पाल के किनारे रखा इतिहास

by | Sep 28, 2024

“खम्मा घणी-सा हुकुम खम्मा घणी सा” छत्तर सिंह जी ने कहा। पारंपरिक वर्षा जल संवर्धन और प्रबंधन का सखोल ज्ञान रखने वाले छत्तर सिंह जी से यह मेरी पहली मुलाकात थी, पर उनके खुशनुमा मिज़ाज और बात रखने की कला ने विचारों की दूरियाँ कम कर दी थीं। छत्तर सिंह जी जैसलमेर के रामगढ़ गाँव के रहवासी हैं और युवा अवस्था से ही जल संवर्धन और प्रबंधन के क्षेत्र में समुदायों का प्रतिनिधित्व करते आए हैं।

अपने बारे में बताते हुए छत्तर सिंह जी कहते हैं कि पानी प्रबंधन का ज्ञान उन्हें माता-पिता और परिवार से विरासत में मिला है।

अपने पिताजी को याद करते हुए छत्तर सिंह जी ने कहा कि पिताजी कहा करते थे कि हर गाँव में एक तालाब हो, जिसकी देखभाल समुदाय करे और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुनिश्चित करे। बात-बात पर अपने पिताजी को याद करते हुए और समुदायों का संदर्भ देते हुए छत्तर सिंह जी की आँखों में एक अलग-सी चमक दिखाई दे रही थी, जो मुझे अचंभित कर रही थी। छत्तर सिंह जी से मुलाकात का एक प्रयोजन यह भी था कि पिछले तीन वर्षों से छत्तर सिंह तरुण भारत संघ से जैसलमेर के रामगढ़ क्षेत्र में जल संरचनाओं पर काम करने का निवेदन कर रहे थे और उसी संदर्भ में हम क्षेत्र को समझने और परियोजना की संभावना खोजने रामगढ़ आए हुए थे।

छत्तर सिंह जी का जमीनी स्तर का ज्ञान और उनका समुदायों प्रति लगाव कहीं न कहीं उन कहानियों को भी दर्शा रहा था, जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई हैं। कहानी समुदायों की, कहानी उस समाज की जो कभी पाल के किनारे बसा था। अपनी बातों में छत्तर सिंह जी ने कई तालाब, कुएँ, बेरी और खड़ीन का ज़िक्र किया, जो आज से नहीं तो शतकों से मरुभूमि की प्यास बुझा रहे हैं और समुदायों को टूटने से जोड़े रखे हैं। छत्तर सिंह जी की बातें कहीं न कहीं मुझे याद दिला रही थीं अनुपम मिश्र की …

विप्रासर तालाब और बेरियो के संदर्भ में जानकारी देते हुए छत्तर सिंह

इतिहास के पन्नो से

सैकड़ों हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनाने वालों की तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा हज़ार बनती थी। पिछले दो सौ वर्षों में नए किस्म की थोड़ी-सी पढ़ाई पड़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया।

अनुपम मिश्र

इतिहास के पन्ने आज भी उस सच की गवाही देते हैं कि कैसे पानी के किनारे समुदायों का विकास हुआ। “आज भी खरे हैं तालाब” अपनी इस किताब में अनुपम लिखते हैं कि अगर कभी भारतीय समाज का पानी-प्रबंधन ज्ञान विस्तार खोजा जाए तो इसकी जड़ें ५ वीं सदी तक फैली दिखती हैं। भारतीय संस्कृति और प्रकृति का एक अनोखा संगम हमें कई ऐतिहासिक लेखों में दिखाई पड़ता है। ऐसे में राजस्थान जैसे क्षेत्र में सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हजारों गांवों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं। सागर, सरोवर और सर ये शब्द हर तरफ़ मिलेंगे।

मध्यकाल में राजाओं और प्रजा में पानी प्रबंधन का एक अनोखा सामंजस्य दिखाई पड़ता है। राजा संसाधन मुहैया कराता तो साफ़ माथे का समाज तालाबों का निर्माण करता। कहते हैं कि आज भी इधर-उधर के आंकड़ों को जोड़ा जाए तो भी ११ से १२ लाख तालाब समुदायों की प्रतिभा बचाए शान से खड़े हैं। सब जगह तालाब हैं और सब जगह उनको बनाने वाले लोग भी रहे हैं। इन राष्ट्र निर्माताओं को आज के समाज के पढ़े-लिखे लोग भूल बैठे हैं, यह बात आसानी से समझ नहीं आती। जो लोग तालाब का निर्माण करते, उन्हें गजधर कहा जाता, पर यहाँ शब्दों के आयाम अलग थे। गजधर ज़मीन की नहीं, तो समाज की गहराई नापने का काम करते।

