देश के अलग-अलग राज्यों में बहुत से आदिवासी समुदाय है, जो आज भी जंगल में रहते है. २०वी सदी से अपनी जमीन अपने नाम पर होने के लिए वे सालों से सरकार के साथ संघर्ष कर रहे हैं. जंगल जमीन यह आदिवासी समुदाय का सबसे बड़ा मुद्दा रहा है.
यह संघर्ष क्यों ?
देश की तरह ही राजस्थान के उदयपुर में कोटडा तहसील में भी आदिवासी समुदाय है. यहा पर जंगल, जमीन के लिए सबसे बड़ी लड़ाई है. कोटडा में आदिवासी समुदाय के रूपजी* को भी यही समस्या थी. रूपजी कोटडा के मालदरखुर्द गाँव के रहने वाले है. इनके पिताजी के ज़माने से ही अपनी ही जमीन पर खुद का हक जताने के लिए उन्हें सालों तक सरकारी दफ्तरों में चक्कर काटने पड़े. जिस जगह जन्म हुआ उसी जगह खुद का अधिकार नहीं था. रूपजी के पिताजी को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ा.

इस बारे में रूपजी कहते है की फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से लोग आकर इन्हें परेशान किया करते थे. फसले खराब कर देते या घर को तहस नहस कर देते थे. फसल ख़राब करने के लिए वनविभाग के समूह खेतो में जाकर लाठियों से फसल का नुकसान किया करते थे, किसान की झोपडी तोड़ देते थे. इसके साथ ही किसानों पर जुर्माना लगाकर उनसे पैसे मांगते थे.
एक दिन गोगुन्दा तहसील से मेघराज तावड जी जो 1990 के दौरान गोगुन्दा विधानसभा के MLA रहा करते थे. उन्होंने आदिवासियों का जंगल-जमीन का मुद्दा लेकर चुनाव लड़ा था. मेघराज जी ने आस्था संस्थान के साथ मिलकर आदिवासियो से चर्चा की और उन्हें समझाया:
” यह जमीन आपकी है, इसे कभी मत छोड़ना. इसपे आपका हक है.”
जंगल भी अपना और जमीन भी अपनी, मेघराज जी के इस वाक्य को साथ लेकर रूपजी जी और आदिवासियों ने फ़ॉरेस्ट ऑफिसर के सामने हार नहीं मानी, खुद को हक दिलाने के लिए लड़ते रहे. मेघराज जी ने रूपजी को और बाकी आदिवासियों को लाल झंडे दिए और घर के बहार लगाने को कहा. लाल झंडा याने की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य. वनविभाग के लोग कम्युनिस्ट पार्टी सदस्य के लोगों से बचकर रहते थे. उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी की कनेक्शन दिल्ली में अच्छे थे. अगर इन्हें कुछ करेंगे तो मामला दिल्ली तक जा सकता है – यह सोचकर वनविभाग लाल झंडा देखकर आदिवासियों से बचकर रहा करते थे|.
इसके बाद फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के लोगों का किसानों को परेशान करना कुछ हद तक कम हो गया था. गाँव के लोग और रूपजी इस लाल झंडे का फंडा समझ गए थे. पर अभी भी आदिवासियों की तकलीफ़ कम नहीं हुई थी.
कुछ दिनों बाद आदिवासियों की मुलाकात भंवर सिंह, आर डी जी और मानसिंह जी से हुई जिन्होंने जमीन नाम पर कराने के बारे में सभी आदिवासियों से बात की थी. इस बात के लिए यह तीनो व्यक्ति हर आदिवासी के घर जाकर उन्हें यह जानकारी देकर एकजुट रहने के लिए उन्हें प्रेरित करने का काम करते थे. उन्हें उनकी हक की लड़ाई लड़ने के लिए कहा करते थे. कुछ दिनों में सभी आदिवासियों को फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट से होने वाली परेशानिया कम हो गई थी जिसमे आदिवासी एकजुट रहना समझ गए थे.
फिर भंवर जी और 2 व्यक्तियों ने रूपजी को समझाया के हमे एकजुट रहकर ही काम करना होगा. इन्ही आदिवासियों को साथ लेकर कोटडा में आस्था संस्थान शुरु की गई. संस्थान का नाम आदिवासियों के चर्चा सत्र में सामने आया. किसानों को धीरे-धीरे अपनी आस-पास के मुद्दों के बारेमे समझ आया जैसे शहर से हर साल व्यापारी आ कर जंगल से खजूर के पेड़ से उसके पत्ते तोडकर ले जाया करते थे. एक दिन किसी किसान ने यह ले जाने से मना कर दिया और कहा आप इसे फ्री में नही ले जा सकते हो यह हमारा जंगल है। यह मुद्दा तेंदू पत्ता को लेकर भी था पर उसे बेचने के बाद पैसे मिल जाते थे जिसका दाम 3.5 रुपए था जिसे आदिवासियों ने वनविभाग और व्यापारियों से लडकर 13.5 रुपए तक बढ़ाया.
व्यापारियों वापस जाकर कलेक्टर से आदिवासियों की शिकायत की तब आदिवासी किसानों को और आस्था संस्थान के संस्थापक को बुलाया गया उस दिन आदिवासियों की और सरकार की बहस हुई. तब ओमजी (आस्था संस्थान के संस्थापक) ने कलेक्टर से बात करते हुए कहा आदिवासी के खेत में पेड़ है वह उसका है, चाहे वो खजूर का हो या तेन्दु पत्ता उसका दाम किसान को मिलना चाहिए इसीके साथ जंगल में बढ़ रहा हर एक पेड़ यह आदिवासियों का ही है.
इस बात से आदिवासियों में जागरूकता निर्माण हुई. 2006 में राजस्थान में वनाधिकार कानून लागू हुआ. यह कानून वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारम्परिक वनवासी जो पीढियों से ऐसे जंगलो में निवास कर रहे है, उनको वन भूमि पर उनके वन अधिकारों को मान्यता देता है. इस कानून के सहयोग से देश में कुछ आदिवासियों को अपनी जंगल जमीन पर हक मिलने के लिए सहायता मिली.
पर यह कानून लागू होने के बाद भी कोटडा में आदिवासियों को कुछ सहयोग नहीं मिला इस बात को समझकर आस्था संस्थान ने आदिवासियों को हक दिलाने के लिए उदयपुर जिला कमिश्नर ऑफिस के सामने आंदोलन शुरू किया. यह आंदोलन 4 दिन तक चला. आंदोलन में 4000 व्यक्तियों के वनाधिकार के लिए दावे किए गए थे. 4 दिन बाद कमिश्नर ने यह दावे स्वीकार कर फ़ॉरेस्ट ऑफिसर के पास दिए और एक साल में जनता को दावे देने का वादा किया साथ ही साथ यह कहा गया की जमीन का GPS करने के लिए लोग आपके घर आना अभी शुरू हो जाएंगे.

