सुकमा की विलुप्त होती मौखिक भाषाएं  

by | Mar 13, 2023

परिचय

सुकमा छत्तीसगढ़ राज्य का एक ज़िला है।सुकमा ज़िला के पूर्व में उड़ीसा तथा दक्षिण में आंध्रप्रदेश है। सुकमा एक आदिवासी बाहुल्य ज़िला है । यहाँ आदिवासियों की आबादी लगभग 85% है। सुकमा में मुख्यरूप से गोंड, धुरवा, डोरला जनजातियां निवास करती है । यह जनजातियों की भाषाएँ मौखिक रूप में ही है। इन भाषाओं की कोई लिपि नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह आदिवासी अपना कौशल, ज्ञान और आविष्कार भी मौखिक रूप में स्थानांतरण कर रहे है।

भाषा का विलुप्त होना मतलब क्या?

कोई भी इंसान अपनी ज़िंदगी में कुछ भी अपनी चीज़ खोना नहीं चाहेगा।और जब बात भाषा की हो तब तो शायद ही इसे खोना चाहे । खुद की भाषा में अभिव्यक्त करना हो या समझना आसान होता है। आज भी जब घर से बाहर किसी दूसरे शहर जाओ और हमभाषा मिल जाए तो बहुत खुशी होती है| मानो अपना कोई मिल गया है। भले ही उस अनजान इंसान से कोई रिश्ता नहीं है परंतु सिर्फ हमभाषा होने से जुड़ाव हो जाता है। 

अपनी भाषा जब खत्म होती है तो एक इंसान का अस्तित्व खत्म हो जाता है। एक भाषा जब खत्म होती है तो उसके साथ ही संस्कृति, पहचान,खानपान, रहन -सहन आदि खत्म हो जाता है।

एक और महत्वपूर्ण चीज़ हम खो देते है वह है ज्ञान। कुछ ज्ञान सिर्फ उस भाषा में ही उपलब्ध होता है। प्राचीनकाल में जब आदिम मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति  के लिए सोच और खोज कर रहे थे। तब उन्होने बहुत सारे आविष्कार किए वो ज्ञान कुछ लिखित थे तो कुछ मौखिक ही रहे। जो ज्ञान लिखित रूप में था वो तो बाद में भी इस्तेमाल कर लिया गया परंतु जिसका दस्तावेजीकरण नहीं हो पाया वो सिर्फ मौखिक रह गया। जो ज्ञान मौखिक रह गए वो समय के साथ-साथ विलुप्त होते गए| क्यूँकि  जितना ज्ञान मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को साझा कर पाए वही ज्ञान मौजूद रहा गए।  

में शिक्षार्थ नाम की एक संस्था के साथ शिक्षा के क्षेत्र में सुकमा जिले में काम करता हू| शिक्षा में काम करने के लिए क्षेत्रीय भाषा और संदर्भ पता होना बहुत जरूरी है | यदि ये दोनों चीज नहीं है तो शिक्षा की मुश्किलों को समझ तो पाओगे परंतु बेहतर हल निकालने में बहुत समय लगेगा|

बहरहाल मुझे गणितीय मुख्य शब्दों का धुरवा और गोंडी भाषा में अनुवाद करना था । उसमें समय से जुड़ी दो शब्द थे ‘ वर्ष और महीना’ जिसका धुरवा अनुवाद है क्रमश: पोकाल और लेंज। जब मैंने इन शब्दों का अर्थ पूछा तो भैया ने पोकल का अर्थ सूरज और लेंज का चाँद बताया।

मैंने फिर से पूछा लेंज मतलब महीना भी है और चाँद भी है? 

