सतपुड़ा पहाड़ की वादियों में बसा एक गाँव है, जहां पर एक घर गाँव कोतवाल, दो घर लोहारों के, और एक घर ग्वाला को छोड़कर सभी घर कोरकू समुदाय के लोगों के हैं। हमारा परिवार मुख्य रूप से खेती और मजदूरी पर निर्भर था। उन दिनों खेती से इतना अनाज नहीं निकाल पाते थे तो मेरा परिवार बैतूल से पलायन करता था। उन दिनों सोयाबीन की खेती बड़ी मात्रा में होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) के किसान किया करते थे। जुलाई में मुख्यतः सोयाबीन का कचरा साफ करने और अक्तूबर में कटाई के लिए जाते थे। इसके बाद मार्च-अप्रैल में गेंहू की कटाई के लिए भी जाते थे।
सातवीं की पढ़ाई करते तक मैं पलायन करता रहा। पहले गेहूं की बालियाँ उठाया करता था बाद में गेहूं भी काटने लगा। सातवीं के बाद मैं आदिवासी छात्रावास में पढ़ने के लिए चला गया। माँ -पिताजी तब भी मजदूरी करने बाहर जाया करते थे। तब मेरी दीदी और बड़े भैया मेरा बहुत ख्याल रखते थे। दीदी ने गाँव के ही प्राथमिक शाला से पांचवी तक अपनी पढ़ाई की। दीदी की पढ़ाई आगे नहीं हो पाई परंतु मुझे और मेरे बड़े भाई को स्कूल भेजा गया। हम पांच भाई और एक बहन हैं। मुझे और बड़े भाई के अलावा बाकी भाइयों की पढ़ाई नहीं हुई है।
हम दोनों गाँव के स्कूल में जाते थे। उन दिनों सरकारी स्कूल की छत खपरैल की हुआ करती थी। मेरे भाई ने नौवीं तक छात्रावास में रहकर पढ़ाई की और उसके बाद फ़ेल होने की वजह से उसकी पढ़ाई आगे नहीं हो पाई। मेरे गाँव में सिर्फ पांचवी तक ही स्कूल था। आगे की पढ़ाई के लिए २० किलोमीटर दूर कस्बे में जाना होता था। हमारे घर में साइकिल भी नहीं थी कि मैं आना-जाना करके पढ़ पाता। आदिवासी छात्रावास हुआ करता था। उसी छात्रावास में रहकर मैंने अपनी पढ़ाई बारहवीं तक पूरी की।
स्नातक की पढ़ाई के लिए महाविद्यालय ५० किलोमीटर दूर जाना था लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। आगे की पढ़ाई करने से ज्यादा मेरे लिए जरूरी था मैं घर की आय में मदद करूँ। बारहवीं के बाद नौकरी ढूँढना शुरू किया लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। ज्यादा दिन खाली नहीं रह सकता था। पढ़ाई के बाद मैं खेती में मदद करता और जब पंचायत में काम शुरू होता तब डैम, कुंआ, रोड इत्यादि के काम करने मजदूरी करता था। एक साल इसी तरह बीत गया। प्राइवेट नौकरी तो थी नहीं, सरकारी नौकरी का इंतज़ार करते रहे।
साल भर बाद, गाँव में एकल्व्य संस्था (शिक्षा में काम करने वाली एक अग्रणी संस्था) एक शिक्षित युवक ढूंढ रही थी। मेरे अलावा मेरे और भी दोस्तों को काम मिला। स्कूल के अतिरिक्त दो घंटे सपोर्ट करते थे और बदले में २५० रुपये मासिक मिला करता था। यह मेरे ज़िंदगी का वो मोड़ था जिसने शिक्षा में काम करने और समझ बनाने का सिलसिला शुरू किया।
