बाएं से दाएं – उमेश, गांव के दो सदस्य, गुलाबी जी और मैं
जब मैं कानपुर से भदोही जाने के लिए निकला था तो मन में कई सवाल, ख्याल थे और उत्सुकता थी कि मैं जहां जा रहा हूँ वहाँ के लोग कैसे होंगे; क्या-क्या विविधताएँ होंगी| साथ ही इस बात की खुशी भी थी कि अब मुझे कुछ समय गाँव में बिताने को मिलेगा। अब तक मुझे श्रमिक भारती से जुड़े हुए लगभग 5 महीने हो गए हैं। मुझे कानपुर में अपने काम के दौरान वहाँ के लोगों को मिलने का ज़्यादा मौका नहीं मिला परंतु भदोही में तस्वीर अलग है। क्योंकि यहाँ मेरा अधिकतर काम गाँव के लोगों के साथ है, कम्यूनिटी के साथ है।
मैं जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूँ उसका नाम ग्राम समृद्धि परियोजना है और मुझे मुंशिलाटपुर (भदोही जिले का एक छोटा गाँव) की ज़िम्मेदारी मिली है। जैसा कि परियोजना के नाम से पता चल रहा है, इसमें गाँव के विकास के लिए किए जा रहे कई कार्यों के अहम पहलू शामिल हैं जैसे कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका इत्यादि| इसी कारण मुझे यहाँ कई प्रकार के लोगों एवं समुदाय से मिलने का मौका मिलता है।
मैंने सुना था कि गाँव मे देश बसता है पर अब महसूस कर रहा हूँ। अगर आपको अतुल्य भारत देखना है, जानना है, समझना है तो आपको देश के गाँवो में भी, वहाँ के लोगों के साथ कुछ समय बिताना होगा। मैं यहाँ अपने कुछ ऐसे ही अनुभव लिख रहा हूँ जो शायद आपको भी कभी किसी गाँव जाने के लिए प्रेरित करें।
भदोही आने पर मुझे पहले कुछ हफ्ते काफी जद्दोजहद करनी पड़ी थी – यहाँ के माहौल मे ढलने में, यहाँ के लोगों के साथ घुलने-मिलने में। शुरुआती 15 दिन मैं कार्यालय में ही रुका था और बात जब साथ रहने की हो, तो व्यक्तिगत तौर पर मुझे नए लोगों के साथ सामंजस बैठाने में थोड़ा समय लगता है। कुछ दिन यहाँ व्ययतीत करने के बाद मैंने ये अनुभव किया कि आप तेल की तरह बने रहकर पानी के साथ नहीं मिल सकते। तो मैंने अपने अंदर थोड़े बदलाव किए जो मेरे लिए काफी मददगार साबित हुए। यहाँ कुछ यादगार किस्सों के बारे में लिख रहा हूँ…
गांव में मेरा पहला डिनर
दिसम्बर की वो सर्द रात मेरे लिए यादगार लम्हों में से एक है। पिपरिस गाँव के एक परिवार से हमें रात के खाने का निमंत्रण मिला था। ऐसी जमाने वाली ठंड में मेरा जाने का मन तो नहीं था लेकिन मैं यह अनुभव छोड़ना नहीं चाहता था। मेरे भदोही टीम के दो सदस्य पहले ही वहाँ पहुच चुके थे। मैंने भी अपना मन बनाया, बाइक निकाली और चल पड़ा कुछ नया अनुभव समेटने। गाँव में रातें शहरों की तरह नहीं होती, किसी गगनचुंबी इमारत की रोशनी नहीं होती, गाड़ियों का शोर-शराबा नहीं होता| होता है तो बस शांत घोर अंधेरा, खेत में लगे फसलों की सनसनाहट, छोटे जीव-जन्तुओ की आवाजें। इतनी सर्द और कंपकपा देने वाली ठंड में गाँव के टूटे-फूटे रास्तों पर कूप अंधेरी रात में बाइक से चलना और हर 5 मिनट पर रुक कर फोन निकाल कर रास्ता ढूढ़ना – एक अलग ही अनुभव था मेरे लिए जो शायद मैं शब्दों में ठीक से नहीं बता पाऊँगा। मैं किसी तरह रास्ता ढूंढते हुए वहाँ पहुँचा, थोड़ी देर वहाँ जल रही आग के पास बैठा और फिर हम सब ने मिलकर खाना खाया। इतनी मशक्कत के बाद यदि खाने को गर्मागर्म स्वादिष्ट व लज़ीज़ मीट मिले तो भला यह अनुभव कौन याद नहीं रखेगा।
