Co-Author Shweta Pawar
कहते हैं कि जल ही जीवन है, पर इस कथन को वही समझ सकता है जो हर दिन पानी के लिए कठोर संघर्ष करता है, खासकर पीने के पानी के लिए। कुछ अपवादों को छोड़कर दुनियाभर की सामाजिक संरचनाओं को समझा जाए तो एक बात निष्कर्ष के साथ निकलकर सामने आती है, वह है महिलाओं का पानी ढोना। पानी से जुड़ी जिम्मेदारी का भार हमेशा ही महिलाओं ने उठाया है।
दुनिया की आबादी का 16% हिस्सा रखने वाले भारत के पास वैश्विक साफ पानी का केवल 4% हिस्सा ही है। ऐसे में भारत अब सबसे ज्यादा भूजल दोहन करने वाला देश बन गया है, जो कुल जल का 25% हिस्सा है।
एक तरफ जहां हमारी नदियां प्रदूषण के कारण सुख रही हैं, दूसरी तरफ हमारे 70% जल स्रोत दूषित हैं। इतिहास के पन्नों में ऐसे कई संदर्भ मिल जाएंगे जिसमें भारत में घरेलू पानी से जुड़ी जिम्मेदारियों का भार महिलाओं ने ही उठाया है पानी भरना यह केवल महिलाओं का काम है यह धारणा आज भी समाज में रूढ़ है। बीते दशकों में जलवायु परिवर्तन पानी और पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं का एक मूलभूत कारक के तौर पर उभरा है। यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो कहीं न कहीं हर किसी के जीवन को प्रभावित कर रही है।
जागतिक स्तर पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर बढ़ते दबाव और पर्यावरण पर इसके नकारात्मक प्रभावों के कारण कुछ स्थानों पर साफ पानी की कमी हो रही है। इसकी गंभीरता को स्पष्ट करने के लिए, पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के वैज्ञानिकों ने एक नए अध्ययन में बताया कि, पानी की आपूर्ति पर दबाव के कारण, अगले 26 वर्षों में अधिकतम 30 प्रतिशत समय पानी पर खर्च करना होगा। सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव तथा बोझ महिलाओं और लड़कियों पर पड़ेगा। भविष्य में यह स्थिति में गंभीरता बढ़ेगी।
भविष्य में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दक्षिण अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया पर कई ज्यादा पड़ेगा। एक अनुमान यह भी है कि इन क्षेत्रों में पानी इकट्ठा करने में लगने वाला समय 2050 तक दोगुना हो सकता है। वहीं पूर्वी और मध्य अफ्रीका को देखे तो महिलाओं की पानी से जुड़ी समस्याएं बढ़ सकती हैं और 20 से 40 फीसदी तक पानी इकट्ठा करने के समय में वृद्धि होगी।
अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता मैक्सिमिलियन कोट्ज के मुताबिक वैश्विक स्तर पर देखे तो महिलाएं हर दिन करीब 20 करोड़ घंटे पानी भरने पर लगती हैं, जिसका सीधा असर उनके शिक्षा, स्वास्थ्य, काम और खाली समय पर होता है। इतना ही नहीं, इससे उन पर शारीरिक और मानसिक दबाव भी बढ़ रहा है। भारत को आर्थिक तौर पर भी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। अनुमान है कि विपदा के चलते 140 करोड़ डॉलर तक आर्थिक नुकसान को झेलना पड़ेगा।
देश के अलग-अलग क्षेत्र में पानी से जुड़ा संघर्ष

आज भी भारत के विविध राज्य जैसे, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश में महिलाएं पानी की कमी से उभरती समस्याओं से जूझ रही हैं।
महाराष्ट्र का विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र पश्चिम घाट के वर्षा प्रभावित क्षेत्र में आता है, इसलिए दशकों से यह क्षेत्र सूखे की मार और उससे उभरी नकारात्मक परिस्थितियों से जूझता नजर आना अब आम हो गया है। पूर्व महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं के किस्से अख़बार और न्यूज़ चैनल पर देखने- सुनने की अब आदत सी हो चुकी है। पर किसान के आत्महत्या के उपरांत अचानक से जो पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों का भार-दबाव उस घर की महिला पर पड़ता है, क्या इस असर का अनुमान करना आसान है ?
