जबसे इंडिया फेलोशिप के एक अनोखे सामाजिक सफर में जुडा हू, तब से कई प्रभावी व्यक्तियो से रूबरूहोने का मौका मिला है। ऐसे ही एक प्रभावी व्यक्ति, आदिवासियों के विकास काम के लिए हर प्रयास में रहने वाले, आदिवासी सामाजिक लीडर धरमचंदजी खैर जी के साथ मुझे कार्य करने का मौका मिला और उनके कार्य को करीब से जानने का। धरमचंदजी ने अपने जीवन में काफी सफलताए हासिल की है, और आदिवासीयो के मुद्दों को लेकर सक्रिय भी है।
इन्हें देश के अलग-अलग राज्यों में सरकारी बैठको में आदिवासी और जंगल जमीन के मुद्दों पर बात करने या प्रशिक्षण देने हेतु न्योता दिया जाता है| पर धरमचंदजी यहाँ तक कैसे पोहोचे? वे सामाजिक लीडर कैसे बने? इनकी जीवनी समझने के लिए पूरी किताब बन सकती है|
१] जन्मदिन के बारे मे
धरमचंदजी का जन्म मंडवाल ग्राम पंचायत के चरिया गाँव में हुआ, जो राजस्थान में उदयपुर जिले के कोटडा तहसील में है। इन्हें आदिवासी लोग धर्मा खैर के नाम से जानते है। वही गैर आदिवासी लोग इन्हें धरमचंदजी खैर के नाम से जानते है। माता और पिता दोनों किसान थे पिताजी किसी वक्त महात्मा गांधी के भारत छोड़ो यात्रा में भी भाग ले चुके थे। ९० साल की उम्र में उनका देहांत हो गया था।
आदिवासी समाज में जन्मदिन नहीं मनाया जाता है, लोग अपने बच्चे की जन्मतिथि लिखते नहीं है। कोई पढ़ा लिखा भी नहीं होता था, पर धरमचंद जी के परिवार में पहली बार राशन कार्ड बनाने के लिए उनके पिताजी सरपंच के घर गये। तब सरपंच ने उन्हें नियम बताया के बच्चे अगर शिक्षा से जुड़े है, तो ही आपको राशन कार्ड मिलेगा। जब विद्यालय में दाखिला कराने के लिए गये तब अध्यापक ने जन्म दिन की दिनांक पूछी उनके पिताजी ने कहा हमे तो पता नहीं है फिर उन्होंने बच्चा उस अध्यापक को दिखाया और कहा आप ही अनुमान लगाये, अध्यापक ने अनुमान लगाकर २०/११/१९७४ तारीख लिखी। तबसे यही उनका जन्मदिन माना जाता है।
जिस विद्यालय में उनका दाखिला किया गया था वह विद्यालय गाँव से ४ किमी दूर मामेर के इलाके में था गाँव में ही अपनी ८ वी कक्षा तक पढाई कर कक्षा ९ और १० के लिए उदयपुर के छात्रावास में गये. ११ और १२ वी कक्षा की पढाई कोटडा में शुरू की थी पर १२ वी से आगे पढ़ नहीं पाए। यही उनकी पढाई ख़त्म हो चुकी थी। इस दौरान परिवार की आर्थिक समस्या के कारन उन्हें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा था। पैदल विद्यालय में जाना और छात्रावास में जो भी खाने को मिले वो खा लेना, यही यही उनका बचपन था।
धरमचंद जी को मामेर होस्टल में बहुत ज्यादा संघर्ष करना पड़ा। मामेर कोटडा तहसील की एक पंचायत है। तब धरमचंद जी ७ वी कक्षा में थे। उस वक्त उनके होस्टल में सुविधाए कम थी। लकड़ी और खाने का टेंडर वहा के वार्डन के पास था। पर बच्चो को सुविधाए नही मिलती थी। उन्होंने खाने में सब्जी ही नहीं देखी थी। एक दिन धरमचंद जी को खबर मिली मामेर के पास गुरा इलाके में कोटडा के एक पार्लियामेंट के मेंबर अलकाराम जी आने वाले है। धरमचंदजी ने होस्टल में मिल रही असुविधओं के बारेमे एक अर्जी अलकाराम जी को लिखी। जिसके बाद पार्लियामेंट के मेंबर हमारे होस्टल में आए थे – उन्होंने खुद वहा की स्थिति देखी और वार्डन को सुधार लाने के लिए कहा। उसके बाद होस्टल में रोज अलग-अलग खाना मिलने लगा, रोज साफ़ सफाई होने लगी और नहाने के लिए गरम पानी मिलने लगा। वार्डन एक गाँव के सरपंच भी थे; उन्होंने धरमचंद जी को परेशान करने और डराने की कोशिश की पर उससे कुछ नहीं हुआ।
