच्चों के साथ वैसा रिश्ता नहीं बना पा रही हूँ जैसा होना चाहिए। ना तो वे क्लास में मेरे सवाल का जवाब देते और न ही कोई सवाल करते। इसके पीछे मुझे यह तीन कारण लगे:
१. हमारी बोल चाल कि भाषा अलग होना, उनकी गुजराती और मेरी हिंदी
२. बाहर से आने की वजह से उनका मुझे न अपना पाना
३. डांट के डर से कुछ न बोलना
कुछ समय यह सब देखने के बाद मैंने सोचा कि क्यों न इस पर काम किया जाए, बच्चों से दोस्ती बढ़ाई जाए ताकि वे मुझसे न डरें। बस फिर क्या था, मैंने स्कूल के बाद शाम का वक्त बच्चों के साथ गुज़ारना शुरू कर दिया। पहले कुछ दिन तो सिर्फ उन्हें खेलते देखा करती और ताली बजा कर प्रोत्साहित करती। ऐसा करने पर कुछ बच्चे मुझे देख कर हंस भी दिया करते थे। एक दिन मैंने कहा “क्या मुझे भी खिलाओगे अपने साथ ?” कुछ बच्चे शांत रहे और कुछ ने बोला “हाँ टीचर आइए”।
किशन ने मेरे हाथ में एक बाटी दी और बाकी बाटियों को मैदान में रख दिया
मैं: ये क्या है? इसे क्या बोलते हैं और इसे कैसे खेलते हैं?
भावेश: इसे हम बाटी बोलते हैं। टीचर, क्या आपने यह कभी नहीं खेला?
मैं: नहीं
किशन: कोई बात नहीं, हम सिखाएंगे आपको। बहुत आसान है, आप जल्दी सीख जाओगी।
मैंने शुरू किया, कुछ प्रयास करने के बाद मैं थोड़ा खेल पा रही थी। मैं जब भी सही खेलती बच्चे ताली बजाकर मुझे प्रोत्साहित करते और जब नहीं खेल पाती तो बोलते “कोई बात नहीं टीचर, आप एक बार और कोशिश करिये”। ये देख कर बहुत अच्छा लग रहा था कि वे मुझे अपने खेल में शामिल कर रहे थे। अब मैं धीरे-धीरे उनकी दोस्त बन रही थी। उनका मुझसे डरना कम हो गया था, वे क्लास में जवाब भी देते और सवाल करना भी शुरू कर रहे थे। ये समस्या यहां हल हो गई सब सही चलने लगा।
वैसे तो मेरे खाने का इंतज़ाम कैंपस में बच्चों के साथ ही था, खाना लगभग हर दिन एक सा ही होता था – बाजरे की रोटी, खिचड़ी, और साग (सब्ज़ी)। मुझे वैसे भी खाने से शिकायत नहीं रहती है, जो मिलता है मैं ख़ुशी-ख़ुशी खा लिया करती हूँ। लेकिन यहाँ हर रोज़ सब्ज़ी देख कर मन में एक ही सवाल आता था ,”सब्ज़ी में तेल है या तेल में सब्ज़ी“। हर बार एक कटोरी सब्ज़ी से करीब आधा कप तेल निकल जाता था, और इन वजहों से मेरा पेट अब मुझसे नाराज़ हो गया था।
गुजरात में रहने की अच्छी बात यह है कि खाने के साथ हर रोज छाछ होती है, और अगर छाछ है तो दही भी मिल सकती है बशर्ते मैं सुबह समय से सात बजे कटोरी ले कर रसोई घर जाऊं। दही और छाछ से बहुत मदद मिली। पेट भी सही हो गया और मैं अच्छे से खाना खाने लगी।
वल्लभपर से बाज़ार (रापर) 30-35 कि.मी दूर है। एक दिन अपना कुछ सामान लेने के लिए मैंने रापर जाने का सोचा, लेकिन जितनी आसानी से सोचा था उतनी ही दिक्कत से मैं वहां पहुंच पाई। कैंपस के बाहर से रोज़ दोपहर तीन बजे तक एक बस चलती है, अगर वह मिल गई तो अच्छी बात है वरना इंतजार करना पड़ता है।
उस दिन मैं गर्म धूप में 2 कि.मी पैदल चलकर बस स्टैंड पहुंची। पास में खड़े एक आदमी से पूछने पर मालूम हुआ कि बस जा चुकी है। मैं लेट हो गई थी। फिर कुछ इंतज़ार के बाद मुझे एक ट्रैक्टर दिखा जो रापर तो नहीं पर पास वाले गांव तक जा रहा था। मैंने सोचा, “अभी तो इसमें बैठ कर यहाँ से निकलते हैं, बाद का बाद में देखेंगे”। मैं ट्रैक्टर में बैठ कर प्रागपर गांव पहुंच गई और वहां कुछ देर और रुकने करने के बाद मुझे एक छकड़ा (रिक्शा) मिला जिसे देखकर मैं उछल पड़ी।
बैठने के बाद पता चला कि अभी दो लोगों की सीट खाली है और कुछ और देर उसके भरने का इंतज़ार हुआ। अंत में जब वे आकर बैठे तो शुरू हुई छकड़ा की सवारी। रापर पहुँच कर ऐसा लगा मानो मैंने कुछ बड़ा हासिल कर लिया हो।
यह सारा अनुभव मेरे लिए काफी नया था – नई भाषा, नए लोग, नई संस्कृति, अलग खाना, रास्ते, और भी बहुत कुछ। पर सच कहूं तो इन सब के बीच मैं बहुत कुछ सीख रही थी और कहीं न कहीं सभी चीज़ों का आनंद भी ले रही थी।
No one believed me when I told them It took me 3 hours to cover a distance of 35 km, haha. It was great reading about your experience. Though we are close by, our experiences are vastly different!