विद्या बालन जी का यह विज्ञापन हमें सिखाता है कि अगर हम तय कर लें तो खुले में शौच करना रोका जा सकता है। साथ ही, यह बात भी सही है कि किसी भी जगह की सामाजिक पृष्ठभूमि का प्रभाव वहां के तौर-तरीकों पर पड़ता है।
बात है करौली जिले के श्यामपुर-मंडरायाल क्षेत्र की जहाँ हम तरुण भारत संघ के अंतर्गत वर्षा-जल सरंक्षण का काम कर रहे हैं। यहां सड़कें तो गांव-गांव तक पहुँच गई हैं लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट की समस्या अब भी है। रही बात स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं की तो कुछ गिने-चुने कस्बे ही हैं जहाँ यह उपलब्ध हैं। लोग अब भी शिक्षा को प्राथमिकता नहीं देते हैं, और देना चाहते भी हैं तो स्कूल दूर होने की वजह से लड़कियों को नहीं भेजते हैं। इन परिस्थितियों में कम उम्र में शादी होना यहाँ आम बात है। पानी की समस्या की चलते यहां साल में सिर्फ दो फसल होती है – बाजरा और गेहूं। अगर बारिश अच्छी हो गयी तो सरसों भी उगाते हैं।
अब देखते हैं कैसे इस विज्ञापन में दिखाई गई स्थितियां यहां की परस्थितियों से मेल खाती हैं। राजस्थान में घूंघट करने की प्रथा आम है। बच्चे, बूढ़े, जवान, आदमी, औरत – इस गांव में लगभग सभी लोग शौच करने और यहां तक कि नहाने भी खुले में ही जाते हैं। और दूसरी तरफ महिलाओं के सर से घूंघट तक उठना नहीं चाहिए। उसे सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है। लेकिन क्या खुले में शौच करते वक़्त यह सब मायने नहीं रखता?
ये प्रश्न मुझे विचलित कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि लोग स्वच्छता के महत्व को नहीं समझते पर उनकी मूलभूत समस्याओं जैसे रोज़गार, स्वास्थ्य, और खाने-पीने के साधन जुटाने के सामने शौचालय का न होना उन्हें इतनी बड़ी समस्या नहीं लगती है। सरकारी स्कूलों में भी शौचालयों की स्थिति कुछ खास ठीक नहीं है। या तो शौचालय है ही नहीं और अगर हैं तो उसका रखरखाव ठीक नहीं है। ज़्यादातर समय उन पर ताला लगा रहता है, अगर खुलता भी है तो बस शिक्षकों के लिए। इसलिए स्कूल जाने वाले बच्चों में भी शौचालय उपयोग करने के प्रति जागरूकता नहीं आयी है।
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2014 में सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत वर्ष 2019 तक देश को खुले में शौच से मुक्त करने का ऐलान किया और शौचालय बनाने के लिए हर घर में 12000 रूपये की राशि देने का काम शुरू हुआ। लेकिन ज़मीनी स्तर पर इस राशि के लिए भ्रष्टाचार और बढ़ गया और जो पैसा लाभार्थियों को मिलना चाहिए था, कई लोग उससे वंचित रह गए। जिन लोगों ने शौचालय बनवाया, वो भी उसे उपयोग में नही ला पाए और उन्होंने उस जगह को भंडार के रूप में इस्तेमाल किया।
यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वच्छ भारत मिशन कुछ ग्रामीण इलाकों में लोगों की मानसिकता और धारणाएं बदलने में विफल रहा। इसे बढ़ावा देने के लिए सरकार ने विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिए लेकिन पिछड़े इलाकों में संचार साधनों के अभाव के कारण वो संदेश लोगों तक पहुंच ही नहीं पाए। अगर पहुंचे भी तो लोगों की सोच बदलने में असफल रहे।
करौली, राजस्थान के जिन गांव में मैं काम करता हूँ, वहां ज़रूरत है लोगों से सीधा संवाद करने की और उन्हें अपने हक़ के प्रति जागरूक करने की, चाहे वो स्वच्छता से जुड़े हों या अन्य चीज़ों से। तभी जाकर “जहाँ सोच, वहां शौचालय” जैसे नारे सफल हो पाएंगे। जिस इलाके में लोग पानी और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं वहां शौच के लिए बाहर जाना उन्हें सामान्य लगता है। सरकार को अपना माध्यम बदलने की और पानी, शिक्षा व रोज़गार के साधनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। हर साल यहां के युवा काम की तलाश में दूसरे शहरों में पलायन करते हैं। जब उनकी आर्थिक उन्नति होगी, तो कुछ समय में अपने आप उनकी सोच में बदलाव आएगा।
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