मेरे गांव को आशा दीदी की आस है

by | Jun 1, 2021

बात​ मझोली गांव की है। पन्ना, मध्य प्रदेश की तहसील मुख्यालय अमानगंज से करीब 15 से 20 किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ है यह गांव। यह पन्ना जिले में स्थापित टाइगर रिज़र्व के अन्तर्गत आता है। आज तक इस गांव में आशा कार्यकर्ता की नियक्ति नहीं हुई है, जिस वजह से यहाँ के लोगो को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। गांव में आंगनवाडी केन्द्र तो है पर गांव की आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता गांव से 15 किलोमीटर दूर रहती है। जिस कारण से यहां के लोगों को बेसिक दवाइयों के लिये भी 15 से 20 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।

अगर रात के समय किसी की तबियत खराब हो जाती है तो वह भी बड़ी परेशानी बन जाती है। बुखार, सर्दी, खांसी, उल्टी जैसी छोटी -छोटी दिक्कतों के कारण यहाँ  कभी-कभी मृत्यु तक हो जाती है। आइये उनकी स्थिति को जानने की कोशिश करते है…

गायत्री – “मेरे बच्चे का नाम किशना था। मेरा किशना एक सप्ताह से अधिक का हो चुका था। रोज की तरह उस दिन भी मैंने उसे अच्छी तरह नहला कर सुला दिया था। लगभग एक घण्टे के बाद मैंने उसे दूध पिलाने के लिये गोद में लिया तो मुझे किशना थोड़ा गर्म लगा। मुझे उस समय समझ ही नहीं आया की बच्चे को बुखार है। 2 घण्टे बाद उसे बहुत तेज बुखार चढ़ गया था। कुछ समय बाद उसकी सांस फूलने लगी थी| मैंने उसे दूध पिलाया तो किशना ने उल्टी कर दी| मैं बहुत घबरा गई थी। घर में उस वक्त कोई नहीं था, सब लोग खेत गये हुये थे।”

मैने पड़ोस की दो तीन महिलाओं को बुलाया। मेरे एक रिश्तेदार ने करीब शाम 4 बजे एम्बुलेंस को फोन किया। बच्चे की साँस तेजी से फूल रही थी। सब ने मुझे कहा कि उसका मुँह सूख रहा है। 5:30 बजे मेरे बच्चे की मृत्यु हो चुकी थी। एम्बुलेंस करीब 6 बजे पहुंची थी। तब तक तो मेरा किशना मुझे हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया था।

अनीता – “मेरा बेटा धीरेन्द्र दो सप्ताह का हो चुका था| पिछले 4 दिनों से उसे बुखार था, उसकी दवाई​ भी चल रही थी लेकिन बुखार नहीं उतर रहा था| यहां गांव में कोई वाहन की सुविधा नहीं है, जैसे ही उजाला हुआ मेरे पति बच्चे को लेकर अमानगंज के डॉक्टर के पास गये। डॉक्टर ने दवाई देकर पन्ना जिला अस्पताल ले जाने के लिए बोला। मेरे पति बच्चे को लेकर गांव आये और उन्होंने लगभग 3 बजे पन्ना जाने के लिये एम्बुलेन्स को फोन किया| एम्बुलेन्स शाम 6 बजे पहुंची। उसी बीच करीब 5 बजे बच्चे की साँस फूलने लगी और देखते ही देखते उसकी मृत्यु हो गई।”

भागवती – “मेरी बच्ची 3 साल की थी। उसकी तबियत पिछले 6 माह से खराब थी। हमने उसे डॉक्टर को दिखाया था, उन्होंने​​ पीलिया बताया था और दवाई भी दी थी। उसके बाद बच्ची ठीक भी हो गई थी लेकिन एक-दो माह के बाद बच्ची की तबियत फिर से खराब हुई| इस बार हमने दूर गांव के बाबा जी से पीलिया झड़वा दिया था लेकिन बच्ची को आराम नहीं हुआ। उसके पूरे शरीर पर सूजन आ गई थी, उसे दिखना बंद हो गया था। हमने फिर से डॉक्टर को उन्होंने बताया कि बच्ची के लिवर में सूजन है, और खून की कमी है। डॉक्टर ने बच्ची को तुरन्त अस्पताल में भर्ती करने को कहा था पर बाबाजू की बीमारी में बच्ची को घर के बाहर नहीं रख सकते थे। दवाई तो दी लेकिन बच्ची ठीक नहीं हुई।

