पुरुलिया पश्चिम बंगाल का एक जाना माना जिला है जोकि मानभूम के नाम से भी जाना जाता है | मुझे पुरुलिया के एक गाँव लौलारा में नित्यानंद जनवाणी कम्युनिटी रेडियो में इंडिया फ़ेलो के द्वारा नियुक्त किया गया है | पुरुलिया आने से पहले मेरी धारणा कुछ अलग हीं थी | मुझे नहीं पता था यह अपनी संस्कृति , परंपरा और त्योहारों की इतनी धनी होगी | हमारे इंडिया फ़ेलो की ट्रेनिंग के दौरान ” सिंगल स्टोरी ” के बारे में काफ़ी चर्चा हुई थी | हम किसी चीज़ के विषय में अगर एक धारणा बना ले, तो उसी को सत्य मान लेते हैं जबकि उसके और भी कई पहलु होते हैं | वास्तव में जब आप चीज़ो को करीब से देखते हैं तभी उसको विस्तार से जान सकते हैं |
ऐसी हीं एकाकी धारणा के साथ मैं पुरुलिया आया था | पुरुलिया बस स्टैंड से मुझे गाँव लौलारा के लिए बस पकड़नी थी, जोकि लगभग दो घंटे का सफर है | अभी असाढ़-सावन के महीने में हीं धान का बीजा-रोपण हुआ था और भाद्रपद मास में जोकि अभी चल रहा है, छोटे छोटे धान के फ़सल अपनी हरियाली की अनोखी छटा हर ओर बरसा रहे थे | आपकी नज़रें जहाँ तक जाएँगी आप हरियाली हीं हरियाली पाएँगे | मानो पूरा पुरुलिया दुल्हन की तरह हरे जोड़े में सज गया हो |एक भी कोना आप रिक्त नहीं पाएँगे जहाँ फ़सल न लगी हो | हाँ, ऐसे रमणीय दृश्य को देखकर मैं आश्चर्य था और अपने जिज्ञासा को शांत करने के लिए कुछ लोगो से इस विषय में बातचीत की | पूछताछ पर पता लगा यहाँ खेती जिसको बंगाली में ” चास ” भी बोलते हैं , साल में एक बार हीं होती है | सम्पूर्ण खेती-बाड़ी वर्षा पर हीं आश्रित है | इसी निर्भरता के कारण उपज प्रति वर्ष एक बार हीं होती है | फिर धान से चावल बना कर उसी को साल भर खाते हैं |
अपने प्रथम सप्ताह में मैं कुछ गाँव निरिक्षण करने भी गया था | छोटे-छोटे मिट्टी के घर, जिसपर बहुत सुन्दर सुन्दर कलाकृति बनी हुई थी और लगभग हर घर के बरामदे में उड़हुल (गुड़हल) के फूल के पौधे मैंने देखा | यहाँ दो प्रमुख समुदाय है जिसपर हमारा रेडियो स्टेशन काम करता है | पहला बंगाली समुदाय के लोग और दूसरे सांथाली समुदाय, दोनों के दोनों अपने संस्कृति के संपन्न |
ऐसे तो यहाँ बहुत से छोटे-छोटे पर्व मनाए जाते है जोकि पुरुलिया के हर ग्राम में लोकप्रिय है लेकिन मैं एक मुख्य त्यौहार की चर्चा करूँगा | जब मैं यहाँ आया गाँव मनसा पूजा की तैयारी में लग्न था | यहाँ तक की मेरे दफ्तर में भी उत्साह ज़ोरो-शोरों से दिख रहा था | काफी सारे प्रोग्राम इसी पूजा पर बनाए जा रहे थे जिसने मेरा आकर्षण इस पूजा की ओर खिंचा | मैं अपने हीं एक प्रोड्यूसर के साथ ग्राम भ्रमण करते हुए एक परिवार से मिला जोकि मनसा पूजा की जात्रा करते थें | जात्रा एक तरह का लोकप्रिय कला का माध्यम है जिसे गाने बजाने के साथ, नाट्य की तरह गाँव के चौराहे या मंदिरों में प्रस्तुत करते हैं |