रास्ते गुझिया
छोटी बात, बड़ी बात
गाँव मुंशिलाटपुर में एक वृद्ध किसान हैं बेचू लाल, उनकी उम्र करीब 60-62 वर्ष होगी। उनका पहनावा भी काफी सरल है – ढीला कुर्ता और पायजामा। मैं उनको बेचू दादा बोलता हूँ और वो मुझे साहब कहकर बुलाते हैं। एक दिन मैंने उनको यूं ही बोला कि “दादा आप मुझे साहब मत बोलिए| मैं कोई साहब नहीं हूँ, बल्कि आप मुझे मेरे नाम से बुला सकते हैं”। उनका जबाब था “बेटा! साहब आप उनको बोलते हैं जिनकी आप इज्जत करते हैं| साहब का मतलब कोई अफसर या अधिकारी नहीं होता, यदि कोई भ्रष्ट अधिकारी सूट-बूट पहन ले तो वो साहब नहीं हो जाता। बल्कि साहब वो होता है जो अपने अच्छे कामों के लिए जाना जाता है, जिसका व्यवहार कुशल होता है, जो दूसरों की मदद करता है, उनकी इज्जत करता है।” उनका जबाब सुनकर मैं बस उनका चेहरा देख रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि गाँव में लोग चीजों को कितना सरल बना देते हैं, जटिलता उनको पसंद नहीं आती। उनके विचार काफी गहरे थे।
“आपका पहनावा आपके ज्ञान को नहीं दर्शाता”
मैं यहाँ महिला स्वयं सहायता समूहों के साथ भी काम कर रहा हूँ जिस कारण कई महिलाओं के साथ मेरा मिलना-जुलना होता है। ऐसी ही एक समूह की सदस्य हैं गुलाबी देवी, जो कि एक 50-55 वर्षीय वृद्ध महिला हैं परंतु उनकी ऊर्जा के सामने नव युवक फीके पड़ जाएंगे। उनके साथ बात करना एक लाजवाब अनुभव होता है। वह अपनी बातों एवं किस्से-कहानियों से हमारा मनोरंजन भी करती रहती हैं। हालांकि यहाँ की भाषा भोजपुरी है जो की बिहार की भोजपुरी से थोड़ी भिन्न है जिस कारण कभी-कभी मैं उनकी कुछ बातों को समझ नहीं पाता फिर वो मुझपर तंज कसती हैं “परदेसिया बाबू सब आ गइल बारन हाइजा”। एक दिन मैंने उनको धन्यवाद करते हुए कहा – “दादी आपलोगों के साथ मिलकर, बातें करना काफी अच्छा लगता है मुझे, ऐसा लगता ही नहीं कि मैं कहीं बाहर आया हुआ हूँ।” उन्होंने कहा मेरा एक बेटा है जो शहर मे रहकर नौकरी करता है। “आप लोगों को देखती हूँ तो उसकी याद आ जाती है। आप लोगों के आने से काफी अच्छा लगता है, ऐसा लगता है कि कुछ देर के लिए मेरा बेटा आ गया है।”

ऐसी बहुत सी छोटी कहानियाँ है जो मुझे यह एहसास दिलाती हैं कि चाहे हम क्षेत्रिय या भाषा या किसी और आधार पर कितने भी भिन्न हो परंतु किसी समुदाय के साथ कुछ समय बिताने पर हम एक दूसरे की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन ही जाते हैं|
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