हम किताबों में, कहानियों में, कुछ जगह घूम कर या लोगों से सुन कर आदिवासी समाज के बारे में जानते हैं. सरकार के लम्बे भाषणों में भी उनके विकास और हक़ की बातें सुनने में आती हैं. ऐसा भी कहते हैं कि आज के समय में उन्हें सारे अधिकार मिल रहे हैं और उनकी ज़रूरतों पर ध्यान दिया जा रहा है. लेकिन जब मैं छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में यहाँ के आदिवासी समुदायों के साथ काम करते हुए उनके बारे में सोचता हूँ तो पिछली कही-सुनी सभी बातें झूठ लगती हैं.
छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में सेमरिया गाँव के एक हिस्से में एक छोटा सा समुदाय रहता है जो अपने कसबे को मंझिपारा के नाम से बुलाता है. उनके घर छोटे हैं, मिट्टी के बने हैं, अंदर चार बर्तन और चार कपड़े हैं.
बिरहोर छत्तीसगढ़ की एक विशेष संरक्षित जनजाति है. स्थानिय भाषा में इसका अर्थ है, ‘जंगल में घूमने वाला’. बिर का मतलब जंगल और होर का मतलब है घूमने वाला. उनकी जनसंख्या काफी कम (करीब 3000) है और इस वजह से उन्हें विशेष संरक्षित जनजाति की श्रेणी में रखा गया है. जब मैं सेमरिया गाँव के लोगों से बात कर रहा था तो उन्होंने बताया कि पहले ये लोग रस्सी बनाने का काम करते थे. फिर जब संसाधन कम होने लगे तो उन्होंने बांस से टोकरी, झाड़ू आदि बनाना शुरू किया.
एक महिला ने बात करते हुए बताया की हम बांस लाने के लिए 15-20 किलोमीटर का सफ़र करते हैं. खराब मौसम में उन्हें घर व बच्चों को छोड़ कर कई दिनों तक वहां रहना पड़ता है और उसके बाद भी काम का उतना पैसे नही मिलते क्योंकि कोचिया (बिचौलिया) बहुत ही कम दाम पर उनकी बनायी चीज़ों को खरीदता है.
एक और महिला ने बताया कि उनके राशन कार्ड जब्त हैं. मुझे लगा कि जो लोग राशन देते हैं उन्होंने उनका कार्ड रख लिया होगा लेकिन आगे बात करने पर पता चला कि जब वे कर्ज पर पैसे लेती हैं तो साहूकार (कर्जा देने वाले) राशन कार्ड रख लेते हैं और राशन मिलने के दिन पर साथ जाकर उनका सारा राशन ले लेते हैं. इस वजह से इनके घर में हमेशा खाने की कमी होती है.
ये लोग आमतौर पर जंगल से जो सब्ज़ियां लाते हैं, (अक्सर कंद मूल – root vegetables) उन्हीं पर आधारित रहते हैं. बिरहोर समाज के लोग कुछ ही दशक पहले यहाँ आकर बसे हैं, उनके पास ज़मीन नहीं है जिससे वे खेती कर पाएं. उनका पूरा जीवन जंगल पर ही आधारित है.
एक बुज़ुर्ग व्यक्ति बताते हैं कि उन्होंने एक बार अपने घर के पीछे की ज़मीन साफ करीब थी ताकि वहां पर बाड़ी लगा सकें लेकिन फॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने नोटिस भेज दिया और मुकदमा भी चलाया. इस डर से कोई कुछ भी खेती का कम नही करता है. बांस का समान बेच कर जो भी पैसे मिलते हैं, उसी से घर का दाना-पानी चलता है. बिरहोर समाज के लोग काफी शर्मीले स्वभाव के हैं. वे ज़्यादा किसी से मिलते-जुलते नही हैं और गाँव के आस-पास के बाज़ार में जाकर ही अपनी ज़रुरत की चीजें खरीदते या बेचते हैं.
लेकिन आज के समय में जो युवा लड़के हैं वो काम की तलाश में घर छोड़ कर बाहर प्रवास करते हैं. वे टोली बना कर निकलते हैं और उनके परिवार के बाकी सदस्य गांव में ही रहते हैं. बाहर जाकर ये लोग मजदूरी या फिर किसी होटल में बर्तन धोने के कामों में लग जाते हैं और बचत के पैसे घर पर भेजते है जिससे खर्चा निकल जाता है.
लड़कियाँ, महिलाएँ और बुज़ुर्ग लोग बांस का सामान बनाने के अलावा महुआ भी बीनते है. कोचिया इसे औने-पौने दाम पर खरीदता है. यह लोग महुए से शराब भी बनाते है जिससे वह उसे खुद सस्ते में पी सकें और आसपास के गाँव में बेच कर थोड़े पैसे कमा पाएं. बच्चे ज़्यादातर घर पर रहकर माँ का हाथ बटाते हैं. दिन में वे स्कूल जाते हैं जिसका मकसद पढ़ाई करना उतना नही है जितना मध्यान भोजन से पेट भरना.
हर दस में से आठ बच्चे कुपोषित हैं. एक समूह बैठक के दौरान मैं दो बच्चियों से मिला जो ज़्यादा कमज़ोर लग रही थी. बात करने पर मालूम हुआ कि वे बहने हैं, उनकी माँ नहीं है और पिता जेल में है. दरअसल पिता ने ही माँ का क़त्ल किया था. ये बच्चियाँ एक बुज़ुर्ग दम्पति के साथ रहती हैं.
इस समुदाय में लोग ज़्यादा पढ़े-लिखे नही हैं. वे 5वीं या 8वीं पास होंगे. उन्हें संरक्षित जनजाति से होने के कारण विशेष लाभ प्राप्त हैं लेकिन वो मिल नहीं पा रहे हैं क्योंकि उनके पास न तो जाति प्रमाण पात्र है न ही आय प्रमाण पत्र जिसे दिखाकर वह लाभ मिलते हैं. अगर बनवाने जाएँ तो वहां हद से ज़्यादा समय लगता है, जिससे रोज़ी रोटी प्रभावित होगी. सुविधा शुल्क देकर यह कम करवाना उनकी पहुँच से बाहर है.
इस समुदाय में सूर्य देव की पूजा की जाती है और वे अपनी कुल देवी जिसको वे बड़ी माई कहते हैं, उनकी पूजा करते हैं. समुदाय में अगल-अलग गोत्र होते हैं और गोत्र के नाम पेड-पौधों के नाम पर होते हैं. पुरुष आमतौर पर एक से अधिक पत्नी रखते हैं और शादी करने के पहले से ही उसके साथ होते हैं. बकरे की क़ुरबानी देकर शादी संपन्न होती है.
गाँव में दो महिला समूह चल रहे हैं जिसमें वे बचत करते हैं और बाहर से ऋण न लेकर समूह से ही ऋण लेती हैं. साथ ही आजीविका को बढ़ाने के लिए बांस की चीज़ें बनाकर बेचने में जन स्वास्थ्य सहयोग उनकी मदद कर रहा है. संस्था ने बिरहोर समाज की महिलाओं के साथ मिल कर बांस लगाया भी है ताकि आने वाले समय में उन्हें बांस लेने दूर न जाना पड़े. साथ में उनके स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जा रहा है जिसके लिए सामूहिक तौर पर पोषण बाड़ी लगायी गयी है ताकि सभी को पोषित खाना मिले.
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