सुदूर इलाके में स्थित एक गाँव है, मिनपा, जिसकी जनसंख्या महज़ 900 के आस पास है। यहाँ के घरों की छतें खपरेल और छिंद के पत्तों से बनी होती हैं तथा दीवारें लकड़ी और मिट्टी की। आसपास सब जगह धान के खेत, घने जंगल और कच्ची पगडंडियां हैं। इस गाँव में लोग खेती और मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते हैं। 21वी सदी में जहां सभी इस सदी के कौशल और ज्ञान को अर्जन करने में लगे हुए हैं, वहीं इस गाँव की पहली पीढ़ी स्कूल जा रही है। हुर्रा, इस गाँव का शिक्षित युवक है।
उसकी ज़िन्दगी संघर्षों की कहानी से भरी हुई है। हुर्रा जिस इलाके में रहता है, वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं है। उस क्षेत्र में कब नक्सल और हथियार बंद पुलिस कर्मियों के बीच मुठभेड़ हो जाए, ये कोई नहीं जानता। इस हिंसा के बीच हुर्रा ने अपनी पढ़ाई आवासीय विद्यालयों में पूरी की। छुट्टियों में जब हुर्रा घर आता, तब गाँव में हिंसा के माहौल के बीच में भी उसने अपना धैर्य नहीं खोया और १२वीं कक्षा पास करी।
कोविड के दौरान, जब सभी तरफ लॉकडाउन था और लोग ज़िन्दगी बचाने की कोशिश में लगे हुए थे, बच्चों की शिक्षा को जारी रखने की चिंता भी बढ रही थी। जैसे-जैसे लॉकडाउन खुला भारत के ज़्यादातर क्षेत्रों में ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू हो गई थीं, परंतु सुकमा के संदर्भ में ऑनलाइन शिक्षा संभव नहीं थी। इस क्षेत्र में लोगों के पास मोबाइल ही नहीं थे। कुछ के पास कीपैड मोबाइल थे और जिनके पास स्मार्टफोन था उनके पास या तो पर्याप्त डाटा नहीं था या डाटा के पैसे नहीं थे। तब हुर्रा जैसे युवकों ने ऑफलाइन वर्कशीट घर-घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ली। कोविड के इस कठिन दौर में हुर्रा ने अपने और आसपास के गांवों में शिक्षा को जारी रखा। वह तब से अब तक बच्चों के प्रति शिक्षा में रुचि जगाने और उनके पालकों को जागरूक करने का कार्य निरंतर कर रहा है।
जब भी कोई बच्चा स्कूल नहीं आता है तब वह पालकों से संपर्क करता है। वह उनको को शिक्षा का महत्व समझाता है और उन्हे उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करता है। चाहे स्कूल की झोपड़ी बनाना हो या फिर बच्चों की उपस्थिति की चिंता हो, वह सभी तरह के मसले पालकों के साथ मिलकर सुलझाता है। हुर्रा इन्हीं गाँव वालों में से एक है, इसलिए उसका जुड़ाव गाँव वालों के साथ सिर्फ शिक्षक की भूमिका के नाते ही नहीं बल्कि एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते भी है। वह गांव के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मुद्दो पर होने वाली बैठकों में भी शामिल होता है।
यदि हम हुर्रा की दिनचर्चा देखें तो वह सुबह से ही अपने काम में जुट जाता है जैसे जंगल से लकड़ी लाना, खेत में काम करना आदि। इसके बाद वह स्कूल के लिए रवाना होता है और अपने पारा (मोहल्ले) के बच्चों को साथ लेकर जाता है। हुर्रा स्थानीय भाषा गोंडी और हिन्दी में शिक्षण करता है। चूंकि सुकमा के बच्चे अधिकतर दूरदराज के गाँवों से आते हैं, उन्हें किताबों में बहुत सी कहानियां, कविताएं और शब्द नए लगते हैं।
बच्चों को स्कूल और पाठ्यक्रम में आसानी से घुलने-मिलने के लिए हुर्रा बहूभाषी और संदर्भ-आधारित शिक्षण देने की कोशिश करता हैं। बच्चे हुर्रा के साथ बहुत खुश रहते हैं। बच्चे जिन वस्तुओं या अवधारणाओं को अच्छे से जानते हैं, वह उन्हीं को शिक्षा का माध्यम बनाकर पढ़ाता है। बच्चों को स्कूल में सुरक्षित माहौल प्रदान करने में हुर्रा की महत्वपूर्ण भूमिका है।
2005 के पहले, बच्चे पक्के भवन में पढ़ने जाते थे, परंतु 2005 में सलवा जूड़ुम आंदोलन के दौरान स्कूल को तोड़ दिया गया और तब से स्कूल बंद थे। 2 फरवरी 2011 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों को इस तरह से हथियार देना अवैध घोषित कर दिया। उसके बाद, 2019 से मिपना में फिर से स्कूल शुरू हुआ है और अभी सिर्फ शुरुआती स्तर पर हैं। यह स्कूल अभी भी एक झोपड़ी जैसा लगता है। कोई दीवार नहीं है। अच्छी बात यह है कि शिक्षा की शुरुआत हो चुकी है। बच्चे खुली दीवारों के बीच ज्ञान अर्जन कर रहें हैं।
अपनी रोज़मर्रा कि ज़िंदगी में हुर्रा स्कूल के अलावा घर के काम भी उतनी ही ज़िम्मेदारी से करता है। वह अपने खेत में धान की खेती – खेत जुताई, धान का रोपा लगाना और कटाई – में माहिर हैं। यह उसको एक शिक्षक के साथ-साथ एक अच्छा किसान भी बनाता है। खेती से वह अपने लिए साल भर का धान आराम से निकाल लेता हैं परंतु यदि मौसम की मार पड़ जाये तो उसे और गाँव वालों को दो समय की रोज़ी-रोटी के लिए भी जूझना पड़ता है। इस स्थिति में लोग पड़ोसी राज्य में मिर्च तोड़ने का काम करने के लिए पलायन कर जाते हैं। हुर्रा महुआ और तेंदूपत्ता बेचकर अपनी आवश्यकता पूरी करता है।
हुर्रा जब भी गाँव से बाज़ार या शहरों में जाता है तब उसे अनेकों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। हर बार ही उसे विभिन्न फोर्स कैंप से होकर गुज़रना होता है। इन कैंपों में आते और जाते समय उसे बिना एंट्री के नहीं जाने दिया जाता है और कई बार पूछताछ का सामना भी करना पड़ता है। उसे अपने आप को साबित करना पड़ता है कि वह किसी अवैध काम में व्यस्त नहीं है। यही मुश्किल उसे नक्सलियों की तरफ से भी होती है। उसे दोनों तरफ जवाब देना होता है कि वह कोई ख़बरी/मुख़बीर का काम नहीं करता है।
इस तरह की कठिनाइयाँ उसे आमतौर पर उठानी पड़ती हैं, खासकर तब जब फोर्स और नक्सलियों के बीच संघर्ष चल रहा हो। हिंसा की चपेट में आने का ख़तरा हमेशा बना रहता है। इन सबके बावजूद, हुर्रा ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अब वह बच्चों को पढ़ा रहे हैं। खुद की ज़रूरत का सामान हो या बच्चों की अध्ययन सामग्री, वह शहर से खरीदने जाता है। उसे एक सहनशील, धैर्यवान और मजबूत हृदयवाला व्यक्ति कहा जा सकता है।
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