महाराष्ट्र राज्य में कई ऐसे क्षेत्र हैं जो सूखाग्रस्त हैं तथा पानी की कमी और समस्याओं के लिए खास तौर जाने जाते हैं। चूँकि, इन क्षेत्रों में बहुत दूर तक पैदल चलकर पानी भरना पड़ता है जो कि विशेषतः महिलाएँ एवं लड़कियाँ करती है। ऐसे में सुरक्षा, शिक्षा यह सारी समस्याएं तो है ही, पर साथ ही यह महिलाएं एवं लड़कियां लंबे अर्से से अपने सिर पर पानी के घडे का भारी वजन उठाती हैं, जिस कारण उन्हें बहुत कम उम्र में बालों की समस्या का सामना करना पड़ता है।
भारी वजन उठाने के कारण, बाल जड़ों से टूट जाते हैं और फिर से नहीं उगते हैं, जिसके कारण उन्हें गंजापन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण बाल, जो महिलाओं के जीवन में सुंदरता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माने जाते हैं, लेकिन पानी की जरुरत उनके सौंदर्य को जीवन भर अधूरा रखती है। इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। कई गाँवों में पानी की कमी होने से माहवारी एवं प्रसूति के परिस्थिति में जहाँ पानी की विशेष मात्रा में आवश्यकता होती है और इन क्षेत्र में पानी की कमी के चलते विकल्पों के अभाव से महिलाएं एवं लड़कियां जिस यंत्रणा का उपयोग करती है वह उनकी शारीरिक जोखिम बढ़ाता है।
उदहारण – माहवारी/प्रसूति जहाँ शरीर के सफाई हेतू पानी की खास आवश्यकता होती है इसलिए विकल्प के तौर वे कपड़े पर मिट्टी (मिट्टी द्रव सोंकती है) का इस्तमाल करती हैं जिससे उन्हें गंभीर शारिरीक जोखिम एवं त्वचा संबंधित अन्य बिमारियों का सामना करना पडता है।
केस १ – छकुली
छकुली (उम्र 13 वर्ष) महाराष्ट्र राज्य के ठाणे जिले के पास कई सारे पहाड़ी और जंगल से घिरे इलाके में रहती है। उसकी तीन बहनें और एक छोटा भाई है। जब वह छोटी थी, तभी उसकी मां का देहांत हो गया था। उसकी मृत्यु का कारण लंबी बीमारी से ग्रसित होना था। उसके पिता की भी हाल ही में जंगली जानवर के हमले में मृत्यु हो गई। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी कोई सुविधा अभी तक शुरू नहीं हुई है। सभी घर मिट्टी के बने हैं, जो कभी भी अगर बारिश हो तो गिर सकते हैं।
छकुली, समुदाय की महिलाएं और लड़कियां न केवल प्रतिदिन 8-10 किलोमीटर पैदल चलकर कावड़ी (कंधे पर एक मजबूत डंडा जिसके दोनों कोनों पर पानी के घड़े बंधे होते हैं) लेकर पानी भरती हैं, बल्कि पानी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पहाड़ से नीचे उतरती हैं और फिर चढ़ती हैं। जानवरों से उनका डरना स्वाभाविक है, क्योंकि उन पर ज्यादातर जंगली जानवर हमला करते हैं।
राजस्थान के करौली-धौलपुर क्षेत्र की महिलाओं की स्थिति में कोई भिन्नता नजर नहीं आती। इन क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थितियाँ इन्हे पानी से जूझ रहे बाकी क्षेत्रों से अलग जरूर बनाती हैं, पर महिलाओं की स्थिति यहाँ भी कुछ खास अलग नहीं है। शायद समस्याओं के स्वरुप में भिन्नता होगी परन्तु संघर्षों में कमी नहीं दिखेगी।
यहाँ महिलाओं को कोसों दूर चलकर पीने का पानी लाना पड़ता है। जमीन पथरीली होने की वजह से पानी ढोने का काम और भी मुश्किल हो जाता है। ‘डांग’ यह क्षेत्र शासन की योजनाओं और नीतियों से वंचित है। महिलाओं को पानी की ज़रूरत को पूरा करने के साथ-साथ मजदूरी भी करनी पड़ती है, ऐसे में उनके लिए उनके स्वास्थ्य पर ध्यान देना लगभग मुश्किल होता है। लोगों को पानी की समस्या कब और कैसे अन्य गंभीर समस्याओं की ओर ले जाती है इसका उन्हें अंदाजा भी नहीं होता चूँकि वे जीवन चलाने के चक्र में इतने व्यस्त जो रहते है और यदि उन्हें यह हकीकत की समझ भी होती है तो क्या उनके पास इस चक्र में चलते रहने के अलावा कोई और मार्ग है ?
