भारत की ३३% जनसंख्या की तरह मैं भी एक शहरी नागरिक हूँ. अपने २५ वर्षों के जीवन में से २५ दिन भी मैंने किसी ग्रामीण क्षेत्र में नही बिताये. राजस्थान के किसी गाँव को मैं उतना ही जानती थी जितना “बालिका वधु” या “सरफ़रोश” ने मुझे बताया. हालाँकि, वहां के पर्यटक स्थलों से मैं भली-भांति वाकिफ़ थी.
पर्यटक स्थल मुख्यतः एक सपनीली दुनिया की तस्वीर ही दिखाते हैं. रजवाड़ों की शान-ओ-शौक़त के चश्मों से हम अक्सर उन झुके हुए सरों के चेहरों को नही देख पाते, जिन्हें “प्रवासी” या “प्रव्रजक” श्रमिक कहा जाता है. वो आबादी, जो आसपास के गावों से रोज़गार की तलाश में शहरों में आ ‘बसती’ है. रेस्तरां के बैरे से लेकर सड़क पर चना-मसाला बेचने वालों तक, लगभग सभी उसका हिस्सा हैं.
हाल ही में मुझे जब राजस्थान के एक गाँव में वक़्त बिताने का प्रस्ताव मिला, मेरे जेहन में एक ठेठ गाँव की तस्वीर उभरी. कच्ची सड़कें, कचरों के ढेर, बिजली-पानी की समस्या, असभ्य लोग, और ग़रीबी. बीती रात, नींद की दस्तक से पहले, मैंने ग्रामीण लोगों के बारे में सुनी-पढ़ी उस हर कहानी को याद किया, जो मुझे लोगों की मनोस्थिति समझने में मदद करती. प्रेमचंद से लेकर अरुंधती रॉय, कई कहानियों के कई पात्र मेरे मन में उभरने लगे.
दूसरी ओर इन सबसे अलग, मेरे मन में पहली बार ग्रामीण जीवन को अपनी नज़र से देख पाने की उत्सुकता थी. जैसे-जैसे हम गाँव के पास पहुँचे, मेरी उत्सुकता रोमांच में बदल गयी. छोटे-बड़े पहाड़ों के बीच, घुमावदार पक्की सड़कें, जिन पर हमारा टुक-टुक ऊपर-नीचे, कभी दिखता- कभी छिपता बढता जा रहा था. चढाव आने पर उसकी गति इतनी धीमी हो जाती थी, कि मानो अभी पीछे लुढ़कने लगेगा. फागुनी सुबह की ठंडी हवाओं में टुक-टुक की आवाज़ एक नया स्वर घोल रही थी.
गाँव में पहुँचते ही, कुछ वक़्त के लिए आँखें फैसला नही कर पा रही थी, किस तरफ देखें और उस पल में कौन-सा दृश्य देख पाने का अवसर गँवा दे. हर ओर इतनी खूबसूरती थी, जिसे सिर्फ वहां, उस क्षण में ही महसूस किया जा सकता था. दूर-दूर तक फैले पहाड़, गेहूं के खेतों में खड़ी फ़सल, और इस पर पलाश के फूलों का दहकता रंग, (क्या आप जानते है? पलाश झारखण्ड का राज्य-पुष्प है, जिसे कई लोक-रचनाओं में “जंगल की आग” की उपमा दी गयी है.)
गाँव की प्राकृतिक छटा को मन भर निहारने की चेष्ठा करते हुए मैं आगे बढ़ी. गाँव के लोग मुझे शायद उतने ही कौतुहल से देख रहे थे, जितना मैं उन्हें. अजीब है न? सिर्फ़ पैराहनों के अंतर ने मेरे और गाँव के लोगों के बीच एक लकीर खींच दी थी. मैं समझ नही पा रही थी, किस तरह इस दूरी को कम किया जाये. तभी मुझे सुखविंदर की एक सीख याद आयी, “इश्क़ में जल्दी, बड़ा जुर्माना…तू सब्र तो कर मेरे यार…”
मैंने अपने सीने पर हाथ रख कर कहा, “हौले-हौले…हौले-हौले…”
जब गाँव की घुमावदार सड़कों पर चलना शुरू किया, तो मैं रास्ते के पत्थरों को चुनते हुए, धीरे-धीरे गरमाती हवाओं के साथ गुनगुनाते हुए, गाँव के छोर तक पहुँच गयी. उस गाँव में अधिकतम ६० परिवार रहते थे. ये छोर शायद गाँव की सबसे बड़ी पहाड़ी पर था. मुझे यहाँ से लगभग पूरा गाँव नज़र आ रहा था. मैं इसी उलझन में थी, कि कैसे हमारे बीच के फासले को कम किया जाये.