भैया ने कहा “हाँ” ।

मेरा अगला सवाल था – एक ही शब्द का मतलब चाँद और महीना क्यूँ है ? भैया ने बताया कि अमावस्या से पूर्णिमा तक एक महीना लगता है।

फिर मैंने सूरज का पूछा तो भैया के पास जवाब नहीं था । भैया ने कहा सीयानमन ( बूढ़े इंसान) को पता होगा। हम लोगो को ज्यादा पता नही है। मैंने पूछा कि आपको क्यूँ नहीं पता है ? भैया थोड़ी देर चुप रहे फिर बोला की मुझे ज्यादा नहीं पता है। 

भैया से चर्चा करने से समझ आया कि उन्हे चाँद सूरज के बारे में बहुत अच्छे से जानते थे। लेकिन जैसे-जैसे वे अपनी भाषा भूलते जा रहे हैं। साथ ही उन लोगों के ज्ञान भी भूलते जा रहा हैं। मौखिक भाषा के अपने ज्ञान बहुत मजबूत रहे हैं। साथ यह भी समझ आया की भाषा का आदान- प्रदान रुक गया है। 

प्रकृति की अहम भूमिका

हमारी आज की दुनिया में जहां पर लिखित सामग्री और तकनीक की सहायता ली जाती है । वहीं सुकमा के आदिवासियों की दिनचर्या में समय देखने के लिए तारे और पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।हाँ यह अलग बात है की यह ज्ञान अब बुजुर्गो के पास ही रह गया है।  पारा (बस्ती) में जब त्यौहार की  तिथि तय करनी होती तब चाँद और तारों के माध्यम से की जाती है । जैसे ज़्यादातर त्यौहार अमावश्या और पुर्णिमा में होते हैं।

हमारे एक आदिसवासी दोस्त ने बताया की हमारे यहाँ मुर्गा रात में तीन बार बांग देता है। मुर्गे क्रमश: 2 बजे , 4 बजे सुबह और 6 बजे के आसपास  बांग देता है। मैंने उससे पूछा क्या मुर्गा ठीक 4 बजे मुर्गा बांग देता है? उसने कहा –  कोई – कोई मुर्गा ठीक 4 बजे बांग देता है, सभी नहीं। 

साथ ही उसने बताया की जब घर के आसपास साँप या कोई नुकसान पहुंचाने वाले जानवर आ जाए तो मुर्गे-मुर्गियों आगाह करने लगते हैं। जैसे घर के आसपास साँप आ जाये तो मुर्गियों के आवाज में बदलाव आ जाते हैं । मुर्गे कुकड़ू कु के बाजाय कोक कोक क क क की आवाज़े निकालने  लगते हैं। बहरहाल समय देखने के लिए धुर्वतारा को देखकर रात का समय का अनुमान लगाया जाता है। मैंने जब उस दोस्त से पूछा क्या ध्रुव तारा से सही समय का पता लग जाता है। तोह उसने कहाँ, हाँ पहले के लोग तारे देखकर पता लगा लेते थे। हमारे बुजुर्गमन (बूढ़े लोग) अच्छे से समय बता देते थे परंतु जैसे – जैसे बुजुर्ग लोग कम होते जा रहे हैं, तारों का ज्ञान भी कम होते जा रहा है । 

मौखिक भाषाएँ बहुत तेजी से विलुप्त होते जा रही है। जैसे- जैसे हिन्दी और अँग्रेजी सीखते जा रह है। अब प्रश्न उठता है ,आखिर क्यूँ अपनी भाषा इतनी तेज़ी से भूलते जा  रहे हैं ? इसके लिए एक कारण नहीं बहुत से कारण हैं। बहुत से कारणों मे से एक है दूसरी भाषों को खुद के भाषा से ज्यादा श्रेष्ठ समझना। स्कूल की भाषा हिन्दी है ।आदिवासी बच्चे जब स्कूल जाते हैं तब उन्हे स्कूल में बहुत मुश्किल होती है । यहाँ के आदिवासी मौखिक रूप से ज्यादातर लेनदेन करते हैं। उनके भाषा की अपनी कोई लिपि नहीं है। लेकिन यह मौखिक भाषाएँ अब खतरे में है |

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