आज का हरियाणा का ‘नूह’ जिला कभी मेवात के नाम से जाना जाता था और आज भी यह क्षेत्र देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में से एक है। यहाँ की ज्यादातर महिलाएँ बकरी चराना या फिर मजदूर के तौर पर काम करते हुए नजर आती हैं। यहाँ रोजगार के स्थायी साधन तो नहीं हैं, उसमें भी महिलाओं का ज्यादातर समय पानी की पूर्ति करने में जाता है, ऐसे में महिलाएँ अपने परिवार और बच्चों पर ध्यान नहीं दे पातीं। आय के स्रोत सीमित होने के कारण परिवार में हमेशा महिलाओं को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है क्योंकि वे सक्रिय रूप से आय के माध्यमों में सहभाग नहीं ले पातीं।
बुंदेलखंड तो हमेशा ही पानी की कमी के लिए जाना गया है। कहते हैं कि हर तीन साल में बुंदेलखंड सूखे को झेलता है। औसतन बारिश कम होने के साथ-साथ बुंदेलखंड अपनी गरीबी, बेरोजगारी और स्थलांतर के लिए जाना जाता है। स्थलांतर यह शब्द जीतना आसान दिखाई देता है, काश! इसका असर भी इतने सरल होता। कई लोगों और उनकी जिंदगीयों को बदलकर रखता है यह, जैसे कोई चक्र, ऐसा जो कभी खत्म ना हो!
केस २ – इंद्रा
इंद्रा, उम्र ४० साल, अपने पति और बच्चों समेत करौली के बुगदार गांव में रहती है। गांव में पानी की कमी के चलते ज्यादातर लोग स्थलांतर करके कही खान में खनन जैसे रोजगार करते हैं। इंद्रा का पति भी पत्थरों की खान में काम करता था, पर अब वह “सिलिकोसिस” जैसे गंभीर समस्या से जूझ रहे है। ऐसे में अचानक परिवार और पति की जिम्मेदारी इंद्रा पर आ गयी है। जैसे-तैसे वह मजदूरी करके अपने परिवार को संभाल रही है। सारा भार एक अकेली इंद्रा पर होने से वह ना तो अपनी सेहत का ख्याल रख पाती है न तो बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ कर सक रही है। पती की दवा करने में ही उसे काफी कष्ट उठाने पड रहे है।
यदि घर के बाहर निकलना मना है, तो फिर आपको पानी भरने जाने इजाजत है ? यह सवाल पर पुष्पा (ललितपुर, मध्य प्रदेश) कहती है,
“घरसे बाहर निकलना तो सभी औरतों को मना था, पर जे बताओ मर्द भरेंगे पानी ? मर्दों को थोड़ी ना पानी भरना पड़ता है, पानी तो हमें भरना पड़ता है। गाँव में कुंवे और तालाब यह दो विकल्प है। हम सब लोग यही जो कुंवे बने है उससे से पानी लेते है। केवल नीची जाती के लोग पानी तालाब से भरते है जो बहुत दूर है।”
ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ कई शहरी परिवेश भी पानी की कमी से जूझ रहे हैं, जैसे कि लखनऊ, मुंबई, बंगलुरु और जयपुर ग्रामीण, जहाँ पर पानी तो है पर पीने के लायक नहीं, फ्लोराइड से दूषित है। जिससे महिलाओं को कई बीमारियों से जूझना पड़ रहा है, जैसे कि – लिवर पर सूजन, पथरी, त्वचा, महावारी से जुड़ी समस्याओं को सहना पड़ जाता है।
केस ३ – लक्ष्मी
लक्ष्मी, उम्र 20 साल, इंदिरा नगर, मुंबई के स्लम बस्ती से है। बस्ती में सभी लोग गुजारे के लिए छोटे-मोटे रोजगार करते है। लक्ष्मी अपनी बस्ती से जरा से अंतर पर जो टावर बने है उसमे सफाई (घर काम) करने जाती है | बस्ती में हर रोज पानी का टैंकर आता है जो कुछ 1 घंटा ऐसे कुछ सिमित समय तक होता है जिस वजह से चींटी की तरह रोज भीड़ में घुस कर झगड़ कर जो पानी भरे उसे पानी मिलेगा इस तरह की परिस्थिति है। लक्ष्मी को टैंकर के अनिश्चित समय पर आने और समय से पहले ही निकल जाने से अक्सर वह पानी नहीं ले पाती है। बस्ती का हाल स्वच्छता के मामले में बेहद बुरा है उसमे भी पिने के पानी की गुणवत्ता बेहतर न होने से सांसर्गिक बिमारियों (कॉलरा, निमोनिया, डायरिया, डेंगू) का होना सामान्य है।
वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन से हुए नकारात्मक परिणामों से कुछ नई व्यवस्थाओं ने जन्म लिया है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के ठाणे जिले के एक गांव डेंगनमल में महिलाएं सिर्फ पानी लाने का काम करती हैं, उन्हें ‘वॉटर वाइफ’ कहा जाता है। विवाह की यह अनोखी व्यवस्था निसंदेह प्रतिगामी सोच का एक उदाहरण है, जहां महिलाओं को पानी के पाइप या ट्रैक्टरों के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
जल संवर्धन में कि गयी सामुदायिक पहल
मेवात पेयजल टांका
आधुनिक राज्यों हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से मिलाकर बना मेवात एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक क्षेत्र है। बुनियादी आंकड़े बताते हैं कि 2018 में नीति आयोग ने नूह को भारत का सबसे पिछड़ा जिला घोषित किया था। आज भी नूह हरियाणा के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है और आज भी बेरोजगारी, पिछड़ेपन और अवसरों की कमी से जूझ रहा है। यहां साक्षरता तो कम है ही, पर सदियों से चलते आ रहे जल संकट से लोग परेशान भी हैं। जल संकट का सबसे बड़ा प्रभाव जो मेवात की महिलाओं और बच्चियों पर दिखता है। आज भी महिलाओं को पानी की पूर्ति के लिए मीलों दूर चलना पड़ता है, ऐसे में न तो वो परिवार पर ध्यान दे पाती हैं और न ही अपने स्वास्थ्य पर। महिलाओं के साथ घर की बच्चियों को भी पानी ढोने के लिए जाना पड़ता है, इसका सीधा असर उनकी शिक्षा पर हो रहा है।
ऐसे में 2021 की शुरुआत में तरुण भारत संघ ने मेवात में पानी की समस्या का समाधान खोजने का प्रयास किया। तरुण भारत संघ हमेशा ही अपने सामुदायिक विकेंद्रित जल प्रबंधन के लिए जाना गया है। समुदायों के साथ मिलकर समुदायों को बदलना तरुण भारत संघ की कार्यप्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग है। अंत में महिलाओं, समुदायों और तरुण भारत संघ के प्रयासों से पेयजल टांका के रूप में इस जल संकट का समाधान निकाला गया। महिलाओं का आगे आकर सक्रिय रूप से सहभाग लेना कहीं न कहीं गतिविधियों को नई ऊर्जा दे रहा था।
जिन महिलाओं ने शुरुआती दौर में टांके बनवाए, उन्होंने समय के साथ समाज का नेतृत्व किया और अब तक तरुण भारत संघ के साथ मिलकर १०० से ज्यादा टांकों का निर्माण कराया। टांकों से आए प्रभाव की अगर बात करें तो लगभग ६०० परिवारों को पानी की समस्या से अब निजात मिली है। अब महिलाओं के स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमता में भी बदलाव देखने को मिलता है। समय की बचत के साथ अब महिलाएं आजीविका के नए आयाम खोज रही हैं और बच्चियों का स्कूलों में जाना बढ़ रहा है।

अर्जीना
