जैसा की मैंने अपने पिछले ब्लॉग में बताया था की मैं इंडिया फ़ेलो द्वारा पुरुलिया में एक सामुदायिक रेडियो स्टेशन नित्यानंद जनवाणी 91.2 FM में नियुक्त किया गया हूँ| मेरे आगमन के समय पुरुलिया हरी-भरी नयी फसलों से लहलहा रहा था जोकि अब पांच महीने बाद सुनहरी घनी फसलों में परिवर्तित हो चुकी हैं| परिपक्व सुनहरी फसलें हर ओर अपनी छटा बरसा रही हैं और किसान खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं| साल भर में एक ही बार तो होती है यहाँ खेती, अगर उसमे भी पर्याप्त फसलें न हो तो क्या फायदा!
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धान की परिपक्व सुनहरी फसलें
ख़ुशी तो भरपूर है लेकिन करीब दो-तीन महीने सुस्ती और विश्राम करने के बाद मेहनत का काम शुरू होने वाला है| फसल काटने, धान छाटने और उपज बेचने का वक्त आ गया है| इसी कारण अभी हमारे सामुदायिक रेडियो कार्यालय में भी लोगों का आना जाना कम हो गया है| चाहे वो आदमी, औरत या उनके बच्चे हों, सबके सब आपको खेत में मिलेंगे| गाँव तो जैसे खाली हो जाता है कुछ समय के लिए|
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बैलगाड़ी पर धान की फसलें ले जाता किसान
पुरुलिया क्षेत्र में संथाली समुदाय की संख्या बहुत अधिक है| यह एक आदिवासी समाज है जोकि मुख्यतः झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और नेपाल के कुछ क्षेत्रो में प्रवास करते है| इनकी अपनी संथाली भाषा है और बिल्कुल अनूठी संस्कृति है| इस समय संथाल समुदाय में इनके सबसे बड़े और प्रमुख त्योहार की तैयारी चल रही है| इस पर्व की तुलना जंगल के गजराज हाथी से की जाती है|
कहते हैं “जंगल में हाथी विशाल” और “पर्वों में सोहराय विशाल”|
“सोहराय” संथाल समाज में अहम भूमिका निभाता है| यह केवल एक त्योहार हीं नहीं बल्कि एकता, सम्पन्नता और खुशहाली का प्रतीक है|
संथाल समाज में त्योहारों की तिथि निश्चित नहीं होती है| बल्कि फसल कटने का समय व आर्थिक स्तिथि को देखकर गाँव के मुखिया और बाकी लोग 5 दिन का समय निर्धारित करते हैं| फिर शुरू होता है सोहराय का भव्य और विराट महोत्सव|
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सोहराय की तिथि निर्धारित करते ग्रामीण
हर घर में साफ़ सफाई और नवीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है| ज़्यादातर घर मिट्टी के हीं है यहाँ, तो मिट्टी का लेपन, गोबर की निपाई और दीवारों पर खूबसूरत कलाकृतियों की निर्मिति का काम होता है| इतना रमणीय दृश्य होता है कि मानो आप उसी मनोरमता में खो कर रह जाएँगे| मिट्टी की सौंधी सुगंध और प्राकृतिक रंगों की चित्रकारी अद्भुत छटा बिखेरती है|
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प्राकृतिक रंगों से घर की रंगाई करती हुई ग्रामीण किशोरी
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कलाकृति करता हुआ ग्रामीण व्यक्ति
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कलाकृति किये गए घर
पहले दिन का शुभारम्भ होता है पूजा आराधना से और इस दिन को बोलते है “ॐ“| गांव के पुजारी (नाइके) एक खुले स्थान पर देवी-देवताओं की पूजा करते है और इसमें केवल गाँव के पुरुष मौजूद होते हैं| इसी बीच गोडेत जोकि नाइके के सहायक हैं, गाँव के सभी घरों से एक-एक मुर्गी और चावल-दाल लेकर पहुँच जाते हैं| इसके बाद देवी देवताओं की प्रसन्नता के लिए उनकी बलि दी जाती है और मांस को प्रसाद मानकर उसकी खिचड़ी बनाकर सभी पुरुषों में वितरित करते हैं| इस पूरी पूजा में महिलाएँ वर्जित हैं|
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देवी देवताओं की पूजा-उपासना करते हुए गाँव के नाइके
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देवी देवताओं को बलि देते हुए
एक और मुख्य प्रथा है जिसमें उसी जगह पर गाँव के सारे मवेशियों को लाया जाता है| पूजा स्थान पर एक अंडा रखते हैं, जो किसी ऐसी मुर्गी का होना चाहिए जिसने अपने जीवन चक्राल में पहली बार अंडा दिया हो| फिर सारे मवेशी एक-एक करके वहाँ से गुज़रते हैं और जिस भी गाय ने उस अंडे को कुचल दिया, वो कहलाती है लख्खी यानी लक्ष्मी गाय और भगवान का आशीर्वाद मान कर उसकी पूजा की जाती है| उस गाय के मालिक सभी पुरुषों को हंडिया (स्थानीय शराब) पिलाते हैं|
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खिचड़ी प्रसाद वितरण
पूजा स्थान से लौटने के बाद रात भर जागोरोनी गान गाकर मवेशियों को जगाया जाता है| ऐसा माना जाता है कि यह गान मवेशियों को बुरी शक्तियों से बचायेगा| और इसी के के साथ प्रथम दिवस ख़त्म होता है व द्वितीय दिवस की तैयारी शुरू हो जाती है|
अगले दिन हर परिवार अपनी विवाहित बहनों को घर लेकर आता है| एक प्राचीन कहानी के अनुसार इस पर्व में अपनी बहनों को याद करना और निमंत्रण देना बहुत आवश्यक है| बहनें घर आकर गीत गातीं हैं:
“भैया मैं तो तुम्हारे घर की हीं हूँ, तुम्हारे घर और परिवार के बारे में हर एक जानकारी मुझे है|
मैं तो विवाह के तदन्तर दूसरे घर चली गयी हूँ लेकिन मैं तुम्ही में से एक हूँ|
तो कैसे मुझे याद नहीं करोगे?”