मनसा देवी नागों की देवी हैं, जिनसे जुड़ी कई कहानियाँ यहाँ प्रचलित हैं| कहानी शुरू होती है चंद्रधर, एक व्यापारी और मनसा देवी के द्वन्द के साथ जोकि ख़त्म होती हैं चंद्रधर के मनसा के असीम भक्त बनने पर| कहानी में बेहुला की भी मुख्य भूमिका है जोकि यहाँ के लोगों को बहुत प्रेरित करती है की कैसे एक इंसान अपने आत्मबल से शक्तिशाली देवी पर भी विजय पा सकता है | बेहुला और चंद्रधर की कहानी यहाँ के बच्चे-बच्चे के मुख पर विख्यात है | औरतें इसे भारतीय नारी और उसकी पतिव्रता शक्ति की मिसाल मानते हैं |
क्यों मनसा पूजा इतना प्रचलित है ? यह प्रश्न मेरे चित्त में घर कर गई |
” यह परंपरा हमारे पुरखों से चली आ रही है |कोई इसे श्रद्धा से करता है तो कोई भय के कारण भी, भय इसलिए क्योकि साँप एक जिवंत देवता है जोकि हर समय दिख जाता है |उससे रक्षा के लिए, अपने बच्चो और परिवार को सुरक्षित रखने के लिए यह पूजा करते है|अगर किसी व्यक्ति को साँप ने डस लिया हो, तो लोग मन्नत मांगते है की अगले साल पुरे रीती रिवाज़ के साथ यह पूजा करेंगे और व्यक्ति साँप के विष से बच जाता है “
यहाँ के एक पुजारी से मुझे यह तथ्य पता लगा | इस बात से मैं थोड़ा आश्चर्यचकित तो था पर इसी प्रश्न को जब यहाँ के एक किसान से पूछा तो उसका जवाब था
” मनसा पूजा श्रावण मास के इक्तिस्वे यानि अंतिम दिन होता है | करीब दो महीने से खेत जोताई, धान रोपाई के बाद फसलों के बाहर आने और बढ़ने का इंतज़ार करते वक्त हमारे पास बहुत खाली समय होता है | इसी पूजा के माध्यम से हमें मनोरंजन का स्रोत मिल जाता है, महीनो की थकान से तनाव मुक्त करने का माध्यम और साथ हीं साथ परंपरा को आगे भी ले जाते है “
इस पर्व का एक और प्रमुख आकर्षण था बलिदान, पुरुलिया के लगभग हर गाँव और घरों में रात्रि को बतख या बकरे का बलिदान देवी को अर्पण करते है और सारी पूजाविधि बाएं हाथ से करते है | काफी अनूठा पर्व और काफी अनूठी आस्था थी मेरे लिए |
अपने सहकर्मी के साथ मैं एक और गाँव में गया जोकि एक आदिवासी गाँव हैं जहाँ सांथाली समुदाय के लोग रहते हैं | वह गाँव में यातायात, संचार और सड़कों का अभाव था | मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैं नव युग से कटकर किसी दूसरी जगह आ गया हूँ जहाँ आधुनिक युग की सारी वस्तुएं और संसाधन का कोई नमो-निशान हीं नहीं हैं | मुर्गों की बाँग से, चिड़ियों की चह-चहाहट से उस गाँव में एक लय से संगीत बज रहा था | प्रत्येक घर में मवेशी, धान जमा करने का बड़ा पात्र और मिट्टी के चूल्हे थे | गाँव घूमते- घूमते एक झोपड़े पर मेरी नज़र पड़ी | वहाँ अलग अलग तरह के ढोल जिसको सांथाली में ” टमाक ” और “टुमडा ” बोलते है, दीवारों पर काफी सुन्दर तरीके से रस्सियों के माध्यम से सजाए गए थे | दोपहर का समय था, पास हीं कुछ ग्रामीण पुरुष बरगद के पेड़ के नीचे उसकी छाँव के तले ताश खेलकर अपना खली समय बिता रहे थे | एक साथ बैठकर अपनी भाषा में बातचीत कर, हँसते हंसाते हुए वें अपने खेल में मग्न थे | खेल के माध्यम से हीं अपने विचारों का आदान प्रदान करने की बहुत सटीक व्यवस्था थीं उनकी | मैंने उस झोपड़े के विषय में अपना संशय उनके समक्ष रखा, तो उनमें से एक ने टूटी-फूटी हिंदी और बंगाली में खिलखिलाते हुए मुझे बताया |
