यार प्रेमचंद और दोहरी वास्तविकता

by | Nov 26, 2018

"प्रेमचंद मुझे दो आँख नहीं भाता!"
"क्यों जनाब, यूँ तो पिछले कुछ दिनों से आप उनकी ही किताब और किरदारों में लीन हैं"

यों तो है, पर कोई व्यक्ति सच बोले भाता है, कटु सच बोले तो और भी भला पर अगर लेखक आईना लेकर आपके सामने ही खड़ा हो जाए तो हज़म नहीं होता| अरे दूसरों की सच्चाई सुनना मज़ेदार है पर कोई लेखक अपने किरदारों से आप पर कटाक्ष करे, तो ये हद है, कलम का दुरुपयोग है| मैं तो मानता हूं कि इतनी स्वीकृति बीसवी शताब्दी में लाना बमुश्किल है| भाई मंटो भी आपको अपनी परछाई के इतने करीब नहीं लाता था|

मित्रों और प्रियजनों, मैं पिछले कुछ दिनों से ‘कर्मभूमि’ पढ़ रहा था| हाँ प्रेमचंद जी ने ही लिखी है ये उपन्यास| (“लिखी है”, कितना अजीब है न कि अक्सर शक्तिपूर्ण विचारों को स्त्रीलिंग में लिखा जाता है)| यकीन मानिए ये ब्रैकेट में लिखी गई बात मैंने कही पढ़ी नहीं है, अनुमान बस है| धर्म निरपेक्षता और लैंगिक समानता से सांत्वना, थोड़ी वाह वाह और कुछ चंद लाइक्स के लिए लिख दिया| बुरा मत मानिए, दुनिया ऐसा करती है और मैं तो अभी नौजवान हूँ, मुझे इन सबकी और पैसों की अभी सख्त ज़रूरत है| ये भी सिर्फ मेरे विचार नहीं हैं| मेरे कईयों शिक्षक, रिश्तेदार और दोस्तों के भी यही विचार होंगे और मैं तो उन्हें गलत नहीं मानता| भाई बहुत दुनिया देखी है उन्होनें भी| सिर्फ किसी आदर्शवादी लेखक की बातो से दुनिया नहीं चल सकती ना, और भाई वेशभूषा तो इंसानों की परत है, स्टाइल स्टेटमेंट है जिसके बिना हम निर्लज हैं लेकिन आम तौर पर इन्हें आँखे चड़ा कर ही देखा जाता है|

अब पिछले कुछ दिनों पहले मैं और मेरे प्रिय मित्र तापस इस पर विचार कर रहे थे कि जैसे ही ये फकीरी के मोह माया से थोड़ा दूर जाओ, कुछ बर्गर कोक और थोड़ी बीयर चखो, ये पंडित प्रेमचंद जी विचारों में, बातो में या कहानी-किरदारो में किसी सरकारी शिक्षक की तरह छड़ी लिए नजर आते हैं| इनसे तो मानो खुशी देखी नहीं जाती और बुद्धिजीवी लोगों से पता नहीं क्या दुश्मनी पाल रखी है| पंडितजी ने बचपन से सिखाया है कि सब कर्मों का फल है और हाँ इतनी मोटी किताबें पढ़ी हैं तो थोड़ा सुकून पाने का औरों से अधिक अधिकार भी है|

स्कूल और कालेजों ने कुछ दिया हो या ना, देख कर अनदेखा करने का हुनर ख़ूब सिखाया है|

धनपत रायजी अगर आज ज़िन्दा होते तो आपको भी फेसबुक पर लाइव आने का मन करता| हाँ भाई वैलिडेशन भी कोई चीज़ है, आपके ज़माने में थी या नही, पता नहीं| और थोड़ा चैन-ओ-सुकून किसे नहीं पसंद – एक मखमली बिस्तर, एक ठंडी बोतल के लिए फ्रिज, एक विदेशी कुत्ता, सुकून से रहने और तेज़ धूप व ठंड से बचने के लिए छत| किताबें भी तो कितनी महेंगी हैं, मुफ्त में कोई पढ़ने कहाँ देता है| कभी-कभार अच्छा खाना जो महीनों नहीं चखा, वो खाना भी ज़रूरी है| अब दुनिया इतनी बड़ी है तो थोड़ा विदेश दर्शन भी चाहिए| कलम भी अब सस्ती नहीं रही, एक लेटेस्ट फटाफटी चलने वाला फ़ोन और थोड़ा सा, बस थोडा सा शौकिया सामान, इतना ही चाहिए| संपत्ति मिलने पर सब एक साथ कर लूंगा, उसके बाद भले ही आपसे नज़रे मिलाने के पहले कुछ दान धर्म कर लूं| फिर तो आप क्या दुनिया भी वाह-वाही करेगी| एक बार नाम रोशन कर लिया न तो बहुतों का भला कर दूँगा|

