मेरा नाम लकी है

by | Jul 21, 2020

वो कहते थे उन्होंने मुझे काल नदी से आयी मिट्टी से बनाया था। जब पहली बार मैंने उन्हें देखा, मुझे लगा वही मेरे पिता है। मगर जब उन्होंने मुझे मेरी माँ, काल के बारे में बताया तब मालूम हुआ की वे मेरे चाचा हैं| पिता के बारे में वे भी नहीं जानते थे। मैं अक्सर सोचता कि अगर वे चाचा हैं तो पिता से ज़रूर मिले होंगे| ख़ैर अब मैंने इसके बारे में विचार करना छोड़ दिया था।

मेरे साथ और भी कई भाई-बहन थे जिन्हे चाचा ने बनाया था। हमारे कोई नाम नहीं थे। हम एक दूजे को भाई या बेहन कहकर ही पुकारते थे और चाचा प्यार से बेटा या बेटी कहते थे। हमारे में नामकरण बिकने के बाद होता है। ऐसा मैंने सुना था जब कुछ भाई बेहन अपने में बात कर रहे थे। मन में जिज्ञासा तो हुई उनसे पूछ लूँ , मगर मैं चुप रहा। चाचा हमेशा एक बात कहते थे – हम सब का कोई न कोई मकसद है। लेकिन मैं इसे कभी समझ नहीं पाया और यह आज भी एक सवाल बना हुआ है।

चाचा हर रविवार को हमे माणगांव के मेले में ले जाते थे। हम सब उस दिन का इंतज़ार करते। वे हमें नहला-धुलाकर तैयार करते थे और अपने चार-पहिये वाली गाड़ी में बिठाकर मेले तक ले जाते थे। हम सब हमेशा एक ही जगह जाकर रुकते। शायद उस चकाचौंध में एक ही जगह थी जो हमे अपनी सी लगती थी। ठीक सुरेखा रेस्टोरेंट के आगे। हम सब वही बैठे, लोगों को आते जाते देखते और खुश होते। कोई हमे देखकर आगे बढ़ जाता, कोई कुछ रुकता और चाचा से भाव करने लगता। तभी हम सबकी धड़कन थमी रह जाती थी। यूँ तो सुबह से पता होता था कि शाम को लौटते वक्त हम गिनती में कम होंगे। जिस रविवार हमारी गिनती कम नहीं होती, चाचा बड़े उदास से हो जाते। लेकिन धड़कन थमने की वजह यह थी कि आज अगर उन्हें कोई ख़रीदार ले गया तो उन्हें भी एक नाम मिलेगा। मुझे तो यहीं लगता था।

एक साल पहले की बात है। उस रविवार भी हम हमेशा की तरह मेले में लोगों को आते जाते देख रहे थे। मेरी नज़र एक छोटे लड़के पर पड़ी जो मुझे ताक रहा था। वह अपनी माँ का हाथ थामे हुआ था जो पास वाली दुकान से कुछ सामान खरीद रही थी। जब सामान लेकर उसकी माँ दूसरे रास्ते चलने लगी, उसने एक हाथ से अपनी माँ का हाथ खींचा और दूसरे हाथ से मेरी ओर इशारा किया। उसके चेहरे पर धूप गिर रही थी और उसकी चमकीली भूरी आँखें मुझे निहार रहीं थीं।

“चाचा ये?” माँ ने मेरी तरफ उंगली दिखाकर पूछा। चाचा ने मुझे उठा कर उनके हाथों में रखते हुए कहा “आप पहले देख लीजिए, पसंद आए तो भाव कर लेंगे”

“इसे तो पसंद ही है , इसीलिए तो मुझे आपके ठेले तक खींच लाया है। दो दिन से ज़िद्द कर रहा है कि गुल्लक चाहिए। क्यों सोनू यही वाला चाहिए न?”

सोनू! मुझे मेरा नाम देने वाले का नाम सुनकर अलग सी ही ख़ुशी हुई थी। सोनू ने कुछ नहीं कहा, बस अपना सर हिलाया और मुझे अपनी गोद में उठा लिया। वहां से मैं अपने भाई बेहन और चाचा को देखता रहा। माँ ने कुछ पैसे चाचा को दिए और हम तीनों गॉंव की ओर चलने लगे। 

घर तक का रास्ता लम्बा था। मोरबा तक तो हम रिक्शा में आए। रिक्शा में वह मेरा पहला और आख़िरी सफर था। वहां से हम चलते हुए देहगांव आए। देहगांव एक पहाड़ी पर स्थित एक छोटा सा क़स्बा है। चारों तरफ हरियाली से भरे पहाड़ और बीच में घरों का झुंड। इतना सुन्दर नज़ारा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। घर पहुँचते ही सोनू ने मुझे टेबल के कोने में एक खाली जगह पर बिठा दिया। मानो वह जगह पहले से ही मेरे लिए तय कर रखी थी। 

“अरे वाह! ले आए तुम अपना गुल्लक” सोनू के पापा ने कहा। सोनू मुस्कुराया, थोड़ा शरमाया और फिर कहा, “लकी! इसका नाम लकी है। अब देखना मैं ढ़ेर सारे पैसे इक्कठा करूँगा और अपने लिए क्रिकेट बैट खरीदूंगा”

लकी! मेरा नाम लकी है। सोनू के एक वाक्य से मुझे अपना नाम और मक़सद मिल गया था। 

टेबल के उस कोने से मुझे पूरा घर दिखता था।  अंदर आने का दरवाज़ा – जहाँ से मुझे घर में आते जाते हर व्यक्ति का पता चलता रहता। एक तरफ चूल्हा बना हुआ था – जब भी माँ खाना बनाती पूरे घर में मसालों की महक फैल जाती। सामने एक बिछोना पड़ा रहता जिसे सोनू के पापा या सोनू रात में सोते वक़्त बिछाते। दूसरी तरफ गुसलखाने का रास्ता था – मुझे वहां ज़्यादा कुछ नज़र नहीं आता था सिवाए दिन में जब गुसलखाने के बाहर लगे शीशे से धूप टकरा कर सामने वाली दीवार को दीपित करती थी। 