यहाँ​​ ग्रामीण क्षेत्रों में मलेरिया, पीलिया, टाइफाइड जैसी कुछ बीमारियों को बाबाजू की बीमारी कहते है। इस दौरान मरीज को घर से बाहर जाने नहीं दिया जाता है। साथ ही किसी भी प्रकार की दवाई देना भी निषेध माना जाता है। कुछ स्थानीय लोग बाबाजू की बीमारी को झाडते हैं। अब इसे चिकित्सा सेवाओं की कमी का कारण कहे या झाडफूंक करने वालो की सहज उपलब्धता पर समुदाय के लोगों का आज भी इस पर बहुत भरोसा है।

मझोली गांव में पिछले ​​चार महीनों में 5 बच्चों की मृत्यु हुई है। इन बच्चों की माताओं से बात करने से पहले मैंने सबसे अनुमति ली और माफी मांगी क्योंकि बच्चे को खोने के बाद उस विषय पर बात करना उनके घावों को और कुरेदने जैसा है। मैंने उन्हें बताया कि मैं सिर्फ यह जानने की कोशिश कर रही हूँ कि इन घटनाओं का कारण क्या है, और आगे ऐसा न हो इस के लिए हम सब मिलकर क्या प्रयास कर सकते हैं। सबसे बात करने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि सभी नवजात बच्चों की मृत्यु का कारण लगभग एक जैसा है – तेज़ बुखार, सांस फूलना और इलाज में देरी

इन माताओं से बात करते हुए मुझे इंडिया फेलो के मेंटर राजेश्वर मिश्रा सर की बात याद आ रही थी। उन्होंने हमें सिखाया था कि समुदाय के साथ सरल सहज तरह से अपनी बात रख कर समुदाय को प्रमुखता देना चाहिए। उनकी बात सुनना, उनको समझना, स्वयं को उनके स्थान पर रख कर सोचना। आज उनकी सिखाई हुई हर बात ने मुझे मदद करी थी।

पॉलिसी के स्तर पर मुझे यह समझ आता है की सरकारों के द्वारा किये जा रहे प्रयास निश्चित ही सराहनीय है, तभी संस्थागत प्रसव के आंकडों में इजाफा हुआ है। पर शायद तमाम कवायतों के बीच विभागीय अभिसरण की कमी का कोई हल सरकारों को नही मिल रहा है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी पी.एच.ई. (पब्लिक हेल्थ इन्जिनीरिंग डिपार्टमेंट) विभाग को पेयजल आपूर्ति/पेयजल की गुणवत्ता को सुनिश्चित करना होता है, और स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी है कि लोग स्वास्थ्य रहें। दोनों ही विभाग अपनी योजना बनाते समय एक दूसरे को आवश्यक महत्तव देना भूल जाते हैं। जबकि पानी हमारे शरीर का अहम हिस्सा है और बहुत सी बीमारियों का कारण ही अस्वच्छ पानी होता  है।

हमने जिस गांव के उदाहरण ऊपर पढ़े, वहाँ डायरिया, निमोनिया जैसी बीमारियां ही मृत्यु का कारण बन रही हैं। आपात कालीन सेवाऐं (इमरजेंसी सर्विसेस) तो हैं, पर ग्रामीण सड़क विकास के लिए कार्यरत विभाग के साथ योजना नज़र नही आती है| जब सड़कें ही नही होंगी तो आपात कालीन सेवायें होना न होना बराबर है।

दूसरी विडंबना यह है कि डायल 100 और 108 जैसी सेवाओं में जब हमारे ग्रामीण फोन लगाते हैं तो वे​ स्पष्ट संवाद नही कर पाते हैं| फिर जिले के किसी व्यक्ति से अधिकांशतः एम्बुलेंस के चालक से बात करवाई जाती है। चालक पहले समझता है कि कितनी दूरी है क्योंकि उसे तो आने जाने का  हिसाब भी रखना पड़ता है। और अगर फोन किसी ऐसे गांव से आ रह है जंहा गैर-सरकारी ​​​​संस्थाएं काम कर रही हैं तो उन्हें निझावर भी नही मिलती है। तो इतना सब करने में जो समय लगता है वह आपातकालीन सेवा को खुद एक आपदा में तब्दील कर देता है। अब अगर हर जिले में फोन लगने के 30 मिनट के अंदर लोकेशन पर वाहन पहुंचा दिया जाये तो यह लगे कि आपातकालीन सेवा की पहुंच सही है। यहां तो लोगों को​ 30 मिनट यह बताने में लग जाते हैं कि सेवा किसे, क्यों और कहां चाहिए? जब तक यह सब पता चलता है दुर्घटना घट चुकी होती है।

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