प्यार और स्नेह तो दोस्तों और घर वालों से मिल ही जाता है, रही बात आदर की तो कुछ चेहरों के पीछे छुपकर इस रंगीन दुनिया में वो भी मिल जाता है| इससे ज़्यादा आदर कमाना एक मामूली मध्यम वर्गीय के लिए मुश्किल हो सकता है| अमीरों के लिए तो कौड़ियों के भाव है, कभी भी खरीदा जा सकता है| आदमी अमीर हो या ग़रीब, कुछ मार्मिक आंसू और भावनात्मक ऊर्जा से भरपूर संवेदना कमाई जा सकती है|

अब आप फिर अपने काल्पनिक कहानियों और अनुभव की परते खुरेदेंगे और फिर हमें कड़वा घूंट पीना पड़ेगा| आपकी कहानियां ऊपर से देखी गयी हैं जिसमे सारे मोड़, सारे सच, निर्वस्त्र खड़े होते हैं पर मेरी आंखों के सामने तो कच्चे आइने हैं जहाँ आगे मोड़ पर कुछ दिखायी नहीं देता| मुझे कैसे पता लगेगा मेरी खुशी किस में है? अब अमरकांत और सुखदा, आपके दोनों ही किरदारों का अंत एक ही हुआ हो पर शुरुआत तो अलग थी, और मान लेते हैं उन्होने पैसों का लोभ छोड़ दिया था पर क्या वह अपने त्याग से सम्मान की अपेक्षा नहीं करते थे? क्या सम्मान की लालसा और पैसों की लालसा में फ़र्क किया जा सकता है?

यह सच है कि मैं आपसे नहीं पूछ सकता कि गरीब खुद के लिए क्यों नहीं खड़ा होता| पर सारे बुद्धिजीवीयों को सब छोड़ देने की ज़रूरत भी तो नहीं या आप मानते हैं कि ऐसे तो सारे बुद्धिजीवी अपनी दुर्बलता पर ही रोते रहेंगे? मेरे दर्जनों दोस्त आईटी कम्पनियों मैं नौकरी कर रहे हैं| मैंने तो उन्हें कभी दुखी नहीं देखा| हाँ घर, ऑफिस या गर्लफ्रेंड के लिए उदास देखा है पर उस उदासी, उस लड़ाई के लिए तो लोग उनका साथ देते हैं| फिर ग़रीब, शक्तिहीन के लिए लड़ने वाले अंतहीन अकेले क्यों रह जाते हैं? इसका क्या जवाब है? क्या ख़ुश रहना इतना बुरा है? और क्या ख़ुश रहने का मौका दिया जाए तो हर कोई उसे ही नहीं चुनेगा?

माना ख़ुशी के मायने कई हैं पर मेरा अंतरमन इस द्वंद से लड़ने से लड़खड़ाता है| कहानिया मार्गदर्शन हैं पर एक डोर भी, बाँध लेती हैं और घंटो विचार करने के लिए मस्तिष्क उड़ान भरने निकल जाता है| आपकी कहानियां पन्च्तत्व की तरह सीधी होतीं तो आखरी में सीख लेकर निकल लेते पर आपको कहाँ मज़ा आता बिना पाठक को चिराग दिए| आप तो चाहते हैं कि हम इस साहित्य के पहाड़ को खुरेदते रहें और इंतज़ार करें कि बाहर क्या निकलता है| वो सच होगा या भर एक कल्पना, यह भी विकल्पहीन है|

कभी-कभी तो यूँ लगता है कि बचपन में कार्टून नेटवर्क देखा होता तो भला होता, यूँ दूरदर्शन पर न ईदगाह देखते ना ऐसे विचार घर करते| वो कहानी टीवी पर आई और चली गयी पर अपने सवालों का गट्टा भूल गयी जिसे आज तक ढो रहे हैं…

(यह लेख मेरा चरित्र वर्णन है व मुझपर और मेरी इस सदी पर कटाक्ष| “कर्मभूमि” पड़ने के बाद स्याही बहती गयी और विचार आते गए| मैं प्रेमचंद या किसी और लेखक की छवि को किसी मायने में अहित नही करता या करना चाहता हूँ| धैर्य से पढ़ने के लिए धन्यवाद|)

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