इस लेख की दोनों लेखिकाएँ (श्वेता और तरब) इंडिया फ़ेलो के तौर पर काम करते हुए पिछले 10 महीनों से अपने घरों से मीलों दूर हैं। इस दौरान हमें कई अनुभव मिले। साथ ही देश के कई राज्यों में घूमने के भी मौके मिले। जैसे-जैसे जगहें बदलती रही, वैसे-वैसे लोग, उनकी अलग-अलग भाषा-बोली, संस्कृति, परंपरा एवं पद्धतियों से रूबरू होने के भी मौके मिलते रहे। साथ ही कई समुदायों की बहुत सारी बारीकियों को नज़दीकी से देखने और समझने के अवसर भी मिले।
‘जैसा देस वैसा भेस’ कहावत सुनी तो थी पर अब इसका अर्थ भी समझ आने लगा है। किसी भी समुदाय में लोगों के साथ ज़्यादातर समय बिताना, उनसे उनका हाल-चाल जानना और अपना हाल-चाल उनसे साझा करना, इसकी अब आदत सी हो चुकी है। अपने घर से दूर होने का अहसास समुदाय में रहने और समय बिताने के चलते मुश्किल से होता है। सभी से मिलने वाले प्यार एवं लगाव से यहाँ हर दिन कुछ ख़ास ही गुज़रता है। इसीलिए इन सभी बदलती जगहों की बदलती ‘भाषाओं और बोलियों’ ने हमें इन दिनों बेहद आकर्षित किया है।
विभिन्न जगहों और वहाँ की भाषा-बोलियों को सुनने और उसे दोहराने का मजा ही कुछ अलग है। जहाँ कहीं भी काम से संबंधित आना-जाना होता है और इस दौरान जिन भी लोगों के साथ मुलाकात होती है या फिर कुछ खास समय बिताने का मौका मिलता है तब कहीं ना कहीं थोड़ा ध्यान उनकी रोमांचित करने वाली बोलियों और उनके उच्चारणों पर टिका रहता है।
वहीं, एक ओर पूरा प्रयास सुने हुए शब्दों को ठीक उनकी तरह दोहराने में भी लगा होता है। जब भी हम सुनी हुई बोली की नकल करने की कोशिश करते हैं तब वहाँ मौजूद सभी लोगों को बड़ा मजा आता है। और तो और वे भी चाव से इस नकल में मदद करने में जुट जाते है। कोई भी हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाए इस कदर खिलखिलाहट से भरा खुशनुमा माहौल बन जाता है!
पुरखों की विरासत है भाषा
हमारी अपनी एक भाषा/बोली होती है जो हमें हमारे पुरखों से मिलती है। हमारे घर-परिवार, यार-दोस्त, आस-पड़ोस के लोग सभी इसी भाषा/बोली में बात करते हैं। और हमें भी उससे बेहद प्रेम है। लेकिन मान लीजिए कुछ वजहों से इसका इस्तेमाल कम होते-होते यह पूरी तरह ख़त्म हो जाए! जरा सोचिए, क्या होगा अगर आपकी अपनी भाषा/बोली ही नहीं रहेगी जो भीड़ में आपको एक अलग पहचान देती थी? जिससे आपको लगाव था, एक अपनेपन का एहसास था। वह अगर चली जाए तो क्या आपको ज़रा भी तकलीफ़ नहीं होगी? यह बेहद गंभीर और असहज करने वाला है।
“अरे दीदी, आप अपनी बोली में क्यों नहीं बात करती है?” मैंने (श्वेता, इंडिया फेलो) हसीना आपा (आप लखनऊ शहर के नज़दीकी गाँव से आकर बड़ी मेहनत से अपना गुजारा कर रही हैं) से पूछा।“ये तहजीब का सहर है मेम, देहाती हैं समझकर हम पर खूब हँसेंगे। लखनऊ में बस हिंदी और उर्दू भासा चलती है मेम,” उन्होंने जवाब दिया।