गजधर हिंदू थे और मुसलमान भी, क्योंकि गजधर होना कहीं न कहीं जातियों से जुड़ा तो था, पर यह जातीय जुड़ाव सामाजिक सुव्यवस्था की नींव से भी जुड़ा था। इस नई पीढ़ी के लोग जैसे तालाबों को भूलते गए, वैसे ही उनको बनाने वालों को भी। भूले-बिसरे लोगों की सूची में लुड़िया, दुसाध, नौनिया, गोंड, परधान, कोल, ढीमर, धीवर, भोई जैसी कई जातियाँ आती हैं। ऐसा कहते हैं, एक समय था जब ये जातियाँ तालाबों की अच्छी जानकार थीं।

अगर आज की तत्कालीन व्यवस्था को नींव से परखें, तो पहली नज़र में लग सकता है कि जटिल जातीय व्यवस्थाओं का होना ऐतिहासिक व्यवस्थाओं की देन है, पर एक सच यह भी है कि जिन समुदायों ने पानी का काम किया, उनमें एक सामंजस्य हमेशा ही देखने को मिलता है। उनको चिंता थी समुदायों के आने वाले भविष्य की। जैसलमेर की धरती पर जातियों की जटिलता तो नहीं दिखाई दी, पर हाँ, कुछ विप्रासर की बेरिया ज़रूर जातीय विशेष थी, पर सारी जातीय विशेष बेरियों का १०० मीटर की व्यास में होना जातीय जटिलता को धुंधला कर रहा था। ऐसे में सामाजिक विभाजन को समझना भी मुश्किल ही था।

मृगतृष्णा झूठलाते तालाब

राजस्थान के मरुभूमि पर निकली हमारी तन-मन की यात्रा अब जैसलमेर आ पहुँची थी। अब तक की यात्रा में मरुभूमि ने पल-पल मेरे पूर्वाग्रहों और मरुभूमि की समझ को बदला था, पर यह एक शुरुआत थी। अब जो मैं जैसलमेर में देखने वाला था, वह मेरी पिछली सारी मान्यताओं को अंदर तक तोड़कर रखने वाला था। सालभर में बस ३ से १२ इंच बारिश वाला यह क्षेत्र सबसे सूखा क्षेत्र माना जाता है और कहते हैं कि यहाँ बस इतना ही पानी गिरता है जितना देश के अन्य भागों में एक दिन में गिर जाता है। पर इन समस्याओं से समाज भला कैसे नहीं जूझता?

“पानी के मामले में हर विपरीत परिस्थिति में उसने जीवन की रीत खोजने का प्रयत्न किया और मृगतृष्णा को झुठलाते हुए जगह-जगह तरह-तरह के प्रबंध किए।”

इस बात का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मरुभूमि में सैकड़ों गाँवों के नाम वहाँ बने तालाबों से जुड़े हैं। जैसलमेर की पीले पत्थरों से बनी सुंदर मनमोहक इमारतें मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों किसी ने सोने की चादर ज़मीन पर सजा दी हो। इस सुंदर दृश्य को निहारते हुए हम आ पहुँचे गड़ीसर, गड़ीसर! नहीं, ये जगह नहीं, ये तो तालाब है, तालाब पानी से भरा हुआ, अन्तर्मन ने आवाज़ दी। मरुभूमि के सुखाड़ क्षेत्र में जीवन को सींचता हुआ गड़ीसर मेरी मरुभूमि की कल्पना को नए आयाम दे रहा था।

आँखों पर विश्वास करना मुश्किल था, पर ये सच था, एक ऐसा सच उस समाज का जिसके बारे में हम अब तक बात करते आए। कहते हैं ८०० बरस पुराने इस शहर के ७०० बरस उसका एक-एक दिन गड़ीसर की एक-एक बूंद से जुड़ा रहा है। थोड़े खोज अभियान के बाद पता चला कि गड़ीसर का निर्माण सन १३३५ में जैसलमेर के राजा महारावल घड़सी ने समाज के साथ मिलकर करवाया था। तीन मिल लंबे और कोई एक मिल चौड़े आकार वाले इस तालाब का आगौर १२० वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ है। यह उस साफ़ माथे के समाज की ही देन है कि गड़ीसर आज भी उसी भव्यता के साथ जीवन की रचनात्मक कहानियों को बयाँ करता है।

मृगतृष्णा झुठलाता गड़िसर तालाब

गड़ीसर के बारे में पढ़ते हुए मुझे उम्मेदसिंह जी मेहता द्वारा लिखित ग़ज़ल मिली, वह लिखते हैं कि “भादो की कजली-तीज के मेले पर सारा शहर सज-धज कर गड़ीसर आ जाता”। पर गड़ीसर अकेला ऐसा उदाहरण नहीं है। स्थानीय लोगों से ज्ञात हुआ कि नौतल, गोविंदसर, रतनसर, जैतसर और अमर सागर जैसे कई तालाब हैं जो मरुभूमि को जोड़े रखते हैं, और ये उस समाज की देन है जिसने न सिर्फ़ तालाब बनाए, अपितु आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की नींव भी रखी।

