मेरा नाम मनीष है और मैं दक्षिणी राजस्थान के डुंगेरपुर जिले के आसपुर कस्बे मे रहता हूँ। डुंगेरपुर जिला आदिवासी क्षेत्र है, यह राजस्थान का बॉर्डर वाला जिला है। इससे आगे गुजरात लगता है और साथ ही मध्यप्रदेश भी। आसपुर में एक बाँध बना हुआ है जो की डुंगेरपुर जिले का सबसे बड़ा बाँध है। पूरे एरिया मे पेय जल का स्रोत ये बाँध है। यहाँ के लोग मुख्य रूप से खेती पर निर्भर है; साथ ही कुछ लोग रोजगार के लिए पलायन भी करते हैं।
कृषि मानसून पर आधारित होने से हाल फिलहाल इसकी अनियमितता के चलते लोग कृषि को कम कर के पलायन पर ज़ोर दे रहे हैं। लोग खेती के समय घर आते हैं और बाकी समय वापस कमाने शहर की ओर रुख करते है। कई लोग आसपुर से रोजगार के लिए आस-पास के क्षेत्र मे भी जाते हैं, जो सुबह जाकर शाम को घर लौट आते हैं।
मेरी प्राथमिक शिक्षा आसपुर के ही सरकारी स्कूल मे पूरी हुई। उस समय आगे की पढ़ाई के बारे मे कुछ पता नही था। गांव में अधिकतर यह होता है की जिस सब्जेक्ट में आस-पास के दोस्त पढ़ाई करते हैं वही हम भी कर लेते हैं। १२वी पास होने के बाद मुझे मेरे चचेरे भाई के द्वारा नर्सिंग करने की सलाह दी गयी, क्योंकि नर्सिंग मे सेवा के साथ-साथ हर दिन कुछ नया सीखने का मौका मिलता है। मेरे स्वभाव और ऊर्जा को देखते हुए परिवारजनों को ये ठीक लगा। मेरा नर्सिंग में चयन काउन्सलिंग के द्वारा हो गया।
कॉलेज मे मेरा एक सहपाठी और भी था जिसने मेरे साथ १२वी पास की थी। हम दोनों लगातार साथ में रहते थे; वो हर काम मे मेरी मदद करता था। मैं उस समय खूब सोचता – कभी टीचर बनने के लिए तो कभी डॉक्टर।
घर वाले मैं जो भी करूँ उसके लिए तैयार थे। उस समय नर्सिंग की एक साल की फीस ८० हजार रूपये थी ओर कुल ४ साल का कोर्स था। थोड़ा मुश्किल भी था घरवालों के लिए इतनी रकम जुटा पाना – लेकिन पढ़ाई के नाम पर उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। हमारे समाज में पढ़ाई को आज भी अपने जीवन को खुशहाल बनाने का एक सबसे निश्चित जरिया माना जाता है, और माता-पिता इसके लिए भारी राशि देने के लिए तैयार रहते हैं।
कॉलेज का पहला दिन मुझे याद है। हमको नर्सिंग के बारे मे बताया गया। उस समय मुश्किल भी आयी क्योंकि नर्सिंग का पूरा कोर्स इंग्लिश में था। लेकिन लगातार टीचर के सपोर्ट से धीरे-धीरे भाषा समझ मे आने लगी। पहले कुछ महीने मुश्किल में गुज़रे क्योंकि यह पहला मौका था जिसमें मैं मेरे घर से बाहर अकेला रहा। हर रविवार घर जाने का इंतज़ार रहता था। खूब मेहनत करी और परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। अगले साल हमारी हॉस्पिटल मे ड्यूटी लगी। हॉस्पिटल के और काम के बारे में समझाया गया।
इसी दौरान मेरी मुलाक़ात एक सीनियर मेल (पुरुष) नर्स से हुई जिनके साथ मैंने लगातार ड्यूटी की, और उन्होंने मुझे काम सिखाया। लगातार काम सीखने की इच्छा होने के कारण मुझे काफी कुछ करने का मौका मिला। इसी तरह ४ साल का कोर्स पूरा हुआ। नर्सिंग को हमारे देश में महिलाओं के काम के रूप में देखा जाता है। पर मेरा अनुभव ऐसा नहीं रहा। जितने महिला नर्स थे उतने ही पुरुष नर्स होने की वजह से दिक्कत नहीं आयी। सम्मान भी मिला। वास्तविक रूप में काम करने की जो सहजता पुरुष को मिलती है, वो ज़रूर पुरुष नर्स के लिए एक पायदान पर चीज़े आसान कर देता है।
