अक्सर मैं अपने आसपास के लोगों को समाज और देश की कई समस्याओं जैसे बेरोज़गारी, अशिक्षा, लिंगभेद, आर्थिक असमानता और गरीबी इत्यादि के बारे में बातें करते सुनता हूँ. मुझे यकीन है कि आप भी यह सब सुनते होंगे. हर उम्र के लोग चाहे वह युवा, अधेड़ या बुज़ुर्ग हों, अपने गली, चौराहे, घर, कॉलेज या दफ्तर में होने वाली ऐसी चर्चाओं में हिस्सा लेते हैं और कुछ तो इन समस्याओं के समाधान का जिक्र इस तरह करते हैं जैसे यदि उन्हें मौका मिले तो इन गंभीर समस्याओं को चंद घंटों या दिनों में सुलझा देंगे. ऐसी चर्चाओं में शामिल ज़्यादातर लोगों के ज्ञान, अवधारणा एवं तर्क का आधार टीआरपी के लिए चटपटी एवं मसालेदार खबरें बनाने वाली मीडिया या फिर अर्थहीन सिनेमा के काल्पनिक किरदार होते हैं.
मेरा मानना है कि किसी भी समस्या के पूर्ण निदान के लिए उसके कारणों को गहराई से समझना आवश्यक है. सतही ज्ञान के आधार पर तथा समाज और देश की जटिलताओं को समझे बिना सरकार व प्रशासन पर दोष मढ़ देने से हम क्षणिक समय के लिए तो संतुष्ट हो सकते हैं पर लंबे समय में यह तकलीफ देह एवं बेअसर ही होगा. यह लेख मैंने अपने प्रारंभिक अनुभवों को आपके साथ साझा करने के लिए लिखा है जिसे मैं एक युवा सामाजिक नेतृत्व प्रशिक्षण कार्यक्रम, “इंडिया फेलोशिप” में अनुभव कर रहा हूं.
उदयपुर शहर के अपने प्रशिक्षण केंद्र से लगभग 50 किलोमीटर दूर अवस्थित एक गांव दादिया का मैंने पिछले दिनों में दौरा किया जो कि हमारे प्रारंभिक प्रशिक्षण यानी इंडक्शन ट्रेनिंग का हिस्सा था. गांव की साफ सफाई एवं सुदृढ़ बुनियादी ढांचे, जैसे गुणवत्तायुक्त पक्का सड़क, अटल सेवा केंद्र, सामुदायिक भवन, उप स्वास्थ्य केंद्र, आंगनवाड़ी, उच्च माध्यमिक विद्यालय, पानी व बिजली की 20 घंटे से अधिक की उपलब्धता, इत्यादि को देखकर मेरे मन में बरसों से पल रही गांव की धारणाएं चकनाचूर हो गयी. वहां की भौगोलिक परिवेश तथा प्राकृतिक सुंदरता ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया. चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा अनगिनत पेड़ पौधों से भरा हुआ वह गांव किसी को भी आसानी से अपनी तरफ आकर्षित कर लेगा.
मैंने पंचायत के उप सरपंच शंकरलाल, सेवा केंद्र के सुरक्षा गार्ड चुन्नीलाल तथा कई ग्रामीणों से मिलकर गांव की व्यवस्था एवं विकास की जानकारी ली. गांव के बारे में समझने के लिए वहां के आंगनवाड़ी केंद्र एवं विद्यालय का भी दौरा किया. हर किसी ने हमारा बहुत ही खुले दिल से स्वागत किया तथा हमें गांव की स्थिति एवं आंकड़े भी बताये, जैसे बच्चों की स्कूल में उपस्थिति, उतीर्ण होने की संख्या, शिशु मृत्यु दर, इत्यादि. लोगों से मिलने के लिए हम खेतों, पहाड़ों व उनके घरों मे गएं.
