आँखें

by | Feb 19, 2025

यह कविता समाज के विभिन्न दृष्टिकोणों को आँखों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। कभी ये आँखें भय उत्पन्न करती हैं, तो कभी अपनापन का एहसास कराती हैं। प्रश्नों और उत्तरों के इस सफर में समझ और आत्मचेतना की एक नई लहर जन्म लेती है, जो स्वयं को और गहराई से जानने में सहायक होती है।

अंज़ाम-ए-सफ़र

बाहर जाना मुझको लगता प्यारा।

निकलती हूँ कभी काम से, तो कभी बस जब लगे मन को न्याराII

समय नहीं है इत्मीनान का, फिर भी चलती है राह।

रोज़ टकराती आँखों से, मन में उठती है चाह॥

कुछ आँखें हैं डराती तो, कुछ लगतीं हैं प्यारी।

लगता सब कुछ ठीक-ठाक, लगती दुनिया भी न्यारी॥

सुबह निकल घर से, शाम को लौट मैं आऊँ।

बीच-बीच में मिलते मुझसे तो मैं भी नैन लड़ाऊँ II

कुछ आँखें मोती जैसी, कुछ छोटी और  प्यारी।

कुछ रंग-बिरंगी गिलहरी सी, तो कुछ जीती तो कुछ हारी॥

आँखों का पहरा

सोच रही फिर इस दिल में, शायद कोई मुझमें कमी।

भला क्यों ये आँखें देखे, मुझको शबनमीII

गढ़ा है मुझको फुरसत, से उसने गढ़ा है मुझको ऐसे।

किसी कवि के मन में बसी कोई प्रेम कहानी जैसेII

सोच समझकर, फिर मन को किया मैंने शांत।

शहर जो अनजाना आए, तो क्यों होऊँ आक्रांतII

कभी लगे इससे डर तो, कभी लगे ये प्यारा।

सवालों का उजाला

दिल की मानूं, औरों की सुनूं, ये कैसे हो पाए?

चलता अपनी धुन में हरदम, समझ इसे न कुछ आए॥

सब कुछ जान के भी रहती, खुद से मैं अनजान।

क्यों सारी नज़रें ताकें मुझको, और करें हैरान॥

शायद रचा उस ने मुझको, कुछ फुर्सत के साथ।

कभी लगे अनजानी सूरत, कभी लगे सौगात॥

आँखों का ये खेल  है  निराला, कभी  हँसाए और कभी डराए।

कभी लगे ये अजनबी, कभी मन को भरमाए॥

सवालों के दीप जलाकर, उत्तर खोज न पाऊँ।

इनमें ही मैं खुद को ढूँढूँ, और खुद को रोज़ सजाऊँ॥

Illustration depicting author getting ready while many eyes watch her
Home, Maybe?

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