कम्युनिटी सेंटर पर रहना यानी आसपास स्थित समुदायों के सभी खुले-छुपे और छुपाए हुए अंगों को देख पाना है| अगर वे अंग एक नज़र में न भी दिखें तो धीरे-धीरे नजर आ ही जाते हैं|
कम्युनिटी सेंटर आखिर है क्या
मैं फिलहाल लखनऊ के बरौरा नामक क्षेत्र में ‘सद्भावना ट्रस्ट‘ के कम्युनिटी सेंटर में निरिक्षक के रूप में कार्य कर रही हूँ| सेंटर पर लड़कियों और महिलाओं के कौशल विकास और सशक्तिकरण हेतु विभिन्न कार्यक्रम (कोर्स) चलाए जाते हैं| उनके परिवारजन भी अप्रात्याक्षिक रूप से सेंटर से जुड़ जाते हैं| यह एक ऐसा स्थान है जहाँ लड़कियों और महिलाओं की बातों को सुना जाता है| यहाँ वे अपने हाल-चाल बाँट सकती हैं और सेंटर इसमें राहत व सुकून का स्थान है| यकीनन, सभी की ज़िंदादिली, शरारतें और चहल-पहल सेंटर का माहौल हसीन बनाती हैं|
घर से सेंटर और फिर घर
समुदाय में मौजूद एक-एक घर में दस्तक देते हुए कार्यक्रम से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी का फैलाव किया जाता हैं| २-३ महीने लगातार मोहल्लों और गलियों में घूमने के बाद कुछ इच्छुक लोगों का समूह बनता है| फिर उन सभी का कार्यक्रम से जुड़े सभी मुद्दों पर विस्तारित रूप में दिशानिर्देशन करवाया जाता है और उन्हें व्यक्तिगत साक्षात्कार (इंटरव्यू) के लिए बुलाते हैं| इस प्रक्रिया के उपरांत कोर्स शुरू होता है| इस प्रक्रिया से लेकर कोर्स पूरा होने तक की अवधि में संख्याओं का जादू आश्चर्यचकित कर देता है| शुरुआत ९०-१०० इच्छुकों से होती है लेकिन यह आंकड़ा २५ या उससे भी कम हो जाता है|
सेंटर में कोर्स करने के लिए लड़कियों और महिलाओं को ढूंढ़ना मुश्किल है और उससे भी मुश्किल है जुड़ें हुए सभी लोगों को कोर्स ख़त्म होने तक जोड़े रखना” – नाज़िया, फ़ील्ड वर्कर
जब मैं इस काम और जगह, दोनों में नई थी तब चीजें बहुत सरल लगती थी| मैंने उस वक्त कुछ भ्रम पाले रखे थे| जैसे, शहर है तो शिक्षा के रास्ते आसान होंगे और इसलिए, ज़्यादातर लोग साक्षर ही होंगे| लोगों की सोच उन्नत होंगी यानी वैचारिक चुनौतियां कम होंगी| परंतु मैं जल्द ही समझ गयी कि ऐसा नहीं है|
मुझे लड़कियों के साथ बातचीत करनी थी| इस दौरान जब उनसे कोर्स के लिए समय देने की चर्चा हुई, तो उनमें से एक लड़की, हिना, ने कहा, “बहुत मुश्किल से आठवीं कक्षा तक पढ़ पाए हैं| पढ़ाई का मसला तो है ही पर घर से बाहर निकलना सबसे बड़ा मसला है| आप यकीन मानिए घर वाले नहीं मानते हैं| हम इतना समय नहीं दे पाएंगे| जैसे पढ़ाई छूटी, आखिर यह कोर्स भी छूट जायेगा|“
रौशनी कहती है, “अजी हिना आठवीं तक तो पढ़ सकी है, यह इकरा को देखिये केवल मदरसा जाने की इजाज़त है इसे! इसका स्कूल जाना बंद करवा दिया है| घरवाले कहते हैं कि जो पढ़ना था वह पढ़ लिया है, अब बस घर का काम करो|”
अगर केवल यही दो कहानियाँ होती तो इतना भारीपन न लगता| लेकिन पूरी चर्चा में बस लड़कियों को उनका हाल पूछने की ही देरी थी, और वे सभी बताती चली गयीं| मैं सुनती रही, और कोई विकल्प भी नहीं था| प्रश्न पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते आए विचारों और ख़यालों के थे जिसे मेरी एक छोटी सी मुलाकात बदल नहीं सकती थी|
ऐसे हालातों में, जीवन में कुछ कर दिखाने या फिर सीखने की मंशा रखने वालों का क्या होगा?