साफ़ माथे का समाज और उनकी प्रतिकृतियाँ

तालाब और पानी प्रबंधन से शुरू हुई बात अब सामाजिक उत्तरदायित्व निभाते साफ़ माथे के समाज तक आ पहुँची थी। छतर सिंह जी न तो कहानियाँ सुनाने में थक रहे थे और न ही हम सुनने में। ये रामगढ़ यात्रा का दूसरा दिन था और अब हम आ पहुँचे थे नेतसी गाँव में। गाँव में? नहीं, नेतसी गाँव के विप्रासर तालाब में। रेत की सफ़ेद चादर से ढका तालाब पहली नज़र में सूखा नज़र आ रहा था, पर यह पूरा सच नहीं था। जैसे-जैसे तालाब और हमारे बीच का अंतर कम होता गया, कुछ मानवी आकृतियाँ तालाब के आगोर में दिखने लगीं पानी के बर्तन के साथ। जिज्ञासा वश मैंने छतर सिंह जी से पूछ ही लिया, “हुकुम, तालाब तो सूखा पड़ा है, ये लोग पानी कहाँ से ले जा रहे हैं? कोई कुआँ है क्या?” छतर सिंह जी मुस्कुराते हुए बोले, “नहीं, कुआँ नहीं, बेरी है बेरी।”

शब्द कानों के लिए नया था, तो मस्तिष्क उसकी आकृति नहीं बना पाया। कुछ २०० मीटर की पैदल यात्रा के बाद हम बेरियों पर आ पहुँचे। छतर सिंह जी समझाने लगे। बेरिया कुओं का ही एक छोटा रूप होता है, इसलिए इसको कुई भी कहते हैं। कुईया आमतौर पर खड़ीन या तालाब के आगोर में बनाई जाती है। जब बरसात होती है, तो रेत के नीचे एक नमी बन जाती है और इस नमी को पानी में बदलने के लिए बेरियों का निर्माण किया जाता है। कुओं की तुलना में इसका व्यास कम होता है, जो चार से पांच हाथ हो सकता है और उसकी गहराई 30 से 60 हाथ तक हो सकती है। पत्थरों की चुनाई करके बेरियों को पक्का कर दिया जाता है ताकि वह लंबे समय के लिए काम देती रहे। बेरियों ने मरुभूमि में हमेशा से ही पीने के पानी के स्रोत के तौर पर एक अहम भूमिका निभाई है। जैसलमेर आए और खड़ीन न देखे, ऐसा कभी नहीं हो सकता था, तो खड़ीन देखने हम निकल पड़े एकलपार गाँव की तरफ़। रास्ते में हमने एक और जल संरचना देखी, जिसे टांका कहा जाता है।

टांका

मरुभूमि में टांका वर्षा जल को संगृहीत करने का परम्परागत माध्यम है। टांका की गहराई और गोलाई लगभग ३-६ मीटर होती है। टांके में तीन से चार प्रवेश द्वार बनाए जाते हैं जिससे वर्षा का पानी टांके में जा सके। टांके के आगोर में एक प्लेटफार्म बनाया जाता है जिसकी ढलान टांके की तरफ़ हो। टांके का उपयोग आम तौर पर पीने के पानी के लिए एवं पशुओं के लिए किया जाता है।

खड़ीन

खड़ीन की पाल की ऊंचाई कम होती है, इसलिए तालाबों की तरह इसे दूर से पहचानना मुश्किल होता है, पर हर बार नहीं। अगर खड़ीन पुराना है तो उसकी पाल पर लगे पेड़ों से खड़ीन आसानी से पहचाना जा सकता है। खड़ीन को समझाते हुए छतरसिंह जी बोले, “हुकुम, खड़ीन वर्षा जल को संगृहीत करने की एक परंपरागत तकनीक है जिसमें खेत की ढलान की तरफ़ मिट्टी का एक तटबंध बनाया जाता है। जब बरसात होती है, तब तटबंध के किनारे जल संगृहीत हो जाता है और जिससे खेत की मिट्टी में नमी बन जाती है और किसान उसमें रबी की फ़सल कर पाते हैं।”

इन सब जल संरचनाओं को देखना मानों ऐसा लग रहा था कि पानी का प्रबंध और उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोध के विशाल सागर की एक बूंद थी। पर अब समय और समाज बदल चुका है। पीढ़ियों से चला आ रहा पानी प्रबंधन का ज्ञान अब कहीं खो-सा गया है, पर एक सच ये भी है कि अभी मिटा नहीं। प्रकृति और समाज को जोड़ती सुरेख सरिता का ज्ञान आज भी ज़िंदा है छतरसिंह जैसे महानुभावों में, ज़िंदा है उन तालाबों और बेरियों में जो आज भी उस समाज की प्रतिभा की गवाही देते हैं जिसने कभी उसकी रचना की थी। अब ज़रूरत है उस ज्ञान को इस नए समाज तक पहुँचाने की ताकि आनेवाली पीढ़ियाँ एक नए भविष्य का निर्माण कर सकें।

नोट: प्रस्तुत लेख मेरे स्वयं के अनुभव और अनुपम मिश्र द्वारा लिखित ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पर आधारित है।

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