जिनकी बहनें नहीं हैं या किसी कारणवश नहीं आ पाती, उस परिवार में ख़ुशी कम हो जाती है| यह रीति भले ही पुरानी हो लेकिन इसके कारण घर की बेटियां अपने मायके आ जाती हैं और अपना हालचाल बता पाती हैं| बहुत अद्भुत है यह परंपरा जो कि औरतों को अपने मायके से बांधे रखती हैं|
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गीत गाती महिलाएँ
इसी दिन सांथाल अपने परम पूज्य भगवान मारंगबुरु की पूजा करते हैं | इसी के साथ वे ग्राम देवता बोंगा बुरु की पूजा भी करते हैं| पूजा के बाद घर-घर में जील पिट्ठा या मांसो पिट्ठा (चावल के आटे और मांस से बना केक) बनाया जाता है| लोग इसे चाव से खाते हैं और साथ ही साथ हंडिया, जोकि हर घर में चावल से बनी स्थानीय शराब है, वह पीकर आनंदित होते हैं|
तीसरा दिन होता है गोरु खूंटा| घर के मवेशी धान रोपने के बाद 2-3 महीने आराम करके सुस्त हो जाते हैं| उनको क्रियाशील करने के लिए और स्फूर्ति बढ़ाने के लिए उनके साथ क्रीड़ा की जाती है| सबसे पहले सभी पशुओं को अलग-अलग रंगों से सजाते हैं, उनके सींगों पर नए धान की फसल बांधकर और सिन्दूर का तिलक लगा कर उन्हें एक खूंटे से बाँध देते हैं| फिर शुरू होता है दंगल – गाँव वाले एक गाय की सूखी चमड़ी से गाय के साथ छेड़खानी करके उसको क्रोधित करते हैं| साथ में धमसा और मडोल (वाद्य-यंत्र) के साथ ओहिरा गान गाते हैं| यह प्रक्रिया तीन से चार बार होती है जिसके पश्चात उन्हें गौशाला में वापस आराम करने के लिए भेज दिया जाता है|
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गोरु खूंटा
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गाय के साथ क्रीड़ा करते हुए ग्रामीण
इस तीन दिन के महोत्सव का मुख्य उद्देश्य है अपने गाय-मवेशियों के प्रति आभार व्यक्त करना| आखिर वही खेत खलिहान के पालनहार हैं और उन्ही के माध्यम से सबके घर में समृद्धि आती है|
इसी के साथ शुरू होता है गाने बजाने का अद्वितीय महोत्सव| पुरुष धमसा, मडोल, बाजे और भाँति-भाँति के यंत्रों के साथ हर्षोल्लास से गाना बजाना करते हैं| महिलाएं भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं| अपने पुराने लोक गीत गाते हुए सभी महिलाएं एक साथ नृत्य करने के लिए इकठ्ठा हो जातीं हैं| रात भर पूरा गाँव नाच-गाने में लीन रहता है, मानो जैसे गाँव नहीं रंगमंच हो| सभी अपनी संस्कृति व परंपरा को आगे ले जाने की प्रक्रिया में मग्न हो जाते हैं|
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नृत्य करती महिलाऐं
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धमसा मडोल बजाते हुए पुरुष
यह गाना बजाना लगातार दो दिन चलता है और सभी लोग हंडिया पीकर व तरह तरह के पकवान खाकर हर्ष विभोर हो जाते हैं|
मनोरंजन का भरपूर मज़ा उठाने के लिए पाँचवे दिन गाँव के किशोर किशोरियों को थोड़ी आज़ादी दी जाती है| नाचते-गाते वे एक दूसरे के घरों में जाते हैं और अभिनन्दन व्यक्त करते हैं| यहाँ आती है जुग-मांझी की भूमिका, जिनका काम है लड़के लड़कियों पर निगरानी रखना व यह सुनिश्चित करना कि वे आज़ादी का फायदा न उठाएं| त्यौहार के ख़त्म होते हीं जुग-मांझी सभी किशोरियों को सही सुरक्षित घर पहुंचा देते हैं|
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नृत्य करती किशोरियाँ और महिलाएँ
बहुत हीं अनोखा त्यौहार है सोहराय| एक ऐसा त्यौहार जहाँ प्रकृति, खेती में हिस्सा लेने वाले मवेशी, देवी-देवताएँ, संस्कृति, परंपरा, बेटियों का हाल समाचार, पकवान, स्फूर्ति, नाच-गान सबका समिश्रण है| एक ऐसा पर्व जहाँ पुरुषों, महिलाओं, बच्चों व व्यस्क, सबको आज़ादी है और मनोरंजन में हिस्सा लेने का पूरा अधिकार है| खुशहाली तो है ही, साथ ही साथ एकीकरण और कृतज्ञता का प्रतिक भी है| ऊर्जा, उत्साह और प्रेरणा का अनूठा संगम है सोहराय|
You took me on a journey with this post. Felt like I’m attending the festival. Such a lively narrative and pictures 🙂
Awesome descriptive!