इकरा काफ़ी संघर्षों के बावजूद केवल एक महीने सेंटर पर आ पायी थी| तमाम कोशिशों के बावजूद उसे जोड़े रखने में हम असफल हुए| अंत में वह भी यह रट चुकी थी कि लडकियाँ घर से बाहर नही जाया करती| हिना चार महीनों से सेंटर पर आ रही है पर संघर्ष अब भी जारी है क्योंकि वह अब १८ साल की होने जा रही है और उसके घरवाले चाहते हैं कि वह शादी-रिश्ते जैसी चीज़ों पर ध्यान दे| लगभग सभी लड़कियों का यही हाल है|
मासूम और प्यारी ज़ैनब
एक कार्यशाला (वर्कशॉप) जिसका नाम ‘मेरे सपने’ था, उसमें सभी को अपनी एक ख़्वाहिश पर बात करनी थी| ऐसी ख़्वाहिशें जो कभी किसी से साझा करने का मौका न मिला हो या फिर जो जान-बूझ कर छुपाई हो| अल्फिशा ने सिंगर बनने की तो सबा ने वकील बनने की इच्छा रखी| खिलखिलाती मुस्कुराहटों के साथ कई सारी मासूम इच्छाएं खुलकर बाहर आयीं| परंतु मैं केवल ज़ैनब की ख़्वाहिश में खोयी थी| उसने कहा “अप्पी… एक दिन मुझे बस मॉल में जॉब करनी है और वो भी मॉल के कपड़े (ड्रेस कोड) पहनकर|”
इस इच्छा की वजह पूछने पर ज़ैनब ने बताया “हम ऐसे घर और माहौल से आते हैं जहाँ शिक्षा की छूट दूर-दूर तक नहीं है| तो वकील, पुलिस या डाक्टर तो बनने से रहे| यदि ऐसी इच्छाएं रखी तो केवल निराशा हाथ लगेगी, इससे मैं अच्छी तरह वाकिफ हूँ| एक मॉल में काम करना है| एक दिन के लिए भी काम करने मिले तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी, पर यह लगभग नामुमकिन है यह भी मैं जानती हूँ|“
मैं शांत बैठी थी क्योंकि मेरे पास कोई शब्द ही नही थे| उपर की तस्वीर १५ अगस्त समारोह की है जिसमें ज़ैनब का साथ महत्वपूर्ण रहा| समारोह के बाद उसका सेंटर पर आना उसके घरवालों ने बंद कर दिया| वजह थी कि शादी के लिए रिश्ता आया था और ससुराल वालों को नहीं पसंद था कि लड़की घर से बाहर आना-जाना करे, इससे बेवजह बदनामी होगी – यह ज़ैनब की माँ का कहना था|
मेरा अनुभव
सभी लड़कियों में गज़ब का हुनर, कला, चंचलता है| सभी महत्वाकांक्षी भी हैं| इसके बावजूद केवल कुछ ‘अनोखी बंदिशें’ हैं जो उनसे उनके उज्जवल भविष्य के अवसर छीन रही हैं| अब मात्र २०-२१ लडकियां ही रह गयी हैं जो सेंटर आती हैं| अगर हम बदलाव लाने की सोच रखते हैं और उस पर काम करना शुरु करते हैं, उसे हकीकत में बदलने के लिए बेहद मेहनत, लगन, धैर्य और आत्मविश्वास की ज़रुरत होती है| अंत में केवल बी. आर. अम्बेडकर जी के कुछ बोल याद आ रहे हैं – “विचार बंदूक से ज़्यादा घातक होते हैं| दूसरों को बंदूक देना आसान है किन्तु बुद्धि देना कठिन|”
0 Comments