एक साल… कुल मिलाकर ३६० दिन.
शायद एक लम्हा… या बहुत सारे पल.
मैं नहीं जानती.
मैं नहीं जानती ये बदलाव कैसे आया.
लेकिन बहुत कुछ बदल गया;
या शायद मैं बदल गयी.
मार्च की एक उदास सुबह को एक अधेड़ महिला हमारे दफ़्तर आयी. कुछ सहमी – सी दिखाई पड़ रही थी. मेरे समुदाय की अधिकांश महिलाएं काउंटर या टेबल के उस पार बैठे लोगों से कतराती हैं. मेरे लिए यह दृश्य आम ही था. अपनी टूटी – फूटी मेवाडी में कुछ बात – चीत कर मैंने उनके सहज हो जाने का इंतज़ार किया. वे चुप थीं. नज़रें भी नहीं उठा रही थीं. उस लम्हे को शायद सब्र की ही तलब थी. मेरे सब्र के बाँध से पहले, उस महिला के आंसुओं के बांध टूट गए.
आंसू, किसी के भी आंसू, मुझे अशांत कर देते हैं. आंसुओं में खूबसूरती देखने का कौशल मैंने अब तक नहीं पाया है. उन्हें सिसकता देख ही मैं खुद को पराजित मानने लगी. लेकिन ये पराजय मुझे अब मंजूर नहीं थी. शब्द तो मेरे पास थे नहीं, सब बेमानी और बौने लग रहे थे; ऐसे में मैंने चाय का कप उनकी तरफ बढाया. मैं चाय नहीं पीती. दुनिया का चाय – प्रेम मेरी समझ से परे है. उस दिन पहली बार जाना, कि चाय कितनी जादुई है; या शायद वो जादू संवेदना की गर्माहट का था. मैं नहीं जानती.
“मैं एक ठेकेदार के पास पिछले ३ माह से काम कर रही हूँ. पंचायत के आसपास के गांवों में वेलदारी (head-loading) का काम मिल जाता है. एक दिन की हाजरी, जो कि २०० रुपये पर तय हुई थी, पर ३५० से ४०० किलो का वज़न ढोया करती हूँ. हर दिन के ढलने के साथ ठेकेदार मुझे १०० ही रुपये देता और कहता बाकी बाद में देगा.” उस ‘बाद’ के इंतज़ार में ना जाने कितने आज – कल और परसों गुज़र चुके थे. मेरी हामी के साथ वो थोडा और खुलीं.
“ठेकेदार के दिए १०० रुपये में मुश्किल से ही सही, लेकिन गुजारा हो रहा था. आज जब मैं काम पर गयी …” उनका गला फिर रुन्धने लगा था. मेरी बेचैनी फिर बढने लगी थी. “आज जब मैं काम पर गयी, उसने काम देने से मना कर दिया. हिसाब करने के लिए जब कहा … तो उसने अपना जुमला दोहराया – अभी नहीं हैं पैसे, अगले हफ्ते पूरा हिसाब हो जायेगा.” यह कह कर उसने महिला को दुत्कार दिया. ठेकेदार से मिला तिरस्कार उस महिला की मनोस्थिति से साफ़ झलक रहा था.
“अब मैं क्या करूँ?
मेरे पास कुछ नहीं है.
मेरा परिवार आज क्या खायेगा?
मैं अगले दिन कहीं भी काम ढूंढने जाना चाहूँ, तो किराया कहाँ से लाऊंगी?
मेरी रकम (silver) तो पहले ही साहूकार के पास गिरवी है, अब मुझे कौन पैसे देगा?
घर जा कर बच्चों को क्या जवाब दूंगी?”
तिरस्कार के उस एक पल में कितना कुछ घट गया था उनके भीतर. थोड़ी विस्तृत बातचीत और चाँद के घटने – बढने को आधार मान कर हमने दिनों की गणना की. गमानी बाई को अक्षर ज्ञान न होने के कारण उन्हें खुद हिसाब का अंदाज़ा नहीं था. हमने जाना कि लगभग ६६०० रुपये बकाया निकल रहे हैं. यह जानकार उनके चेहरे की उदासी कुछ देर के लिए रास्ता भूल गयी. मदद का वादा करने पर उनका तनाव कुछ कम हुआ.
आजीविका ब्यूरो की कानूनी इकाई द्वारा हमने गमानी बाई की हरसंभव मदद की. लेकिन मेरे जेहन में वो पल अब भी उथल पुथल कर रहा था. वह पल जब अभाव की मुलाकात निराशा और तिरस्कार से हुई होगी. क्या उस पल में गमानी बाई के तलुए तले जमीं बाकी रही होगी? बाद में बेशक उनके नुक्सान की भरपाई करवाई जायेगी, हर्जाना भी माँगा जायेगा, लेकिन क्या कोई भी हर्जाना उस कठिन दौर की मानसिक प्रताड़ना की भरपाई कर सकता है?
उस रात उस परिवार ने क्या खाया होगा?
क्या वह उस रात सो पाए होंगे?
क्या उस परिवार ने कहीं से कर्ज लिया होगा?
क्या उस परिवार के बच्चे श्रम बाज़ार की और धकेल दिए गए होंगे? – जैसे सवालों ने मेरी नींदों पर पहरा देना शुरू कर ही दिया था.
दक्षिणी राजस्थान, भारत देश, या शायद पूरी दुनिया में क्या ऐसा कोई भी मजदूर होगा, जो ये दावा कर पाए कि उसके साथ कभी कोई अन्याय नहीं हुआ? अन्याय सहना और दब कर रहना मजदूरों ने अपनी नियति मान लिया है. मुझसे बात करते हुए कितने ही मजदूरों ने कितनी सामान्यता से इस बात को स्वीकार, कि लगभग हर ठेकेदार के पास औसतन १००० से ५००० रुपये बकाया ही रह जाते हैं. गौर तलब है, कि शारीरिक व मानसिक तौर पर आपको तोड़ देने वाले काम को पूरी लगन के साथ करने पर भी पूरी मजदूरी की आशा करना बेकार है. ये मुझे मंजूर नहीं.
यह तो सिर्फ एक घटना (हादसा?) है, जो कि बस एक तरह की नाइंसाफी बयां करता है. ऐसे कितने ही हादसों की कहानियां कितने ही घरों, बस्तियों, कारखानों, रसोईयों, मिलों आदि में बिखरी पड़ी हैं. ३६० दिन, ये सारे पल, नाकाफ़ी हैं. मुझे तब तक काम करना होगा, जब तक मैं एक निश्चिन्त नींद ले पाऊं.
0 Comments