वैसे तो उस दिन का हर एक पल यादगार एवं उत्साहवर्धक है, पर उनमें जो सबसे बेहतरीन था वह था दो किशोर गड़ेरियों से मिलना. सड़क किनारे पहाड़ियों से घिरा एक बहुत बड़ा एवं सुनसान मैदान था जिसमें लगभग 500 मीटर की दूरी पर ढेरों लोग भेड़ बकरियाँ चरा रहे थे. मेरा ध्यान उस तरफ और आकर्षित हो गया जब मैंने उस झुंड में दो किशोर लड़कों को देखा जो अपने रेवड़ संभालने में लगे थे. मैं उन लड़कों से बात करने के लिए चिलचिलाती कड़क धूप में उनसे मिलने मैदान तक जा पहुंचा. उनसे बातचीत शुरू करने के लिए उनका नाम पूछा. शीघ्र ही मैं यह जान गया कि वे स्कूल जाने वाली किशोर थे जो कभी-कभी इस काम में अपने पिता की मदद किया करते थे. इससे उनके परिवार को आर्थिक सहायता मिलती थी. जब उन बच्चों से मैंने शिक्षा संबंधी कुछ सवाल किए, तब मुझे यह एहसास हुआ कि यह असीमित क्षमताओं से भरे हुए वे लोग हैं जिन्हें हम अपने “देश का भविष्य” कहते हैं. पर उनके आर्थिक हालात एवं उस क्षेत्र में शिक्षा एवं रोजगार के अवसरों की कमी को देख कर मुझे लगा कि देश के अन्य लाखों करोड़ों बच्चों की तरह ये भी कहीं चुनौतियों के सामने घुटने न टेक दें. यह भी उन 8 करोड़ बच्चों में एक न बन जायें जो स्कूली शिक्षा से महरूम हैं, वह लाखों बच्चे जो प्राथमिक विद्यालय में ही ड्रॉप आउट हो जाते हैं, जो सड़क किनारे ढ़ाबों एवं होटलों में बाल-मजदूरी करते हैं.
मेरी बातों को वो बहुत उत्सुकता से सुन रहे थे एवं उनकी आंखों में एक अलग सी चमक थी. मैं भी मैदान में बैठकर उनसे बात करता रहा, कभी सवालों तो कभी कहानियों के जरिये. मैं उनकी समस्याओं को गहराई से समझने की कोशिश कर रहा था तथा उनकी स्थितियों की कल्पना कर रहा था. मैं जानता था कि उनसे शायद फिर कभी नहीं मिलूंगा और एक ही मुलाकात में मैं उन्हें अपना सारा ज्ञान दे देना चाहता था ताकि वह अपनी क्षमताओं का दोहन कर सके, जीवन में ऊंचे मुकाम हासिल कर सकें, देश के विकास में योगदान दे सकें व उन संसाधन को पा सके जिसके वह हकदार हैं.
मेरे पास समय कम था क्योंकि मुझे शहर लौटना था. उनसे विदा लेते हुए मैंने यह उम्मीद की कि शायद इस मुलाकात और बातचीत में मेरे द्वारा बताए गए प्रेरणा के दो शब्द उन्हें जीवन की चुनौतियों से लड़ने में मदद करे. मैं जानता हूं कि चंद लम्हों की इस मुलाकात और गांव के दौरे से मैं उन बच्चों या गांव की परिस्थितियों से भलीभांति वाकिफ नहीं हो सकता पर मुझे उम्मीद है कि अगले 13 महीने की इस फेलोशिप के दौरान मैं देश के सुदूर इलाकों की सामाजिक जटिलताओं को गहराई से समझ पाऊंगा. तब मेरे लिए समझाना और उसके समाधान के लिये कोशिश करना ज़्यादा आसान व असरदार होगा.
I definitely enjoyed listening to the 1st draft narration as much as i enjoyed reading the blog. Good to see that you are able to connect insights and observations. Over your next blogs, will look forward to hearing how your perceptions of rural India and development are shifting based on field experience. Also the audio blog of course is awaited!