GPS यानी Global Positioning System जो नौवहन उपग्रह प्रणाली है. यह उपग्रह satellite के नेटवर्क पर कार्य करता है इसके माध्यम से आदिवासियों की जमीन पर वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमिहीन स्वदेशी लोगों के लिए वन ‘पट्टा’ (Land Rights) के सिमांकन के लिए यह GPS किया जाता है. जिससे किसान के जमीन का एक नक्शा भी तैयार होता है.
यह GPS करने के लिए रूपजी के गाँव मालदर खुर्द में 9 आदिवासी व्यक्तियों के नाम चुने गए। पर रूपजी ने कलेक्टर से बात कर कहा इस गाँव से 40 आदिवासियों ने वनअधिकार के दावे जमा किए है इनमे से सिर्फ 9 आदिवासियों के यह GPS क्यों होगी? अगर GPS करनी है तो सबकी साथमे करे इस मुद्दे पर रूपजी की कलेक्टर के साथ एक माह तक बहस चली। कलेक्टर के समझाने पर रूपजी मान गए और जब GPS जाँच के लिए अधिकारी खेत में आए तब रूपजी ने खुद अपने हाथों से GPS का काम किया.

GPS का काम होने के बाद आस्था संस्थान से रूपजी को सुचना मिली के आपको मिलन मेले में अपना पहचान पत्र लेकर आना है. उनको पट्टा दिया जाएगा. उस दिन रूपजी बहुत खुश थे. वनाधिकार मिलने के बाद रूपजी ने आज तक खेती करने का काम बंद नही किया. वे कहते है आज हमे फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट के कोई अधिकारी कभी परेशान नही करते. हमे अपना खेत छोडकर कही और काम करने की जरूरत नही पडती. पट्टा मिलने से पहले अगर फसल उगाते तो नुकसान होने का डर रहता था. अब किसी का डर नही रहता है.
रूपजी को पूरे 18 बीघा जमीन का दावा प्राप्त हुआ है. जिसमे सालों से चल रही उनकी लड़ाई में उन्हें जीत हासिल हुई है. पर कोटडा में आज और भी ऐसे अनेक आदिवासी व्यक्ति है, जिनकी लड़ाई सालों से चल रही है, आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भी हुई है पर उन्हें कोई सहयोग नही मिला. न ही अपने जमीन पर हक.
*Name changed to maintain confidentiality
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