सोनू हर रोज़ माँ से कुछ सिक्के मांगता और मुझमें डाल देता। जब सोनू के पापा घर पर होते तो उनसे भी कुछ सिक्के मांग लेता। सोनू के पापा अक्सर महीनों तक घर से दूर रहते। वह एक इट की भट्ठी पर काम करते थे। दिवाली के अगले दिन ही वह चले गए थे। उस समय सोनू और माँ ही घर पर रहते थे। सोनू अपने पापा को बहुत याद करता था। जिस दिन पड़ोस की सावित्री मौसी के बेटे के फ़ोन से सोनू और माँ सोनू के पापा से बात करते उस दिन खाने में महक, उन दोनों के चेहरों पर मुस्कान और मुझमे सिक्के कुछ ज़्यादा मालूम होते। 

होली पर जब सोनू के पापा लौटे तो माँ ने पूड़ियाँ बनायीं थी। सब बहुत खुश थे। सोनू भी चहक रहा था ख़ास कर क्योंकि उसका जन्मदिन नज़दीक आ रहा था। मुझमें इक्कठा किए पैसों से वह आखिर अपनी बैट ख़रीद पाएगा।

अचानक एक हफ्ते बाद गांव में बात चली कि कोई बिमारी फैली है। सावित्री मौसी के बेटे ने रेडियो ऑन किया। 
“कल से लेकर अगले २१ दिन तक लॉकडाउन रहेगा।” 
लॉकडाउन क्या मतलब? 
लोगों ने बताया ये बिमारी तेज़ी से फैलती है – हवा और एक दूसरे को छूने से। इस दौरान सारे व्यवसायबंद रहेंगे। लोगों के बाहर जाने पर रोक है। सभी को घर पर रहना है और साबुन से बार-बार हाथ धोने हैं।

उस वक्त कुछ देर के लिए सोनू खुश था कि अब उसके पापा घर पर ही रहेंगे मगर इसी वजह से सोनू के पापा और माँ परेशान भी थे। २१ दिन के ख़र्च के लिए तो पैसे काफ़ी थे मगर उनकी परेशानी तब बढ़ी जब एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे लॉकडाउन की घोषणा होती गई। अगर सोनू के पापा ईंट भट्ठी पर नहीं जाएं तो उन्हें पैसे नहीं मिलेंगे| कोई भी सामान, राशन और खाना ख़रीदने में मुश्किल होगी।

सोनू के पापा ने एक वक्त के लिए मुझे तोड़ने का सोच लिया था। सोनू उस दिन बड़ा मायूस था और इस बीमारी को कोस रहा था। उसके चेहरे पर पापा के घर रहने की मुस्कान हर महीने कम होती रही थी और उस दिन कहीं गायब सी हो गयी थी।

मेरा नाम लकी, क्या सही नाम था? मेरा मकसद क्या बदल गया था?

तभी खबर आई कि सरकार ने दो महीने का राशन निशुल्क देने कि घोषणा की है। यूँ तो राशन मिलने में काफी वक्त लग गया था मगर मैं टूटने से बच गया था। जून का महीना आने को था। जून की दूसरी तारीख़ को सोनू का जन्मदिन होता है। मई के आख़री दिन मौसम बदल गया था मानो सारे बादल सोनू का जन्मदिन मनाने देहगांव आ रहे हो। भीनी-भीनी मिट्टी की महक मुझ तक भी आ रही थी। मुझे उस दिन चाचा की बहुत याद आई। 

मगर ये क्या? बादल के साथ बारिश और तेज़ हवा भी चलती आई। ये बिन बुलाई हवाओं की खबर भी गांव में फ़ैल गई थी। दरअसल ये निसर्ग चक्रवात था जो अलीबॉग के रास्ते हमारे गांव में आ चला था। हवाएं तेज़ होती गई और गांव के घरों की हलकी छतें एक-एक कर उड़कर यहाँ-वहाँ गिरने लगी थीं। जब सावित्री मौसी के घर की छत गिरी तो सोनू के पापा, माँ और सोनू सभी घर से बाहर चले गए। मैं टेबल पर अकेला रह गया।  

अचानक हमारे घर की छत भी गिरी। जब मुझे होश आया तो मुझे आसमान दिख रहा था। ठीक वैसा, जैसा मैं चाचा के घर पर से देखता था। चूल्हा नहीं जल रहा था। बिछोना गीला पड़ा था। गुसलखाने के शीशे से कोई रौशनी नहीं आ रही थी। शायद वह वहां था ही नहीं। मेरे सामने सोनू खड़ा था। उसकी आँखें नम थी। उसके हाथ में मेरे कुछ टूटे हिस्से थे। बाकी कुछ हिस्सों और सिक्कों के साथ मैं ज़मीन पर बिखरा पड़ा था। 

माँ ने घर की और चीज़ो के साथ मुझे भी समेटा और सोनू के पापा ने सारे सिक्कों को अपने एक एक झोले में डाल लिया। अभी मैं गुसलखाने के दरवाज़े के पीछे पड़ा हुआ हूँ। मेरे टुकड़ो के साथ शीशे के कुछ टुकड़े भी यही पड़े है। सोनू आया था। कह रहा था कि पापा तारपोलिन की चादर लाए है। उसी से छत को ढका है।

चाचा हमेशा एक बात कहते थे – हम सब का कोई न कोई मकसद है। मेरा नाम लकी है।

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