जब मैं बैतूल में प्राथमिक स्तर की पढ़ाई कर रहा था तब हमें गिनती, पहाड़ा, वर्णमाला याद करना होता था। यदि याद नहीं करके बता नहीं पाते थे तो तब हाथ या डंडे से पिटाई पड़ती थी। मैं शिक्षक से इतना डरता था कि पता नहीं कब पिटाई पड़ जाएगी। एक और शिक्षक थे वो प्यार से पढ़ाते थे। उनकी शिक्षा पद्दति और एकलव्य कि शिक्षा पद्दति ने मुझे शिक्षा के बारे में जानने के लिए उत्सुक किया। शिक्षण शास्त्र को और समझने का मौका मिला – मैं खेल-खेल में, गतिविधि आधारित शिक्षण करने लगा।
पहले तो यह शिक्षण शास्त्र पच नहीं रहा था कि खेल-खेल में बच्चे कैसे सीखते है? प्रशिक्षण के बाद कक्षा में शिक्षण के दौरान बच्चों को बहुत मज़ा आता था और वे सीखते भी थे। वेतन मेरे लिए कम था लेकिन सीखने के मौके थे। बाद में वेतन बढ़ाकर ५०० रूपए कर दिया गया परंतु वह भी काफी नहीं था।
२०१० में मुझे एक दोस्त ने मुस्कान संस्था के बारे में बताया और वहां काम करने का अवसर मिला। झुग्गी झोपड़ी के बच्चों के साथ काम करने में बहुत सी चुनौतियाँ थी। बच्चे पढ़ना नहीं चाहते थे, कई प्रकार के नशे करते थे, उनके लिए गाली-गलौच करना मामूली बात थी; मुझे भी नहीं छोड़ते थे।
शुरुआत में मुझे दिक्कत हुई, फिर बच्चों से दोस्ती करने के बाद उन्होंने मुझे तंग नहीं किया। उन दिनों मैं एक किताब पढ़ रहा था ‘समर हिल‘ – इस किताब ने मुझे बहुत मदद की, मेरे धैर्य को और मजबूत किया। मुझे नौकरी की जरूरत थी तो काम तो मिल गया था लेकिन मेरी अपनी पढ़ाई रुक गई थी। आगे पढ़ने का मन था परंतु काम करते हुए नियमित पढ़ना संभव नहीं था। ३ साल बिना पढ़े ही बीत गया। जब मौका मिला, नियमित कॉलेज जाना संभव नहीं लग रहा था। आर्थिक स्थिति इतनी नहीं थी की कॉलेज की फीस भर पाएँ। इसलिए प्राइवेट ही पढ़ाई जारी रखी। मेरी इच्छा फुलटाइम क्लासरूम से पढ़ने की थी, वो पूरी नहीं हो पाई। बहरहाल मैंने कॉलेज की पढ़ाई प्राइवेट ही पूर्ण की।
मैंने दो अलग-अलग संस्थाओं में काम किया। मुस्कान (भोपाल, मध्य प्रदेश) और शिक्षार्थ (सुकमा, छत्तीसगढ़ – जिसके अंतर्गत मैं इंडिया फेलो से जुड़ा) संस्थाओं में मुझे आदिवासी बच्चों के साथ सीखने-सिखाने का मौका मिला। मैं इस संस्था के माध्यम से उन बच्चों की पढ़ाई में मदद कर पाया और कर पा रहा हूँ जो मेरी तरह शिक्षा में संघर्ष कर रहे हैं। दोनों संस्थाएं जमीनी स्तर पर काम कर रही हैं। जमीनी संस्था होना ही एक बड़ी वजह है जो मैं इनके साथ जुड़ा हुआ हूँ।
शिक्षार्थ में मैं पिछले ३ साल से काम कर रहा हूँ। यहाँ का समुदाय और मैं जिस जगह से आता हूँ, मुझे इनमें अपना प्रतिबिंब दिखता है। बेशक सुकमा में नक्स्लवाद का अतिरिक्त असर है, शिक्षार्थ संस्था नक्सल प्रभावित क्षेत्र में जाकर बच्चों की शिक्षा पर काम कर रही है। मैंने जिन परिस्थितियों से गुज़रकर अपनी पढ़ाई की, उससे भी कहीं अधिक सुकमा के आदिवासियों के जीवन का संघर्ष है। यहाँ पर बच्चों के लिए स्कूल तक पहुँचना ही बड़ी चुनौती है। तो बेहतर शिक्षक तक पहुँचने में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है।
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