दक्षिणी छत्तीसगढ़ का हाट बाज़ार

by | Jun 24, 2023

सुकमा दक्षिणी छत्तीसगढ़ का ज़िला है। यहां मैं बीते कुछ वर्षो से रहता हूँ। यहां के गावों का हाट बाज़ार बड़ा ही सुहावना होता है। कुछ छोटे तो कुछ बड़े हाट बाज़ार हैं। हर दो-तीन गाँव के बाद बाज़ार लगता है। बच्चे, महिला और पुरुष बाज़ार में उत्सुकता से आते हैं। खेत  से उगाने वाले सब्जी तो स्थानीय लोग बेचने आते ही हैं, साथ में जंगल से प्राप्त होने वाली साग सब्जी कंद मूल भी बेचते  हैं। साथ ही नए-नए खाने की चीजे भी देखने को मिलती है; जैसे चापड़ा चटनी (लाल चींटी को पीस कर बनाया जाता है), बोबो (चावल से बना व्यंजन) आदि। मेरे लिए जो नया था, वो थे मुर्गा लड़ाई और देशी शराब, जिसे सुकमा क्षेत्र में रस बोलते हैं। साथियों से बातचीत में एक बात निकली।

हमारे एक स्थानीय साथी ने कहा “एमडी पिया है सर आपने?”

मैंने कहा – हाँ।

उसने पूछा कब?

मैंने कहा दोस्तों के साथ।

कहाँ से लिया था?

दुकान से। 

आपके इधर भी मिलत है क्या?

वो तो शराब की दुकानों में मिल जाता है।

नहीं, महुआ की बात कर रहा हूँ।

मैं हंस पड़ा।


छिंद के पेड़ से रास निकालने की विधि (तस्वीर स्त्रोत – जगदलपुर न्यूज़)

रस

बाज़ार के हिस्से में पुरुष और महिलाएं एक लाइन में बैठकर रस बेच रहे होते हैं। यह रस लोग साइकिल के दोनों तरफ बड़े-बड़े सफ़ेद प्लास्टिक के डब्बे में छिंद, ताड़ी, सेलफ़ी और महुआ शराब के नाम से बाहर के बाज़ार में बेचने जाते हैं। कुछ महिलाएं छिंद पेड़ के सिरे में कट लगा देते हैं। छिंद के पेड़ के कटे हुए हिस्से से बूंद-बूंद रस गिरने लगता है। बूंद को  एकत्र करने के लिए पेड़ में छोटा मटका या थुंबा (लौकी से बना बर्तन) टांग देते हैं। हर दिन सुबह और शाम रस से भरे बरतन को निकाल कर खाली बर्तन टांग देते हैं। ज़्यादातर इस बर्तन को बदलने के लिए पुरुष पेड़ पर चढ़ते हैं। पेड़ चढ़ने के लिए खास कौशल की आवश्यकता होती है। 

ज़्यादातर घरों में खेतों में छिंद, सेलफ़ी, ताड़ आदि के पेड़ हैं। ये पेड़ प्रकृति की देन है। लोग अलग से पेड़ नही लगते हैं। यहाँ परिवारों में सभी त्यौहारों में रस की अहम भूमिका होती है। बड़े से लेकर छोटे बच्चे भी रस पी लेते हैं। यह रस यहाँ के आदिवासियों के लिए नशीले पदार्थ की तरह नहीं मानते हैं बल्कि शुद्ध रस की रूप में सेवन करते हैं। महुआ रस देवी-देवताओं को अर्पण करते हैं। छिंद, ताड़ी रस उनके खानपान का हिस्सा है। कई बार बच्चे पेड़ पर चढ़कर रस निकालकर पी लेते हैं।

गाँव की यह पीने की संस्कृति मेरे लिए नई थी। मेरे लिए शुरुआत में नशीले पदार्थ की तरह मानता था परंतु यह सिर्फ नशीला पदार्थ नहीं है। यह उनकी संस्कृति है। विभिन्न गतिविधियों में रस अनिवार्य रूप से शामिल करते हैं जैसे पूजन-पाठ, शादियों, त्यौहारों आदि।


मुर्गा लड़ाई 

जैसे ही मुर्गा लड़ाई के मैदान में मालिक मुर्गा लेकर पहुँच जाता है, मुर्गा लड़ाई का मैदान लोगो के भीड़ से भर जाता है। एक छोटे बांस के बने दीवार से लोग सटकर खड़े हो जाते हैं। महज २ से ५ मिनट के इस मुर्गा लड़ाई में लोगों की भीड़ बहुत तेजी से उमड़ पड़ती है। अपने पसंद के मुर्गे पर पैसे लगाना शुरू हो जाता है। जिसकी जैसी क्षमता है उसके अनुसार अपने पसंद के मुर्गे पर श्रोता पैसे लगाते हैं। ज़ोर-ज़ोर से काला काला काला लाल लाल लाल  की आवाज और साथ में १०, २०, ५०, १००, ५०० रु के नोट अपने हाथ में लहराते हुए एक दूसरे से शर्त लगाते हैं। कुछ मिनटों में हज़ार से १० हज़ार या उससे भी अधिक रुपए की बाज़ी लग जाती है। एक हाट बाज़ार में १०० से अधिक मुर्गे इस खेल में शहीद हो जाते हैं।