बदलते समय और मांग को ध्यान में रखकर सोचें तो हसीना आपा का उनकी बोली से जुड़ा डर स्वाभाविक है। पर साथ ही असहजता और शर्म के कारण उनका अपनी बोली/भाषा का इस्तेमाल बंद करना, इस बात का संकेत भी हो सकता है कि उनकी भाषा/बोली विलुप्ति की कगार पर है। हसीना आपा जैसे लाखों लोग लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद, सूरत, जम्मू, और दूसरे शहरों में विभिन्न वजहों से आकर बसे हैं। वे लोग डर, असहजता, शर्म, सामाजिक स्तर के बारे में सोचकर अपनी बोली/भाषा का इस्तेमाल करना बंद कर रहे हैं। जिस भाषा को हसीना आपा ने देहाती भाषा कहकर संबोधित किया था, वह अवधी भाषा भारत तक सीमित न होकर भारत के बाहर भी कई देशों में प्रचलित है।
अवधी का इतिहास
इस भाषा का अपना गौरवशाली इतिहास है और इससे उत्तरी भारत की खास पहचान बनी है। ऐसी ‘अवधी’ भाषा के महत्व से केवल हसीना आपा ही बेखबर नहीं हैं बल्कि इस भाषा को बोलने वालों की बड़ी तादाद होने और इसके मशहूर साहित्य भंडार होने पर भी इसे बोली का ही दर्जा मिला है। ठेठी अवधी में सूफी काव्यों का वृहद भंडार है।
यदि पूरे देश में केवल एक क्षेत्र का हाल ऐसा दिखाई देता तो शायद फ़िक्र की कोई बात नहीं होती। लेकिन भारत एक विशाल भूखंड है जो उसकी विभिन्न खूबियों और विविधताओं से पहचाना जाता है। इसमें इसकी भाषा-बोलियों का भी एक बड़ा हिस्सा है। भारत एक ऐसा देश है जिसने भाषाओं का एक अनमोल खजाना अपने भीतर समेटकर रखा है। और लखनऊ उसका केवल एक छोटा-सा हिस्सा है।
बोली बनाम भाषा
अगर मौजूदा जानकारी को मानें तो बोली और भाषा में स्पष्ट अंतर दिखाना बहुत मुश्किल है। यानी भाषा और बोली मैं कोई खास अन्तर नहीं ऐसा कह सकते है। भाषा के विद्वानों का कहना है कि बोली को उपभाषा के नाम से भी जाना जाता है। घर, गाँव या समुदाय में बोली जाने वाली स्थानीय भाषा को ‘बोली’ कहते है। बोली केवल बोली जाती है, बल्कि भाषा लिखी भी जाती है। बोली का एक लहजा होता है जिसे केवल वहीं सीखा जा सकता है जहाँ वह प्रचलित हो। यूँ तो बोली किसी भी भाषा में लिखी जा सकत है परन्तु भाषा की अपनी एक विशिष्ट लिपि होती है जिससे वह उन्नत होती है। वहीं गणेश डेवी इससे भिन्न मत रखते हैं।
लिपि और भाषा
“एक लिपि से कोई भाषा नहीं बनती। यह एक मिथक है।”
गणेश डेवी
उदाहरण – अंग्रेजी की अपनी कोई लिपि नहीं है; यह रोमन का उपयोग करती है। दरअसल, जैसे ही किसी बोली जाने वाली भाषा को लिपिबद्ध किया जाता है, वह अपनी विविधता खो देती है। भाषा में साहित्यिक रचना का कार्य होता है वहीं बोलियों में यह दुर्लभ होता है। परन्तु मैथिली में विद्यापति द्वारा रचित पद, तुलसीदास द्वारा अवधि में रचित रामचरितमानस और रामलला, ब्रज भाषा के महाकवि सूरदास की गीतावली और सूरसागर जैसी अद्भुत काव्य रचनाएँ इस विचार को धत्ता बताते हैं।
वहीं कुछ विद्वान मानते हैं कि भाषा में स्थिरता होती है और बोलियों में परिवर्तनशीलता होती है। सरल शब्दों में समझे तो, बोली उसके शब्द और उसका लहजा कुछ निश्चित अंतर, दूरी और समूहों-लोगों के चलते लगातार बदलते रहते हैं पर भाषा के विषय में ऐसा नहीं होता।