पत्थर के एक मकान की ठंडी दीवार से सटी, एक सहमी, लेकिन उत्सुक बच्ची मेरी तरफ़ देख रही थी. उसकी उम्र कुछ १२ वर्ष, और नाम “गायत्री” था. उसके हाथों में हीना का रंग था, जिसकी महक अभी भी ताज़ा थी.

Illustration of Gayatri by Shailesh, my co-fellow
मैंने कहा, “ कितनी खुबसूरत है ये मेहंदी, किसने बनायी?”
उसने चहक कर कहा, “मैंने!”
गौर करने पर मैंने पाया, अंग्रेजी के कुछ अक्षर हथेली के पीछे की और उकेरे हुए थे. पूछने पर पता चला कि वो उसके और सहेलियों के नाम के पहले अक्षर हैं. और हाँ! गायत्री बाएं हाथ से लिखती है.
कुछ देर गायत्री और एक जोड़ी मेमनों के साथ खेलने के बाद, हंसी-ठिठोली की गर्माहट में, मैंने उस फासले को कम होते महसूस किया. सड़क के अगले मोड़ पर मैंने देखा कि कुछ लोग पत्थरों से अपने खेत की सीमा बना रहे थे. मेरी हल्की-सी मुस्कराहट उन तक सफ़र कर कुछ ऐसे लौटी, जैसे दर्पण से टकरा कर किरणें लौट आती हैं. थोड़ी बातचीत के बाद मैंने जाना, ये एक ही परिवार के सदस्य हैं, जो अपने खेतों की रक्षा के लिए रेखाएं खींच रहे हैं.
“पत्थरों की सीमा के २ फायदे हैं,”- परिवार के मुखिया ने मुझे समझाया.
“एक, हमें अपने ही गाँव में ये पत्थर मिल जाते हैं, और दो, इनसे बनी दीवारों की उम्र २ गुनी होती है.”
मुझे उनके काम में निपुणता देख कर विस्मय हुआ. जितने करीने और सहजता से वे उन पत्थरों को एक के ऊपर एक लगा रहे थे, लगा जैसे किसी माला में मोती पिरो रहें हों.
कुछ और बातचीत के दौरान मुझे पता लगा, कि इस गाँव के सभी लोग, अपने घर खुद बनाते हैं, और उनकी मरम्मत भी करते हैं. पत्थरों से बने घर ज्यादा ठंडे भी रहते हैं. जो इस क्षेत्र की गर्मी के लिए श्रेष्ठ हैं. मकान बनाने और मरम्मत के काम में महिलाएं बराबर का हिस्सा लेती हैं. महिलाओं और पुरुषों में समन्वय देखते ही बनता था. चाय के स्वाद और बीड़ी की गंध के दौरान जब मैंने गाँव के परिदृश्य की तारीफ़ की, लोगों के माथे पर फ़ख्र और होठों पर मंद सी मुस्कान आ गयी. गौर से देखने पर मैंने पाया, लगभग सभी लोगों की आँखों की दहलीज कोई गंभीर उदासी पार करने को थी. माहौल में अचानक बढ़ रहे इस भार से मेरे कन्धों में दर्द महसूस होने लगा.
– “आपके परिवार में कुल कितने सदस्य हैं?” मैंने माहौल को हल्का करने के लिए पूछा.
– “वैसे तो भरा-पूरा परिवार है हमारा. ३ बेटे और एक बेटी.” परिवार के मुखिया ने कहा. “लेकिन अभी हम इतने ही जन रह गए हैं.”
मेरी उड़ती हुई नज़र ने ५ तक गिनती की.
– “बाकी का परिवार कहाँ है?” मैंने बेफिक्री से पूछा.
– ५ जोड़ी आँखों की उदासी अब और भी गहरा गयी थी. “बेटी तो अब ससुराल में है, दोनों छोटे बेटे शहर चले गए.” मुखिया के इन शब्दों के साथ बहुओं की आँखों का बांध लगभग टूटने को था.
– “यहाँ रोजगार मिलता नही है. सीमित साधन और सीमित आय. शहर में २ पैसे ज्यादा जुड़ जाते हैं. मेहनत से तो कभी हम कतराते नहीं.”
– “इतनी सुन्दर जगह छोड़ के कोई शहर के प्रदूषण में क्यों जायेगा?” मैंने बिन सोचे-समझे बचकानी-सी बात कही.
परिवार के मुखिया ने गंभीर स्वर में कहा,- “अपनी माटी से किसे प्रेम नही होता? लेकिन पेट खाली हो, तब आँखों को सिर्फ रोटी सुन्दर लगती है.”
Just very very well crafted. At times in between i did feel like where is it leading … like a suspense novel. And then in the end you did a good job of tying it up all well. Looking forward to interesting blogs from you this year, including videos and photo stories!