मीडिया, मीडिया … कहते है लोग,
किसका है यह मीडिया जानते ना लोग|
गाँव-गाँव में रेडियो पंहुचा
रेडियो ना कहकर इसे “बाजा” समझा
बोला कवि, बोला संगीतकार
बोली महिला अपनी वाणी में मन-की-बात|
अपने गाँव की बातें सुन कर;
अपनी भाषा में भली भातिं जानकार,
खुश हुआ बच्चा और खुश हुए सारे लोग|
बच्चा बोला गली-गली सिम सिम सुनता हु,
दादी बोली गाँव की गठारिया सुनती हु|
चाचा बोले लोक गीत की गूँज मन को भा जाती है,
ऐसा मानो जैसे हमारा ही रेडियो हो|
भाषा हमारी, गीत हमारे;
घर-घर पोहचे इसके द्वारे|
ना जाने कहा से यह मीडिया आया,
हमको है विश्वास दिलाया|
इसने ना जाती देखी, ना कोई बेद्भाव समझा
सबको साथ लेकर जेसे माला में है मोती पिरोया|
क्या देखे कभी ऐसा मीडिया जिसे आप अपना कह पाते?
मीडिया, मीडिया … कहते है लोग
किसका है यह मीडिया जानते ना लोग!
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