कश्ती गुज़ारे की, चाह की

by | Oct 24, 2023

मैं लखनऊ स्थित सद्भावना ट्रस्ट में इंडिया फ़ेलो के रुप में जुड़कर कार्य कर रही हूँ। सद्भावना ट्रस्ट एक स्वयं सेवी संस्था है जो मुख्यतः महिलाओं और लड़कियों से जुड़े सभी सामजिक मुद्दों पर काम करती है। जैसे घरेलू हिंसा पर मुफ्त कानूनी मदद देना, महिलाओं के लिए रोज़गार के विकल्प एवं उपलब्धियों से जुड़ाव कराना और डिजिटल साक्षरता जैसे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर रचनात्मक एवं रोमांचक कार्यक्रम चलाकर सशक्तिकरण पर काम करना। साथ ही सभी को उनके संविधानिक और लैंगिक हक़ के प्रति जागरूक करना व उन्हें पाने के लिये उनके साथ लड़ाई में डटे रहना। मेरा काम है महिलाओं और लड़कियों के साथ इसी समुदाय का हिस्सा बनकर इन मुद्दों पर काम करना।

समुदाय कुछ ऐसा नज़र आता है

मैं एक ऐसे शहर से हूँ जिसे लोग सपनों का शहर कहते हैं – बम्बई। या बॉम्बे। जहाँ हम बड़े होते हैं, वहाँ अपने आसपास के समुदाय और उनकी आजीविकाओं के माध्यमों की हम भली भांति समझ रखते हैं। शहर कैसा होगा, उसकी एक विशिष्ट सोच हमारे दिल-ओ-दिमाग में बस जाती है। इसी तरह मेरे दिमाग में ‘शहर’ वह था जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें, औद्योगिक क्षेत्र, कारखाने, महाविद्यालय, अस्पताल, चहल-पहल, चकाचौंध और भागदौड़ से भरी ज़िन्दगी हो। और इसी के साथ रोज़गार बड़ी मात्रा में उपलब्ध हो।

पर जब से मैंने लखनऊ शहर की लड़कियों और महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया है और उनके दैनिक जीवन से रूबरू हो रही हूँ, शहर के प्रति मेरे विचारों में काफी बदलाव आये हैं। अगर चहल-पहल और चकाचौंध की बात की जाये तो यह शहर बहुत अलग है। यहाँ लोगों के जीवन में एक अजीब सी स्थिरता और शान्ति है। रोज़गार के ज़्यादा विकल्प न होने के कारण उतनी भागदौड़ देखने को नही मिलती है। औद्योगिक क्षेत्र और कारखाने शहर के बाहर या आसपास के बड़े शहरों में हैं। अस्पताल हैं पर, इलाज, चिकित्सक, साफ-सफाई आदि मामलों मे काफी बुरा हाल है।

लखनऊ का इतिहास काफी पुराना है। चाहे फिर वह मुग़लों-नवाबों से जुड़ा इतिहास हो या फिर धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहरों से जुड़ा। और इन्हीं विशेषताओं की वजह से लखनऊ बेशक हमेशा से मशहूर तो रहा ही है, पर वास्तविक रूप से आज भी यह शहर उन सभी प्राचीन कामकाजों की मिली विरासतों को चला रहा है। मुग़लों-नवाबों के ज़माने से चिकन-कारी, ज़री जैसे कामों के लिए जाना जाने वाला लखनऊ आज भी इन कामों के लिए पहचाना जाता है। इस महंगाई के दौर में यहाँ छोटे समुदाय और बस्तियाँ हैं, जहाँ लोग अपना जीवन गुज़ारने के लिए रोज़ाना संघर्ष करते हैं। उनकी कला और हुनर काफी बढ़िया नजर आते हैं लेकिन अगर गहराई से देखें तो वास्तविक परिस्थिति काफी हद तक गंभीर होने की अनुभूति होती है।

गुज़ारे

चिकन-कारी कढ़ाई और ज़री काम

मुझे यहाँ जब समुदाय से मिलने का अवसर मिला तब मेरे टीम के साथी मुझे कई सारी गलियों और उनके अंदर घरों मे ले गये। काफी बातचीत हुईं लेकिन मेरा ध्यान वहां हो रही कलाकारी की तरफ भटक रहा था। किसी घर में कढ़ाई (एम्ब्रोइडरी), कही चिपकावन, कही चिकनकारी तो कही ज़री का काम चल रहा था। उन्हें देखते रहने और वह काम सीखने की खूब इच्छा हुई। बाजारों में उपलब्ध चिकन के कपडे हमारे दिल को मोह लेते हैं, लेकिन असल में इस आकर्षण निर्माण में कारीगरों को अपनी जान डालनी पड़ती है। इसमें हाथ की कारीगरी और मेहनत लगती है। यह चार चाँद लगाने का महीन काम ज़्यादातर औरतें और लड़कियाँ करती हैं।

गुज़ारे

ऐसा पहनावा बनाने के लिए एक कपड़े को कई पड़ावों से गुज़रना पड़ता है। पहले एक कपड़े से कुर्ता, साड़ी, लहंगा, शर्ट आदि बनती है। इसके बाद उसपर कढ़ाई करने के लिए डिज़ाइन छपाई के लिए भेजा जाता है। और फिर कारीगरों द्वारा कई दिनों, कभी-कभी हफ़्तों और महीनों तक उस पर काम होता है। फिर कहीं हमें आकर्षक, मनचाहा कपड़ा देखने और पहनने के लिए नसीब होता है। बाजारों में ज़री-काम और चिकन-कारी वाले कपड़े महंगे बिकते हैं और इन्हें खरीदना सामान्य लोगों के बस की बात नहीं है।