उदाहरणार्थ हरियाणवी उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाओं का एक समूह है। परन्तु इसे भाषा नहीं कह सकते। हरियाणवी में कई लहजे हैं, साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में बोलियों में भिन्नता भी है। लेकिन यह दो भागों में बंटे हैं, एक उत्तर तथा दूसरी दक्षिण हरियाणवी बोली। उत्तर हरियाणवी सरल होती है, तथा हिन्दी भाषी व्यक्ति इसे थोड़ा-बहुत समझ सकते हैं। वहीं दक्षिण हरियाणा में बोले जाने वाली बोली देठ/ठेट हरियाणवी नाम से पहचानी जाती है। यह हिंदी की उपभाषा और खड़ी बोली का दूसरा रूप मानी जाती है। हरियाणवी बोली में लोक साहित्य का एक समृद्ध भण्डार है, जिसकी लिपि देवनागरी है।
विद्वानों का यह भी मत है कि बोलियों में मेल होता है यानी एक भाषा की विभिन्न बोलियों को बोलने वाले लोग एक-दूसरे की बोली को समझ सकते है, परन्तु भाषा के साथ यह संभव नहीं है।
लेकिन वहीं बंगाली, ओड़िया और आसामी भाषी एक दूसरे को समझ सकते हैं। जबकि हिंदी की ही बोली माने जाने वाली ब्रज और भोजपुरी बेहद अलग हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि भाषा का उपयोग सामाजिक, व्यवहारिक, प्रशासनिक और अन्य औपचारिक जगहों में होता हैं किन्तु बोलियों का उपयोग इन जगहों में नहीं होता है। यह बात भी ठीक नहीं है क्योंकि अमेरिका, केनेडा, ऑस्ट्रेलिया आदि के मूल निवासी अपनी भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं।
भाषा और जनजाति
भारत में अधिकतर जनजातियाँ ऐसी हैं जिनकी अपनी बोली और संस्कृति है जैसे- गोंड, भील, कोली, बैगा, तोड़ा, मुंडा, आदि। बोली-भाषा न केवल अभिव्यक्ति का माध्यम होती है बल्कि उसमें इतिहास और मानव विकास-क्रम की कई विशेषताएँ होती हैं। कभी भी केवल कोई बोली अकेले नष्ट नहीं होती बल्कि उसके साथ ही उससे जुड़ी विशेष संस्कृति, तकनीक और उसमें अर्जित बहुमूल्य परंपरागत ज्ञान भी नष्ट हो जाता है।
एक विशेष बात ऐसी है जिससे शायद ही कोई परिचित होगा, और वो ये कि खासकर घुमंतू जनजातियों में खुद की बोलियों के अलावा एक अलग ‘गुप्त बोली’ भी होती है। इसका प्रयोग वे लोग विशेष मौकों पर करते हैं। जैसे जब वो ऐसा कुछ कहना चाहते हैं जो कोई तीसरी/बाहरी व्यक्ति ना समझ पाए, उस वक़्त वे इस बोली का प्रयोग करते हैं अन्यथा नहीं करते।
अब ताज्जुब की बात यह है कि जब इनकी बोलियाँ ही विलुप्त हो रहीं हैं, तो इन गुप्त भाषाओं का क्या हाल होगा? अब तक यह मौजूद होगी भी या नहीं? यह बेहद चिंताजनक है। क्योंकि इन बोलियों की विशेषता यह है कि लोक-गीत, लोक-कथा आदि केवल मौखिक रूप से कर्ण-परंपरा (जहाँ लिखित रूप में कुछ नहीं होता केवल बोलने -सुनने के सहारे चलती आयी परंपरा) के जरिये समाज में प्रयोग में आती रहती है। और यदि यह खत्म हो जाए तो इनका पुनः निर्माण मुश्किल ही नहीं किन्तु असंभव है।
भाषा विलुप्ति
जनजातीय या अन्य समूहों की भाषाओं/ बोलियों की विलुप्ति की समझ बनाने के लिए हम भाषाओं और बोलियों की गहन राजनीति को भी समझ सकते हैं। दरअसल जिस बोली/भाषा के लोगों के पास सत्ता होती है वही अपनी बोली/भाषा को आगे ले जा पाते हैं। इस बात के मद्देनज़र हम देखें तो हिंदी भाषा का पिछले कुछ सालों में एक अलग तरह का प्रचार-प्रसार हुआ है। हिंदी भाषा के प्रसार को लेकर उत्तरी-दक्षिणी राज्यों में अनबन भी हुई है और इसपर वर्तमान में कई भिन्न मत मिलते हैं।
