हुनर और घबराहट

by | Oct 17, 2024

हुनर एक ऐसा अनमोल गुण है, जो हर कलाकार के अंदर छिपा होता है, लेकिन मंच पर खड़े होते वक्त घबराहट भी उनके कदमों को डगमगाने पर मजबूर कर देती है।

कभी-कभी ऐसा लगता है कि जब एक कलाकार मंच पर घबराता है, उसकी नज़रें खुद को छुपाने की कोशिश करती हैं। चाहे उसने वह प्रस्तुति हजार बार ही क्यों न की हो, फिर भी उसके कदम डगमगा जाते हैं।

ऐसे में क्या ये मुमकिन है कि दर्शक कुछ समय के लिए अपनी नज़रें उससे हटा लें? क्या वे उसकी मदद कर सकते हैं, सिर्फ तालियों से नहीं, बल्कि अपने मौन सहारे से? तालियाँ बजती हैं, समर्थन भी मिलता है, लेकिन उन डगमगाते कदमों को किसका सहारा मिल पाता है? मैंने एक बार कुर्सी का सहारा लिया था, लेकिन क्या दर्शक भी मेरी कुर्सी बन सकते हैं? शायद। पर एक कुर्सी हुनर की भी होती है, और अगर उस हुनर को संवारा जाए, तो शायद घबराहट के कदम भी ठहर जाएँ।

ऐसी ही भावनाएँ मैंने अपनी यात्रा में भी महसूस की हैं। मंच पर खड़े होते वक्त की घबराहट, हर बार खुद से सवाल पूछना; “क्या मेरे अंदर वो हुनर है?” और फिर, धीरे-धीरे ये एहसास हुआ कि हुनर केवल अभ्यास से नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और धैर्य से भी निखरता है। इस यात्रा को मैंने कुछ पंक्तियों में बयाँ किया है, जिन्हें आपसे साझा कर रहा हूँ: कविता के माध्यम से यह कहना चाहता हूँ कि हर कलाकार के अंदर एक यात्रा होती है – खुद को समझने की, घबराहट को मात देने की और आखिरकार अपने आप को पहचानने की। दर्शक तालियों से समर्थन तो देते हैं, लेकिन असली कुर्सी वो हुनर ही है, जिसे हमें समय और मेहनत से तराशना होता है।

हुनर

ये हुनर मुझमें ही है,
क्या वो पहले से था?
होता क्या है हुनर?
पूछो तो बताऊँ ज़रा।

कल जीवन में पहली बार कलम पकड़ी,
लीड की नोक और चारों तरफ लकड़ी।

हाथ चला काग़ज़ पर तो लकीर बन गई,
उन लकीरों को मिलाया तो तस्वीर बन गई।

पहली झलक में खुद से नफ़रत सी हुई,
उस तस्वीर ने मुझे गंभीर कर दिया।
उदास हुआ ऐसे कि तोड़ दी वो कलम,
फरेबी तस्वीर से हुआ मुझे फिर अजीब भ्रम।

टूटी हुई कलम देख के फिर हुआ मैं उदास,
नहीं है मुझमें हुनर,
कि मैंने खुद से दरख्वास्त।

एक कोशिश और सही, कलम का क्या था कसूर,
उठा ली फिर से कलम, घबराया था मैं ज़रूर।

इस बार तस्वीर बोली,
ज़ालिम मैं नहीं, सोच थी तुम्हारी,
सब्र से बनाओगे,
तो दोस्ती होगी न हमारी।

फिर बहुत बनाईं तस्वीरें,
एक के बाद हज़ार।
तोड़ता नहीं मैं अब कलम,
उदास हुए बाज़ार।

ये हुनर होता क्या है,
हालांकि समझा मैं आज भी नहीं।
है अगर कुछ हुनर,
तो तुझमें ही है।

हुनर वो है, जो कंक्रीट की कठोरता से भी खिलकर फूलों की तरह मुस्कुरा उठे।
हुनर वो है, जो कंक्रीट की कठोरता से भी खिलकर फूलों की तरह मुस्कुरा उठे।

TLDR: सुन लो, मेरी आवाज़ इतनी अच्छी नहीं है लेकिन मैं वर्चुअल कोशिश कर रहा हूँ। मैं कुर्सी पर बैठा हूँ और कुछ डगमगाया नहीं है।

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