अब हो सकता है ऐसा भ्रमित ख्याल आए कि कारीगरों के कड़े परिश्रम के बाद यह कपड़ा बनता है लेकिन उन्हें इसका मोल भी तो अच्छा खासा मिलता होगा। लेकिन यह काम बहुत ही कम दामों में करवाया जाता है।

सालों पहले जब यह काम अच्छा चलता था, तब लोगों को अच्छी-खासी आमदनी मिलती थी। जब से यह और शहरों में भी होने लगा, लखनऊ में रहने वाले कारीगरों की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गयी है।आठ घंटे की शिफ्ट को यहाँ एक नफरी कहते हैं और उसके 200 से 250 रूपये मिलते हैं। पूरे हफ्ते काम करने के बाद उसका हिसाब लगाकर हर रविवार पैसा मिलता है। इतने कम पैसों में न तो बच्चों की शिक्षा पूरी हो पाती है और न ही वह अपने भविष्य के लिए कुछ सोच सकते हैं। ज़री-काम लगभग खत्म होता जा रहा है और इसी वजह से कुछ कारीगर ई-रिक्शा चलाने पर मजबूर हो गए हैं। बाकी बचे हुए लोगों के पास ‘मजदूरी’ के अलावा कोई चारा नहीं है।

ई-रिक्शा

यहाँ पहले महीने में ई-रिक्शा ने मुझे बहुत आकर्षित किया क्योंकि मैंने पहले ये बहुत नहीं देखा था। इसकी बनावट मुझे आज भी भाती है। ऐसी खुली सवारी जो बढ़िया हवा देती है और मज़ेदार गाने सुनते-सुनाते मंज़िल तक ले चलती है। समुदाय में रहकर मैंने जाना कि यह सफर जितना मज़ेदार है, उतनी ही संवेदनाओं से भरी उसे चलाने वाले की स्थिति है। पुरुष और कम उम्र के लड़के भी ई-रिक्शा चलाते हैं। अब विकल्प न होने के कारण महिलाएं भी इसे चलाने लगी हैं।

ज्यादातर लोग भाड़े पर रिक्शा चलाते हैं और उन्हें मालिक को रोज़ाना 300 से 450 रूपये रोज़ ‘कोटे’ के रूप में देने होते हैं भले ही उनकी आमदनी कितनी भी हो या न हो। आज यहाँ सड़कों पर भारी संख्या में रिक्शे हो गए हैं। इस स्थिति में किसी एक रिक्शा चालक का दिन भर में कोटा जुटाना बहुत मुश्किल हो गया है। जो मालिक हैं वह इस कमाई के पैसे से और रिक्शे खरीदते हैं और उसे किराए पर चलवाते हैं जिससे उनकी आमदनी बढ़ती रहती है।

मेरी समझ

एक मात्र गुज़ारे कि समस्या को सुलझाने कि कोशिशों में समुदाय के लोगों को जाने-अंजाने भविष्य में और भी भारी समस्याओं से जूझना पड़ता है। जैसे चिकन-कारी मे ज्यादातर कम उम्र कि लड़कियों का समावेश होने की वजह से अधिकतर लड़कियों कि पढ़ाई बचपन में ही छूट जाती है। वे काफी कोशिशों के बाद भी कक्षा 5 से 7 तक ही पढ़ पाती हैं। ठीक उसी तरह ई-रिक्शा के काम में लड़कों को गुज़ारे के ख़ातिर प्रवेश करना पड़ता है और वे भी पढ़-लिख नही पाते। परिस्थितियों के आगे मजबूर परिवार को कोई भी विकल्प न दिखाई देने की वजह से वे जल्दी अपने बच्चों की शादी करा देते हैं।

व्यावसायिक स्तर पर चिकन-कारी कढ़ाई कारीगर कम वेतन और असमानता का सामना करते हैं जिससे उन्हें अधिकांश सामाजिक और आर्थिक लाभ का हिस्सा नहीं मिल पाता है। कारीगरों को कार्य स्थान पर सुरक्षा की कमी का सामना करना पड़ता है, जिससे शारीरिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लंबी घंटों तक यह काम करने से नज़र कमज़ोर होती है और मानसिक तनाव भी बढ़ता है।

अब मैं काफी सवालों मे उलझी रहती हूँ। हम सभी जीवन मे शान्ति और स्थिरता चाहते हैं लेकिन क्या कोई विकल्प न होने की वजह से छायी हुई शान्ति और स्थिरता ठीक है? क्या भागदौड़ उससे बेहतर नहीं?

यह शान्ति केवल बाहरी रुप से है, जबकि भीतर मुसीबतों से उछलता दरिया है। गुज़ारे की इस कश्ती को यहाँ हर दिन डूबने से बचाने की कोशिश चलती रहती है, किसी दिन उसे बचाने में सफलता हाथ लगती है और किसी दिन तमाम कोशिशों के बावजूद कश्ती डूब जाती है।

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2 Comments

  1. Anonymous

    Your article made me wonder about the next few livelihood patterns of lucknow. Want to read more.

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    • Shweta Pawar

      I will try to write more.

      Reply

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