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यह मुर्गा लड़ाई गाँव की एक समिति के देखरेख में की जाती है। मुर्गा लड़ाई का समय कब होगा, कौन से दो मुर्गे आपस में लड़ सकते हैं आदि निर्णय समिति लेती है ताकि पारदर्शिता बानी रहे। मज़ेदार बात यह कि दो बराबर मुर्गे के मालिक मुर्गे के अंदाजन आकार और वजन के अनुसार तय करते हैं कि वे अपने मुर्गे को आपस लड़वायेगें। आखिर में जब आपस में लोग मुर्गो की जोड़ी ढूंढ लेते हैं, तब समिति तय करती है कि उन्हे आपस में मुर्गो को लड़वाना चाहिए या नहीं। लोगो में गजब का उत्साह देखने को मिलता है। कोई पैदल, कोई साईकिल, कोई बाइक से १०-१५ किलोमीटर दूर तक हाट बाज़ार पहुँच जाते हैं। ज्यादातर मुर्गा लड़ाई में केवल पुरुष ही भाग लेते रहे हैं। एक भी महिला मुर्गा लड़ाई ना ही देखते हैं ना ही मुर्गा लड़ाई में भाग लेते हैं।


लोगो के लिए हाट बाज़ार दिन किसी त्यौहार से कम नहीं होता है। पूरा परिवार बाज़ार जाते हैं। बाज़ार के दिन बच्चे भी स्कूल नहीं जाते। ज़्यादातर  बाज़ार के दिन सभी घरों में मांसाहारी खान बना होता है। लोगो के लिए प्रत्येक सप्ताह यह एक आराम का दिन होता है। हाट बाज़ार को साप्ताहिक छुट्टी या छोटा त्योहार मान सकते हैं। दिन में लोग एक जगह पेड़ के नीचे या किसी के घर में समूह में बैठे हुए मिल जाएँगे। रस भी शालीनता से पी रहे होते हैं। कोई बहुत शोर नहीं। शांति से गपशप चल रहा होता है।

अचरज की बात है, यहाँ के हाट बाज़ार में बहुत शोर नहीं होता है। आम तौर दुकानदार ग्राहक के पुछने पर ही सामान का दाम बताता है। कुछ बाहरी सौदागर आते हैं तब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए सुना जा सकता हैं। बाज़ार के बीच में यह बहुत करकस सा महसूस होता है। हाल फिलहाल अन्य ज़िलो और राज्यों से भी सौदागरों का आना बढ़ता जा रहा है। नई सामग्री लोगो को लुभाते जा रहा है। ये सौदागर उन बड़े हाट बाज़ारों में देखें जा सकते हैं जहां पर लोगो की संख्या अधिक होती है। यहाँ के क्षेत्रीय दुकान दरों में लालच नहीं दिखता है।

पहली बार जब मैं सब्जी लाने एक क्षेत्रीय दुकान में गया, मैंने पूछा – दीदी ये साग की धेरै कितने की है? दीदी ने जवाब दिया “10 रुपया।” मैंने अपना थैला बढ़ाया, उसने वो साग की धेरै मेरे थैले डाली और अलग से और थोड़ा साग फ्री में दे दिया। मैंने कहा और पैसे दूँ? उसने कहा “नहीं।” इस तरह हर क्षेत्रीय दुकानदार आपको सब्जी और फल थोड़ा अलग से फ्री में देते हुए देखा जा सकता है।

साप्ताहिक हाट में बोबो बेचती हुई महिला

ज़्यादातर हाट बाज़ार गाँव के बाहर पेड़ों के नीचे लगता है। पेड़ों के छांव के नीचे दुकानदार और खरीदार दोनों के लिए आसानी है। बहुत गाँव के दुकोनों में कोई प्लास्टिक का छत नही होता है, वे खुले में ही दुकान लगाते हैं। ये क्षेत्रीय दुकानदार स्थायी रूप से विक्रेता नहीं हैं। मौसमी फल, सब्जी, रस आदि जब उनकी जरूरत से अधिक होने पर बेचते हैं। यदि किसी मौसम में खेत से या वनोपज पर्याप्त नहीं मिलता है तब नहीं बेचते हैं। हालांकि धीरे-धीरे ये हाट बाज़ारों में स्थायी भवन (दुकानें) बनाने लगे हैं, लेकिन यह भवन बनने की गति काफी धीमा है।

जैसे जैसे शिक्षा का स्तर युवाओं में बढ़ते जा रहा है, बाहरी चकाचौंध उन्हे प्रभावित करते जा रहा है। सरकारी कर्मचारियों की रुचि इन बाज़ारो में कम दिखती है। शहरों में उनकी ख़रीदारी बढ़ते जा रहा है। शिक्षित युवा वर्ग खास मौके पर इन बाज़ारों में दिखते हैं जैसे – मुर्गा मेला, सांस्कृतिक मेला, देवी पूजा आदि।

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