एक भाषा महत्वपूर्ण है और अन्य नहीं ऐसी मानसिकता का निर्माण हो जाने पर अपनी पहचान, भाषा/बोली के लिए हीन-भाव, शर्म, और निम्न होने का भाव महसूस करना आम है। और यदि कोई व्यक्ति अपनी पहचान, भाषा/बोली के लिए प्रेम रखना भी चाहे तो उसका उस भाषा के इस्तेमाल के लिए डर, असहज होना स्वाभाविक है।
ऐसे में पीढ़ियों से मिलते द्वेष, हीन-भाव, और अपमान को सम्मान में बदलने हेतु, सामाजिक स्तर को बढ़ाने हेतु, नई पहचान और भाषा को अपनाना ही एक मार्ग बचता है। कोई अन्य विकल्प न होने से निम्न तबकों को अपनी बोली-भाषा छोड़कर काम ले लिए ज़रूरी भाषा को आत्मसात् करने पर मजबूर होना पड़ता है।
भय और अपमान
वर्तमान में आस-पास में बन रहे माहौल ने अजीब भय का निर्माण कर रखा है।
भाषाएँ फासले कम करती हैं। वह एक व्यक्ति को दूसरे से जोड़े रखती हैं ,यदि वह हमें सबको ‘अपनाने’ का भाव सिखाती हैं तो हम आखिर भाषाओं में ‘भेदभाव’ क्यों करते हैं? मुम्बई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आस-पास के राज्यों से रोजगार, शिक्षा आदि वजहों से आकर बसे लोगों की उनके बोली और रहन-सहन के तरीकों की नकल करना, अश्लील गानों तथा लफ्जों का प्रयोग करना एवं उन्हें उनके स्थानिक क्षेत्र के नाम से लगातार अपमानित करना बहुत सामान्य हो चुका है।
मुम्बई में उत्तरी राज्यों से संबंधित लोगों का मजाक उड़ाना काफी आम है। अगर कोई उत्तर प्रदेश या बिहार से है तो बिहारी, भोजपुरी भैया जैसे शब्दों का प्रयोग सामान्य है। और यदि नेपाल से है तो नेपाली, गोरखा, कांचो जैसी शब्दों का प्रयोग अपमानित करने हेतु किया जाता है। अब ये सब मनोरंजन के मुद्दे बने हैं। राजनीतिक प्रभाव के चलते बातों से लोगों को डराना-धमकाना मामूली सी बात है। अगर ठेले वाले, रिक्शा चालक आदि ने अपने हक़ की आवाज़ उठाने की कोशिश की तो उन्हें दबाया जाता है।
नेपाल से संबंधित लोगों का मजाक “चुंहा खांचो अम्मा बुलांचो” जैसे खान-पान से जुड़ीं बातों से किया जाता है। वहीं ओड़िसा, झारखंड और दक्षिणी राज्यों से आए लोगों को अक्सर उनके रूप-रंग को लेकर उन्हें असहज महसूस करवाया जाता है।
समुदाय के डर
आइए एक ऑडियो के जरिए सुनते हैं समुदाय की लड़कियों की आवाज़ और समझने का प्रयास करते हैं उनकी मातृभाषा से जुड़े डर, पीड़ा और असहजता को।
मैं (तरब) जिन दिनों बिहार में थी वहाँ समुदाय में दो प्रकार की बोलियाँ बोली जाती थी। एक ‘मैथिली’ (ऊँची जाति/ब्राह्मणों की भाषा) और दूसरी ‘ठेटी’ (अन्य तबकों की बोली)। मैथिली भाषीय लोग अपनी बोली पर विशेष गर्व महसूस करते थे वहीं, ठेटी भाषीय लोग खुद की बोली का सम्मान नहीं करते थे क्योंकि उनकी बोली समाज में उनका जातीय स्तर निर्धारित करती थी।
1965 में मैथिली भाषा को साहित्य अकादमी द्वारा आधिकारिक तौर पर स्वीकारा गया। 2003 में इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में एक प्रमुख भारतीय भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। इसके उपरांत गठित समितियों द्वारा मैथिली भाषा के संवर्द्धन और संरक्षण हेतु कई सिफारिशें की गई और कार्य भी हुए है। वहीं ठेटी बोली का जिक्र दूर-दूर तक कहीं सुनाई नहीं देता। शायद, वह केवल एक बोली है इसलिए या फिर वह एक जनजातीय बोली है इसलिए?
