एक सवाल हर वक़्त सताता, क्या कोशिश में कमी है रही?
जब शिक्षा कहती है मेहनत में हर भगवान और अल्लाह है बसा
फिर हर गरीब की गर्दन में क्यों फंदा झोली का है फंसा?
रोटी, कपड़ा और मकान अब केवल मिलते नोटों से
थके-हारों को तसल्ली झूठी देकर लुटते वोटों से…
कहीं सूखे पड़े हैं गाँव, तो कही लाशों के ढेर पड़े
सवाल न बदले सालों से वही आज जो कल थे पड़े
धर्म-जाति के नामों पर आज भी दंगे होते हैं,
क्या ही फर्क पड़ता है इन्हें जब अपने किसी के खोते हैं…
जो बोए वो पाए सुना था, अब अजीब हालात है,
यहाँ बोता कोई और पाता कोई और ही है
सजा है भारत विविधताओं से यही बना अब ख़तरा है
न चाहते है विविधता और न चाहे ये एकता हैं…
धर्म-जाति के तीर चले फिर रंगों में बटवारे हुए,
न दिल भरा खून-खराबों से तो पेट पर भी वार किए…
मुद्दों पर मुद्दे हैं लाते कहीं मंदिर तो कहीं मस्जिद पाते,
भारत को हिंदुस्तान बनाते, न जाने आखिर क्या हैं चाहते…
एक अजीब सा कहर है छाया और हर कही यह हमने है पाया
चाहते संविधान मिटाना, आरक्षण शब्दों को हटाना,
आत्महत्या के मेले भरे हैं, पेट-गुज़ारे के प्रश्न खड़े हैं,
अब अच्छे दिनों की चाह किसे है, बस जीने की कुछ आस बची है…
शिक्षा बड़ा बाज़ार बना है, प्रायवेटाईज़ेशन का ट्रेंड चला है,
स्वास्थ्य का व्यापार दिल को छू जाता, पैसों का खेल है नज़र आता…
एक सवाल हर वक़्त सताता क्या कोशिश में कमी है रही?
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