” यह हम शादी ब्याह के समय, त्योहारों में, विशेषकर काली पूजा में उपयोग करते हैं | गाँव के पुरुष एक समूह में होकर यह ढोल बजाते हैं और महिलाएं अपनी सहेलियों और रिश्तेदारों का हाथ पकड़ नृत्य करती हैं | सारा गाँव मिलकर एक दूसरे के साथ खुशियाँ मनाता हैं और उत्साह और उल्लास के साथ झूमता हैं | “
जितना सुनने में आनंद आ रहा है यह उतना हीं देखने में भी आएगा | काफी अद्भुत दृश्य होता होगा जब सारा ग्राम हर्षोल्लास से संलग्न हो जाता होगा “| यह सारे विचारों ने मेरी यहाँ के सभ्यता और नृत्य-गीत पद्धति को जानने की लालसा और भी बढ़ा दी | मेरे गाँव लौलारा में भी कई मनोरंजन के स्रोत है | उन्ही में से एक है साप्ताहिक हाट | हाट एक अस्थायी बाजार समझ लीजिए जोकि मास या सप्ताह में एक बार गाँव में लगता है | यहाँ रोज़मरा की ज़रूरतों की सारी सामग्री मिल जाती है जैसे, खेत की सब्जियाँ, फल, कपड़े, बीज, दवाईयाँ और भी बहुत कुछ | यह हाट हर गाँव में एक दिन लगता है जैसे रविवार को इस गाँव, तो शुक्रवार को दूसरे गाँव | ग्रामीण आते है अपने ज़रूरत की खरीदारी करते है, बातचीत और विचारों का आदान प्रदान एक समय ही हो जाता है | इसके साथ बंधू-बांधवो से मुलाकात और सब की हाल चाल की जानकारी भी मिल जाती है | एक दूसरे से परिचय परामर्श भी साथ हीं साथ हो जाता है|
एक और साप्ताहिक कार्यक्रम है जोकि है ” मुर्गा लड़ाई “| जानता हूँ आप यह पढ़ कर अचंभित हो रहे होंगे लेकिन यह यहां की एक प्रधान मनोरंजन और ग्रामीणों के बिच प्रतिस्पर्धा का स्रोत भी है | काफी महीने तक अपने अपने मुर्गे को पालते-पोस्ते है और उनके हष्ट-पुष्ट होने के बाद खेल के मैदान पर ले आते है | फिर मुर्गों के पैरो पर तेज़धार चाकू बाँध कर दोनों को आमने-सामने उतार देते है | तब शुरू होती है मुठभेड़, जो मुर्गा मारा गया वो जाता है विपक्षी व्यक्ति को जिसके घर पर उस रात उसके स्वादिष्ट मांस का आनंद लिया जाएगा | हर कोई इसी आशा में होता है की उसका मुर्गा जीते और पकवान का भरपूर मज़ा लेते हुए उसकी रात रंगीन हो जाए | कभी कभी सट्टे भी लगते है – साइकिल के या फिर पैसे की | मैदान में गर्मजोशी सी छाई रहती है और इनके लिए यह खेल कोई ओलिंपिक से कम नहीं |
जो मेरी विचार-धारा पहले थी की यहाँ संचार और मनोरंजन का स्रोत नहीं है उसको थोड़ा विराम मिला और ग्रामीणों के अपने मज़ेदार और दिलचस्प मनोरंजन के स्रोतों की जानकारी भी मिली | मुझे अब यह पता लग गया की मनोरंजन की परिभाषा सिर्फ वीडियो गेम्स, सिनेमा और इंटरनेट हीं नहीं बल्कि इन सबके अलावा भी भिन्न-भिन्न भाँति के रोचक तरीके है | छोटे-छोटे पर्वो, समारोहों में इकठ्ठे होना, नाचना-गाना, कला का प्रदर्शन गाँव को एक कड़ी में बाँधे रखता है और साथ हीं साथ परम्पराओं का भी संरक्षण करता है |
This is a very good descriptive account. I really enjoy the Hindi and thank you for bringing in this flavour to this year’s sharing. Looking forward to your next!