सत्ता
सत्ता संरक्षण के बिना जन-जातियाँ और निम्न तबके के दूसरे लोग अपने पूर्वजों की विरासतों को अगर सहेजना भी चाहें तो वे ज्ञान और संसाधन के कमी के चलते सहेज नहीं पाते। साथ ही घुमंतू जनजातियों समेत कई जनजातियाँ मुख्य धारा से दूर हैं और इनके पास दस्तावेज़/कागजात ना होना एक गंभीर समस्या है। जिसके चलते वे कई अधिकारों से वंचित रह जाते हैं और राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय प्रवेश नहीं कर पाते। इसी तरह वे कई सरकारी योजनाओं से और उसके लाभ से छूट जाते हैं।
सालों से मौजूद यह स्थिति दिन-ब-दिन और भी बिगड़ती दिखाई दे रही है। दस्तावेज़ के ना होने से इन समूहों की नागरिकता और रोज़गार हमेशा खतरे में होते हैं। और इन्हें कई अपमान, घृणा, भेदभाव आदि झेलना पड़ता है। इन समूहों में कलाकार समूह, विभिन्न जानवरों के इस्तेमाल कर मनोरंजन करने वाले समूह (सांप वाले, मदारी, आदि) वेशभूषा-खेलों के जरिए मनोरंजन करने वाले समूह, और मुख्य क्षेत्र (प्रबल समूहों) के लोगों की छोटी से बड़ी जरूरतों को पूरा करने वाले लोग शामिल हैं।
भाषा संरक्षण
जितनी बड़ी कगार में भाषा-बोलियाँ विलुप्त हुई हैं उससे यह समझ आता है कि या तो इन सभी भाषा-बोलियों को बोलने वाले लोग नहीं बचे या फिर उनके व्यवसाय नहीं रहे।
बोली और भाषा किसी समाज का इतिहास, रीति-रिवाजों और विरासत को संरक्षित करने का बेहतरीन तरीका है। जब एक भाषा को संरक्षित किया जाता है, तो इससे उसकी पूरी संस्कृति जीवित रहती है। भाषाओं का महत्त्व और सहेजने की जरूरत को समझा जा रहा है। बड़ौदा स्थित ‘भाषा संशोधन प्रकाशन केंद्र’ पश्चिम भारत के सभी राज्यों की जनजातीय बोलियों को सहेजने की कोशिश कर रहा है। यह संस्थान गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाली आदिवासी जनजातियों की अर्थव्यवस्था, उनके वन-अधिकार, विस्थापन, परंपरा, खेती और स्वास्थ्य से जुड़े ज्ञान आदि के साथ ही इनके मौखिक साहित्य, लोक-गीत, लोक-कथाओं पर काम कर रहा है।
ऐसा ही कुछ मैसूर स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज़ (Central Institute of Indian Languages) द्वारा भाषाओं के संरक्षण और अस्तित्व की रक्षा हेतु कई केंद्रीय योजनाओं/कार्यक्रमों का अनुपालन किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों के तहत व्याकरण संबंधी विस्तारित जानकारी जुटाना, भाषाओं की डिक्शनरी तैयार करने जैसे कार्य किये जा रहे हैं। इसके अलावा, भाषा के मूल नियम, उन भाषाओं की लोक कथाओं, इन सभी भाषाओं या बोलियों की विशेषताओं को लिखित रूप से संरक्षित करने का काम भी किया जा रहा है। इसी तरह प्रोफ़ेसर गणेश डेवी ने भी पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया (People’s Linguistic Survey of India) के तहत भाषा संरक्षण पर वृहद रूप से काम किया है।
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