कहानी, कविता, पाठ्यपुस्तकें, नाटक, शायरी, चुट्कुले, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि तमाम सारी किताबें पुस्तकालय में पढ़ने के लिए आसानी से मिल जाते हैं। पाठ्य पुस्तक के बारें में जब भी सोचता हूँ, बचपन में मुझे बहुत ही बोगस लगता था, डर लगता था, शिक्षक कब प्रश्न पुछे लेगा और कब पिटाई या डांट न पढ़ जाए। जाहीर सी बात थी की कोई भी पाठ पूरी याद रहती नहीं थी। वहीं पुस्तकालय की कहानी – कविता मुंह जबानी याद रहती थी।
गाँव किसी पुस्तकालय से कम नहीं है। गांव में मौखिक विद्या का संग्रह इतना है कि किसी पुस्तकालय में रखे लिखित किताबों से कम नहीं। गांव में दादा-दादी नाना-नानी अक्सर बच्चों को कहानियां सुनाते हैं। बच्चों की गर्मी की छुट्टियां यही कहानियां सुनकर बीतती है।
बहरहाल, मौखिक कहानियाँ बच्चों की पहली पस्तकालय होती है, यह मौखिक कहानी बच्चों की शिक्षण का एक महत्वपूर्ण नींव है। जिस मजेदारी के साथ मौखिक कहानी सुनी जाती है, यही मजेदारी बच्चे फिर स्कूल में ढूंढते है। पर क्या स्कूल इस आशा पर खरा उतर पता है?
छवि स्त्रोत – newindianexpress.com
बच्चों को कहानी की किताबो का हर एक शब्द याद रहता है। वहीं पाठ्य पुस्तक का एक पाठ पढ़ने के बाद सवालों का जवाब देने में मुश्किल हो जाता है। कहानी की किताबें बच्चों को रोचक, जिज्ञासु, मज़ा, भयमुक्त, आज़ादी के साथ पुस्तकालय में रहते हैं। छोटे बच्चों को पुस्तकालय में ज़ोर से पढ़ना, खेल रोचक गतिविधियां बहुत पसंद आता है। पुस्तकालय में बच्चे भागते हुए आते हैं। वही स्कूल की छुट्टी की घंटी में भी बच्चों को भागते हुए मैंने देखा है।
किताब बच्चों को अपनी ओर आकृषित करती है। पुस्तकालय में बच्चे कहानी के माध्यम से मज़ा करते हुए पठन करना सीख जाते हैं। पुस्तकालय की गतिविधियां बच्चों को सीखने में आसानी प्रदान करते हैं। पठन प्रक्रिया में बच्चों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बच्चों को एक कहानी समझने में, याद रखने और सवालों का जवाब आसानी से देने में दिक्कत नहीं होती। चित्रात्मक कहानी तो और भी बच्चों को किताब के प्रति ध्यान आकृषित करने में सहायक है।
जिन ग्रामीण भागो में, ज्यादा करके जहां स्कूल अभी भी ठीक से पहुंच नहीं पाए, और यदि पहुंचे तो उनकी हालत खस्ता है, वहां सामुदायिक पुस्तकालय का अलग महत्त्व है। स्वयंसेवी संस्थाओ ने इसमें काफी बढ़ चढ़ कर काम किया है। बिहार के गोपालगंज में प्रयोग, मध्य प्रदेश में एकलव्य, सुकमा में मेरी खुद की संस्था शिक्षार्थ ऐसी कुछ संस्थाओ में से है। सामुदायिक पुस्तकालय में अकसर छोटे बच्चे भी आ जाते है। स्कूली पुस्तकालय में अनुशासन की अपेक्षा हम रखते है, शांत रहो, क्या वो कही पर सीखने की सहजता को रोकता है? सामुदायिक पुस्तकालय की ये बात सबसे अनूठी है – अनुशासन की जगह कोलाहल ले लेता है।
चार वर्ष का एक बच्चा पुस्तकालय जब भी मन हो आ जाता था। खेल की सामग्री लेकर खेलने लगता है। उसे किताब पढ़ने नहीं आता है लेकिन वह कहनी की किताब लेता और पढ़ने की नकल करने लगता है। यह कहानी की किताब की ताकत है कि बच्चा अपनी मर्जी से किताब पढ़ना चाहता है।
दस दिवसीय सामुदायिक पुस्तकालय का आयोजन मेरी समुदाय के बीच में किया गया। इस पुस्तकालय का उदेश्य यह था कि लिखित और मौखिक विधाओं का आदान प्रदान और स्कूल-समुदाय के बीच कि दूरी को काटना था। समुदाय के लोगो के लिए समुदाय के बीच में पुस्तकालय का होना नया था। विद्या से समुदाय वाकिफ थे, लेकिन मौखिक रूप में। समुदाय के सामने लिखित विधाओं का परिचय और साझा करना एक नया अनुभव था।
हमे यहां समझना होगा की हम ऐसे बच्चों की बात कर रहे है जिनके पालको ने कभी एक स्कूल की कक्षा नहीं देखी। कुछ पालक साक्षर थे, उन्हे कहानी किताबों को पढ़ना रोचक लगा। सामुदायिक पुस्तकालय में पालक और बच्चे दोनों एक साथ कहानी कि किताबें पढ़ते। यह अनुभव शानदार था; बच्चों को भी अच्छा लगता कि उनके पालक उनके साथ बैठकर किताब पढ़ते हैं। वहीं स्कूल के पुस्तकालय में पालक कभी भी नहीं शामिल होते थे। सामुदायिक पुस्तकालय में पालकों को मौखिक कहानी वाचन करने के अवसर दिये गए।
बच्चों को पालकों से कहानी सुनने का अवसर मिला। शिक्षक की भूमिका में थे पालक। बच्चों और पालकों के लिए आसानी थी किताबों के साथ जुड़ना। पालकों को सामुदायिक पुस्तकालय में आने में इतनी मुश्किल नहीं हुई। इस वजह से, पालक शाम के शाम फ्री होने पर अपना समय बच्चों के साथ वाचन में बिताने लगे है। समुदाय के बीच में पुस्तकालय होने से पालक और बच्चे एक दूसरे के साथ शिक्षण से जुड़े गतिविधि का हिस्सा बने और एक प्रकार का संगम हो पाया। मुझे इस बात की ख़ुशी है।
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