अर्जीना मेवात के पाठकोरी गांव में रहती है और अपने पति के साथ मजदूरी करती है ताकि अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य दे सके। पहले अर्जीना का समय ज्यादातर पानी की तलाश में जाता था, पर अब स्थिति बदल गई है। अर्जीना ने २०२२ में तरुण भारत संघ के साथ मिलकर पेयजल टांका का निर्माण करवाया। अर्जीना कहती है कि सबसे बड़ा बदलाव जो हुआ, वो है समय की बचत। अब जो समय बच रहा है, उसमें वह सिलाई करती है और अपने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दे पाती है। टांका बनवाने के बाद अब अर्जीना घर पर ही गृहवाटिका लगाकर सब्जिया ऊगा रही है जिससे सब्जियों पे होनेवाले खर्चो में तो कटौती हुयी है साथ में अब परिवार को ताजी सब्जिया मिल रही है जिससे स्वास्थ्य में भी सुधार दिख रहा है।
गांव की महिलाओ के साथ मिलकर अर्जीना स्वयं सहायता समूह भी चलाती है जिससे गांव की महिलाओ को भी फायदा हो रहा है। हर महीने समूह की महिलाये अपनी बचत का एक हिस्सा समूह में जमा करवाती है और भविष्य में जब जरुरत पड़े तब निकाल सकती है। अर्जीना अब आगे आकर समाज का भी नेतृत्व करती है ताकि नए बदलाव की कहानियां साझा की जा सकें।
बुंदेलखंड की जल सहेलियां
टकराना हमको आता है इन सूखे खेत पहाड़ों से, इन पथरीली चट्टानों से, इस जीवन की चट्टानों से – ये शब्द हैं बुंदेलखंड की जल सहेलियों के, जिन्होंने बुंदेलखंड जैसे विपदाग्रस्त पिछड़े क्षेत्र में पानी प्रबंधन के क्षेत्र में क्रांति ला दी और एक मिसाल भी कायम की कि कैसे महिलाओं का सामुदायिक सहभाग पीढ़ियों और समाज का भविष्य तय कर सकता है। आज भी जब बुंदेलखंड का नाम आता है, तो एक विपदाग्रस्त पिछड़े क्षेत्र की तस्वीर सामने आती है। एक ऐसा क्षेत्र जो नदियों की धाराओं के बावजूद सूखा है। जहां अपार धनसंपदा के भंडार होने के बाद भी गरीबी के दृश्य आम हैं। सामंतशाही के अवशेष अभी भी अपनी ताकत को खड़ा करने के लिए जद्दोजहद करते दिखाई देते हैं। औसतन बारिश ५०० मिमी से ज्यादा न रहने वाला बुंदेलखंड हर तीन सालों में सूखे की चपेट में आता है। पानी का संकट इस इलाके की सबसे बड़ी त्रासदी है और पानी ही किस्से और कहानियों का केंद्र है।
बुंदेलखंड की एक प्रचलित कहावत है कि “गगरी न फूटे खासम (पति) मर जाए” और ये शब्द इस त्रासदी को सामने लाने के लिए सबसे सटीक उदाहरण हैं। बुंदेलखंड में कई सौ मीटर दूर से गगरी सर पर रखे दिन भर आती-जाती महिलाओं की कतारें दिखना आम है। पर यहां की बुंदेली महिलाओं ने वो कर दिखाया जो शायद ही कहीं दिखाई पड़ता है। उन्होंने न सिर्फ समस्या को समझा बल्कि उसका एक ठोस समाधान भी निकाला। वो समाधान था सामुदायिक विकेंद्रित जल प्रबंधन, जिसमें महिलाओं के सक्रिय सहभाग का योगदान था।
इन सारी विपदाओं के बावजूद २०११ में झांसी, ललितपुर, छतरपुर की कुछ महिलाओं ने आगे आकर “पानी पर महिलाओं की पहली हकदारी” अभियान की शुरुआत की, जिसमें परमार्थ समाजसेवी संस्थान का एक सक्रिय सहभाग रहा। इस अभियान से सामंतशाही की बेड़ियों से बंदी महिलाओं में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ और उसका रूप पानी पंचायत (एक समूह) ने ले लिया। जो महिलाएं कभी पितृसत्तात्मक संस्कृति के जाल में फंसी हुई थीं, वे अब जल सहेलियों के नाम से जाने जाने लगीं। बुंदेलखंड की अधिकांश आबादी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था खेती और उससे जुड़े रोजगार पर निर्भर है। ऐसे में पानी का होना उतना ही जरूरी है जितना जिंदा रहने के लिए हवा का।
