किरन आदिवासी* खमरी गांव में रहती हैं| वह यहाँ की बहू हैं। उन्हें बचपन से ही पढ़ लिख कर कोई अच्छी नौकरी करने का मन था। लेकिन उनके पिताजी बच्चियों को पढानें की जगह उनकी शादी करके ज़िम्मेदारीयों से मुक्त होना चाहते थे। इन्ही कारणों के चलतेकिरन की आगे पढ़ाई नहीं हो पाई, पर उनके आगे बढ़ने का जुनून ख़त्म नहीं हुआ। वह जन्मजात एक आंख और एक पैर से दिवयांग है जिस वजह से ससुराल में उन्हें ज़्यादा लोग पसंद नहीं करते हैं| गाँव की महिलायें उसे ताने मरने में कोई कमी नहीं छोड़ती हैं। पिताजी के घर से लेकर आज तक का सफर किरन ने बहुत सी समस्याओँ के साथ गुज़ारा है। इन्सान के शरीर में कमियाँ हो सकती हैं लेकिन उनके इरादे अगर बुलन्द हो तो अच्छाई कभी छिपती नहीं है।
प्रोजेक्ट कोशिका बुंदेलखंड मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में आदिवासी बाहुल्य गांवों में महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ पर काम कर रहा है। इसी टीम में ग्राम स्वास्थ संचलिका के रूप मेंकिरन का चयन हुआ था। वो बताती है, “कोशिका में काम करने से पहले मैं गांव में बच्चों को पढ़ाती थी। लेकिन गांव के लोगों ने मुझे बहुत परेशान किया तो मैंने काम छोड़ दिया पर काम छोड़ कर मैं खुश नहीं थी। मुझे गांव के और स्वयं के लिये कुछ करना था।’’
लोगों को नापसंद होते हुए भीकिरन ने अपने गांव के लोगों की मदद करना नही छोड़ी। ये गांव घने जंगलों में बसे हैं जहाँ सुविधाओं का आभाव है| इन गाँवो में छोटी-छोटी बीमारी की वजह से लोगों की मौत हो जाती है। कच्चे रास्ते इतने खराब है कि यंहा एम्बुलेंस वाले आने से इन्कार कर देते हैं| उन्हें डर लगा रहता है कि अगर गाड़ी फंस गई तो इस वीरान जंगल में क्या होगा| ऐसी कठिन परिस्थितियों में प्रोजेक्ट कोशिका ने गांव में आरोग्य केंद्र स्थापित किये है और खमरी केंद्र को संचालित करने कीज़िम्मेदारीकिरन की है।
लोगों को आम सर्दी, खाँसी, बुखार, पेट दर्द, उलटी की दवाई अब आसानी से गांव में ही मिल जाती है। महिलाओं और बच्चों के स्वास्थय में उनकी मदद की जाती है। इतना सब करने के बाद भी किरन के लिए चुनौतियां कम नहीं हुई हैं।
वह बताती है, “मैं एक गर्भवती महिला को डिलीवरी के लिए पास वाले ब्लॉक के अस्पताल लेकर गई थी। बच्चा होने के बाद जब मैं सुबह लौट रही थी, उसी दौरान मेरा एक्सीडेंट हुआ| उस समय मैं भी सात माह की गर्भवती थी। मुझे ऊपरी चोटें आईं थी और एक पूरे दिन कोई होश नहीं था। अगले दिन डॉक्टर ने सोनोग्राफी जाँच देखकर बताया कि बच्चा ठीक है। उस दुर्घटना में मैं जिनके साथ गाड़ी पर बैठकर घर आ रही थी, उनकी मृत्यु हो गई और पूरे गांव ने मेरी दिवयांगता को उनकी मृत्यु का दोषी बना दिया। इस घटना को एक साल से अधिक हो गया है और मुझे आज तक दो पहिया गाड़ी पर बैठने से डर लगता है। पहले मैं महिलाओं के साथ किसी भी समय अस्पताल जाने के लिए तैयार रहती थी लेकिन उस दुर्घटना के बाद से मैंने आना-जाना थोड़ा कम कर दिया है।’’
इतना सब हो जाने के बाद भी जब लोगों नेकिरन से मदद मांगी तो उसने सब कुछ भुला कर लोगों की परेशानियों को समझा| जो उसे दोषी मान कर उसका मुँह नहीं देखना चाहते थे, ज़रूरत पड़ने पर वो ही उनके काम आयी। जिन बच्चों के जन्म घर पर हुए, उनके जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के लिए आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से ज़्यादा महिलाएंकिरन पर विश्वास करती हैं| वैसे तो यह एक सरकारी प्रक्रिया है लेकिन क्योंकि सचिव व ग्राम सहायक गांव से काफी दूर शहरी इलाकों में रहते हैं व कभी-कभार पंचायत के काम से ही आते हैं, किरन उनसे फोन पर बात करके गांव के बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र बनवाने में सबकी मदद करती है।
“मुझे सहायक साहब ने बताया कि ब्लॉक में किसी भी एम. पी. ऑनलाइन की दुकान से एक 5 रुपए का फॉर्म खरीद कर, उसे भर के, आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता के हस्ताक्षर करा कर उस फॉर्म का एक फोटो उन्हें भेज देंगे तो वह आगे का काम करवा देंगे। ऐसा करने से धीरे-धीरे लगभग 7-8 बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र बन कर आ चुके हैं। अगर मेरे पास स्मार्ट फोन हो तो मैं गांव में बैठ कर ही सब के आधार कार्ड और जन्म प्रमाण पत्र बनवा सकती हूँ।”
ज़्यादा पुरानी बात नहीं है जब टोकियो ओलंपिक में दिवयांगों ने भी भारत के लिए मेडल्स जीते थे। उसमें महिलाओं ने भी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया हैदिवयांगता शरीर के अंगों में होती है, हौसलों में नहीं लेकिन फिर भी यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने हमेशा शरीर को ही अधिक महत्व दिया है। किरन भले ही ओलंपिक न खेले, हो सकता है कि उसे ओलंपिक के बारे में पता भी न हो लेकिन काम तो उसका भी किसी से कम नहीं है।
वह न सिर्फ अपना बल्कि ग्राम सहायक और आंगनवाड़ी का काम भी बड़ी आसानी से कर रही है। उसके पास कोई पद नहीं है लेकिन अपने गांव के लोगों को सहयोग करने की इक्छा शक्ति है।
*Name changed to maintain confidentiality
Featured photo credit : Prashant Tripathi, a Koshika team member
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