पन्ना टाइगर रिज़र्व मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में स्थित है। इस रिज़र्व के अंतर्गत पन्ना के बहुत से गांव भी आते हैं। टाइगर रिज़र्व के नियमों की वजह से यहाँ के किसानों को खेती करने में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। रिज़र्व में संरक्षित वन्यजीव खेती को बहुत नुकसान पहुंचते है। वन्यजीव रातों-रात फसल तबाह कर देते हैं। अन्य ग्राम वासिओं के साथ-साथ, इन समस्याओं का सामना कर रहे हैं किसान बुद्धल जी।
ग्राम कूड़न के लोग बताते हैं कि जंगल की खेती बहुत मुश्किल है। हमारे क्षेत्र में पानी की बहुत परेशानी है| बरसात और सर्दी के मौसम में जो फसल हुई वो हुई। उसके बाद तो पीने का पानी भी बहुत मुश्किल से मिलता पता है।
“मॉनसून आते ही हमें फसल की देखरेख करने के लिए खेतों में रहना पड़ता है। जो बीज खेतों में डाला जाता है उसे भी तोते और चिड़िया चुग लेती हैं| उन्हें दिन भर भगाना पड़ता है, तब कहीं जाकर बीज बचता है। गांव में थोड़ी फसल बढ़ते ही रात में जंगली जानवर आ जाते हैं, तो रात भर जानवर भगाने होते हैं। कितनी भी बारिश या सर्दी हो हम खेतो में ही रहते हैं| अगर खेती की देखरेख छोड़ देंगे तो साल भर क्या खायेंगे?“
किसान जानवरों को तो भगा देते हैं लेकिन उसके बाद फसल में रोग लग जाता है। कीटनाशक दवाई, 5-10 मिलीलीटर ही सही, हजारों रुपए से कम की नहीं आती है। किसान पर दुगनी मार पड़ती है और फसल आने से पहले ही किसानों पर कर्ज़ा हो जाता है। लेकिन इस वर्ष किसान को जैविक खेती के विषय में पता चला है, जिससे कुछ आशा जागी है।

जैविक कृषि खेती की एक प्रणाली है| घरो, पशुओं, और फसल से निकलने वाले अवशिष्टों से बनने वाली खाद को खेतों के लिए अमृत खाद माना जाता है। विभ्भिन पेड़ों के पत्तों, गौमूत्र अदि की मदद से अच्छी गुणवत्ता का जैविक कीटनाशक बनाया जा सकता है, जिससे खेत उपजाऊ बने रहते हैं| लेकिन औद्योगिक कृषि के चलते हमारी मिट्टी, हवा, पानी एवं स्वास्थ्य को जो हानि पहुंची है, उसकी भरपाई करना आसान नहीं है।
इस गांव में कोशिका नाम की संस्था दो वर्षों से काम कर रही है| संस्था के कार्यकर्ताओं के साथ गांव में चर्चा हुई थी कि फसल के साथ-साथ सब्जियों की खेती करने के बारे में भी सोचना चाहिए। सभी लोग मेहनत करने के लिए तैयार थे पर अच्छी गुणवत्ता का बीज खरीदने की ताकत नहीं जुटा पा रहे थे| जंगल में फसल ही बड़ी मुश्किल से बच पाती है तो ज़ाहिर सी बात है उन्हें सब्जियां बचाने की चिंता थी|
चर्चा के दौरान गांव के और लोगों ने बताया कि अगर मिर्ची की खेती करते हैं तो जानवर उसे कम नुक्सान पंहुचा पायेंगे। साथ ही सीज़न में मिर्ची की कीमत अच्छी मिलेगी। लेकिन सिर्फ बीज से काम नहीं चलेगा| कीटनाशक दवाई की भी आवश्यकता होगी क्योंकि सब्जियों में रोग और कीड़े बहुत जल्दी लगते हैं। उनके कई सवाल थे – सब्ज़ियों में कीड़ें न लगें, इसका क्या समाधान है? कीटनाशक दवाईयां कितनी महंगी है? कुल मिलाकर कितना खर्चा आएगा?
“संस्था ने पन्ना के उद्यानकी विभाग के साथ मिलकर जैविक खेती एवं सब्जियों की खेती करने की उचित ट्रेनिंग दिलाई। हम इससे पहले कभी किसी ट्रेनिंग में नहीं गये थे, पहली बार हमने सीखा कि खेत कैसे तैयार होता है – खाद, कीटनाशक और दवाई कैसे बनती हैं, पौधों में रोग की पहचान कैसे की जाती है, सब्जियों में फलन बढ़ाने के लिए क्या उपयोग किया जाता है, जैविक कीटनाशक कैसे तैयार होता है। सारे संसाधन हमारे गांव में ही थे। एक पैसे की लागत नहीं लगानी पड़ी जबकि यूरिया, डीएपी, रासायनिक दवाईयों में हमारा बहुत पैसा लगता है”

बुद्धल जी बताते हैं, “मैंने अपने खेत में मिर्ची की खेती की है। बाहर की कोई खाद या रासायनिक दवाई खेत में नहीं डाली है। मेरे पौधे में पत्ते-पत्ते पर मिर्ची लगी है। मेने 50 से 70 रुपए किलो के भाव में हरी मिर्च बेची, और अब लाल मिर्ची 100 से 150 रुपए किलो में बिकेगी। खेती में सब जैविक संसाधनों का उपयोग किया गया है। इस बार कमाई से जो बचत हो पायी है, पहले इतनी नहीं हो पाती थी।”
उनके घर में अगर कोई बीमार पड़ जाए या कोई ज़रूरी काम आ जाये तो उन्हें कर्ज़ा लेना पड़ता था, जिसका ब्याज साहूकार मन मर्ज़ी वसूलते हैं| लेकिन इस बार मिर्ची की खेती के कारण उन्होंने किसी से उधार नहीं लिया है। अगर अचानक कोई काम आता भी है, तो मिर्ची तोड़कर बाज़ार में बेच देने से हाथों हाथ पैसे मिल जाते हैं|
“आज बाज़ार में लोग मुझे जानने लगे हैं, ये पहचान मुझे मिर्ची की खेती से मिली है। मेरे लिए तो मिर्ची की खेती फायदे की खेती है।”
बुद्धल जी और उनके जैसे कई छोटे किसान मानते हैं कि मेहनत तो वह मिर्ची और फसल दोनों में बराबर ही करते हैं पर मिर्ची से ज़्यादा अच्छी बचत होती है। पिछले वर्ष फिर भी कम एरिया में मिर्ची लगाई थी। इस वर्ष में और जगह में मिर्चियाँ और सब्ज़ियां लगाएंगे। अब पूरे गांव के लोग मिर्ची की खेती करना चाहते है।
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