समय के साथ हर गांव में एक पानी पंचायत का गठन किया गया, जिसमें १५ से २५ महिलाओं का सदस्यत्व है। हर गांव में पानी प्रबंधन की मीटिंग की गई, समूह के माध्यम से लोगों को समस्या के समाधान से अवगत कराया गया। हर गांव में पानी का काम होने लगा और सूखे की चपेट से उजड़े गांव अब बसने लगे। शुरुआती दौर में पानी की समस्याओं पर काम करने के लिए बना समूह अब गांव की बाकी समस्याओं पर भी ध्यान देता है।अब पानी पंचायत की जल सहेलियां सिर्फ पानी नहीं, तो गांव के सर्वांगीण विकास की बात करती हैं।

भविष्य की तरफ
मेवात की महिलाओं का टांका प्रबंधन और जल सहेलियों का सामुदायिक विकेंद्रित जल प्रबंधन, इन दोनों उदाहरणों से ये स्पष्ट होता है कि जहां महिलाओं ने आगे आकर सहभाग लिया, वहां एक क्रांति उभर आई है। ये क्रांति न सिर्फ पानी के प्रबंधन को दर्शाती है, बल्कि सामंतशाही विचारों को चुनौती देती और जड़ से मिटाती एक ऊर्जा की लहर को भी दर्शाती है। पानी प्रबंधन पर अगर सटीक काम करना है, तो आने वाले दौर में हमें महिलाओं को नीतियों और वैचारिक पृष्ठभूमि पर जोड़ना होगा, तभी एक क्रांति होगी नए भविष्य के निर्माण की।
यदि अध्ययन के तथ्यों पर नजर डालें तो कुछ नतीजे बताते हैं कि एशिया और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में अत्यधिक गर्मी के कारण स्थिति खराब हो सकती है। यहां पानी भरने का समय दोगुना हो सकता है। वर्तमान में लगभग 200 मिलियन लोगों को स्वच्छ एवं सुरक्षित जल उपलब्ध नहीं है। ऐसे में इसकी जिम्मेदारी महिलाओं और लड़कियों की है। दुनिया भर में जल संकट कितना गंभीर है इसका अंदाजा आप संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित आंकड़ों को देखकर भी लगा सकते हैं।
इसके मुताबिक, दुनिया भर में 40 लाख से ज्यादा लोगों को साल में कम से कम एक महीने पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। अनुमान है कि 2025 तक दुनिया की आधी आबादी पानी की कमी वाले क्षेत्रों में रहेगी। इसके अलावा, यूनिसेफ का अनुमान है कि 2030 तक, लगभग 70 मिलियन लोगों को पानी की गंभीर कमी के कारण अपने घरों से भागने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। आशंका है कि अगले 16 वर्षों के भीतर, दुनिया में हर चार में से एक बच्चा इन जल संकटग्रस्त क्षेत्रों में रहने को मजबूर हो जाएगा।
अपने अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि विभिन्न उत्सर्जन के कारण जलवायु परिवर्तन पानी इकट्ठा करने में लगने वाले समय को कैसे प्रभावित कर सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा के पैटर्न में बदलाव कहीं न कहीं पानी की उपलब्धता को प्रभावित कर रहा है।
सर्वेक्षण के अनुसार, अगर हम 1990 से 2019 तक के आंकड़ों को देखें, तो दुनिया भर में पानी की आपूर्ति से वंचित घरों को हर दिन पानी लाने में 22.84 मिनट लगते हैं।आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि तापमान में प्रत्येक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पर पानी इकट्ठा करने में लगने वाला समय चार मिनट तक बढ़ सकता है।

References
https://www.nature.com/articles/s41558-024-02037-8
https://www.unicef.org/wash/water-scarcity#:~:text=Key%20facts,by%20as%20early%20as%202025
0 Comments