इसके बाद मैंने एक मेडिकल कॉलेज मे ६ महीने काम किया। फिर मुझे मौका मिला बेसिक हैल्थ केयर सर्विसेस (बी.एच.एस.) संस्थान में काम करने का। बी.एच.एस. प्राइमरी हैल्थ को मजबूती से प्रदान करने का काम करती है। संस्था दक्षिणी राजस्थान के उन दूर के ग्रामीण इलाको में सक्रीय है जहां सरकारी सुविधा भी दुर्लभ है।
संस्था के शुरुआती दिन अजीब थे। मैंने इससे पहले कभी इतने ग़रीब मरीजों से बातचीत नहीं की थी।
“ये लोग ही ऐसे हैं, इनको कितनी भी सुविधा दे दो, ये नही बदलेंगे। इनको कुछ समझ मे नहीं आता है – हम हमारा समय बर्बाद कर रहे हैं।”
संस्था से जुड़ने के शुरुआती दिनों की मेरी समुदाय को लेकर सोच
इस बीच कुछ दिन तक मुझे कार्य क्षेत्र मे जाने का मौका लगातार मिला। वहां पर किसी प्रकार की सुविधा नही थी। हम लोगों से खूब जानकारी लेते, और उस पर निर्भर हो कर काम करते। एक नर्स की जगह निजी तौर पर जुड़ाव होने लगा था। उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी का भाग बनने लगे। लेकिन ऐसा लगता था के “लोग ऐसे ही रहेंगे, कितना भी कर लो ये हमारी बात नही मानेंगे।”
पर चक्का धीरे-धीरे घूमने लगा। हमने लोगों के व्यवहार में बदलाव देखा। लगातार उनके साथ बने रहने से वो हमारे क्लीनिक आने लगे। बी.एच.एस ने अपना काम गावों मे शुरू भी इसी को देखते हुए किया की गांव में बसे हुए लोगों को भी क्वालिटी के साथ अच्छी स्वास्थ्य सुविधा मिले। उनको भी सम्मान के साथ जीने का मौका मिले। कोई भी परिवार स्वास्थ्य सेवा से वंचित न रहे। यहाँ कई बार बीमारी जानकारी के अभाव से या सही इलाज नही मिलने से होती है।
काम के दौरान ऐसे मुश्किल केस भी आए जिनको हमने प्राइमरी सेंटर पर संभाला। एक ८ दिन का बच्चा बुख़ार के साथ क्लीनिक पर आया। उसकी प्रारंभिक जांच हुई। सब जांच करने के बाद पता चला कि उसे निमोनिया है। साथ ही बच्चे का ब्लड शुगर और ऑक्सीजन लेवल भी कम था। हमने तुरंत दवाइयां शुरू की। बच्चे को ४ दिन तक क्लीनिक पर एडमिट किया गया; इसके बाद लगातार घर पर भी फॉलो-अप किया। गावों मे इस तरह की सुविधा मिलना मुश्किल होता है। कई बार इस हालत मे सुविधा नही मिलने से मृत्यु भी हो जाती है। प्राथमिक स्वास्थ्य में इस तरह की सुविधा मिलना मायने रखता है।
मेरी आगे इच्छा है कि मैं शोध के माध्यम से देखूँ कि प्राथमिक सेवा की दृष्टि से हम और क्या नया काम कर सकते हैं। इसी बीच संस्था के माध्यम से इंडिया फेलो सोशल लीडरशिप प्रोग्राम से जुड़ा। अपने जैसे और साथी व प्रशिक्षकों के माध्यम से नेतृत्व के विभिन्न पहलुओं पर सीखने-सीखाने का एक सिलसिला अब शुरू हो चुका है।
*** Animation through Generative AI platform Stable-Diffusion by team member Anupama Pain
यह AI चित्र धीरे धीरे बहुत सच्चे लगने लगे हैं। आपके और आपके काम के बारेमे जानके अच्छा लगा।