२] शुरुवाती दिन
बचपन में उनका एक ही सपना था, उन्हें पढाई करनी थी। परिवार की आर्थिक परिस्थिति और जिमेदारी की वजह से वे अपनी पढाई पूरी नहीं कर पाए। १६ साल की उम्र में उनकी शादी हो चुकी थी। उस वक्त वे ११ वी में थे, पढाई छोड़ दी और खेती करना शुरू किया था। कोई भी काम करते थे। पर उनके मन में हमेशा था के कुछ बड़ा करना है। वे पंचायत का चुनाव लढे और बिनविरोध जीते भी। उसके बाद धरमचंदजी उपसरपंच बन गए थे। सरपंच शिक्षित नही थे। वे पढ़ लिख नहीं पाते थे। दोनों ने मिलकर पंचायत के काम किए। समय गुजरता गया।
कुछ दिनों बाद धरमचंद जी ने शिक्षित बेरोजगारी जिला उद्योग केंद्र प्रमाणित करके और बैंक के माध्यम से कर्ज लिया – जिससे एक किराना दुकान शुरू किया। कुछ समय बीतने के बाद वे किसी मिटिंग के लिए उदयपुर गए तो दुकान में पूरी तरह चोरी हो गई थी। उस वक्त काफी परेशानी का सामना उन्हें करना पड़ा। उन्होंने अपने भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा “ऐसा लगा के मै भटक गया हूँ”। इस अनुभव के बाद धरमचंद जी परेशान थे। वे उदयपुर गए वहा मजदूरी, कारीगिरी काम या चिनाई काम करने लगे।
उदयपुर में मजदूरी करते समय किसी काम से वे कोटडा में अपने घर आए थे। उस वक्त आदिवासी विकास मंच १९९० में तेंदुपत्ता के मुद्दे को लेकर हो रहे आंदोलन या धरनों में धरमचंद जी एक्टिव हो रहा थे। उस वक्त वे छोटे थे, फिर भी संघटन में तेंदुपत्ता रोको रेट बढ़ाने के लिए अभियान के साथ वे जुड़े। उस वक्त तेंदुपत्ता का भाव २ रुपए से १३ रुपए हो गया। संघर्ष करो और संघटित रहो इस काम को देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगा। उस वक्त धरमचंद जी की उम्र १८ से कम थी।
उम्र होने के बाद, २००२ में मामेर में उन्हें एक महिला हर्मिबाई ने मिटिंग में बुलाया। ऑफिस में आने के बाद नानालाल जी ने और हर्मिबाई ने धरमचंद जी का इन्टरव्यू लिया। जिस दौरान धरमचंद जी को काफी सवाल पूछे गये। जैसे संघटन के बारे मे, गाँव में क्या क्या समस्या है? इन सवालों पर धरमचंद जी के जवाब उन्होंने सुने।
“अगर कोई समस्या है तो मैं लोगों को संघाटित करेंगे, आन्दोलन करेंगे, धरने लगायेंगे, पंचायत में लेकर उनकी मदद करेंगे और समस्या का समाधान करेंगे।”
धरमचंद जी एक इंटरव्यू के दौरान
इस जवाब को सुनने के बाद इन्हें अगले दिन से ही काम देना शुरू किया गया। उस वक्त धरमचंद जी साईकिल चलाया करते थे। अगले दिन काम समझने पर उन्हें पता चला वे संघटन के साथ कार्यकर्ता के रूप में काम करने वाले है। अगले दिन नानालालजी ने सूरा, मनासिया अम्बा इस गाँव में जाने के लिए कहा जो कोटडा से ७० किमी है। वहा जाने के लिए धरमचंद जी को कोटडा से चिखला साईकिल पर जाना पड़ता था। और वहा से आगे ३० किमी पैदल जाना पड़ता था।
मेहडी और पहाड़ो (यह मामेर इलाके के २ गाँव है जो जंगल में है) में होकर धरमचंद जी जंगल में अकेले पहली बार गाँव में मिटिंग के लिए गए थे। उनके मन में डर भी था, पर उन्हें काम भी करना था। अकेले डर लग रहा था पर वे समाज के अंदर काम करके आगे बढ़ने की इच्छा रखते थे। इस तरह से वे संघटन के साथ जुड़े थे। वहा गाँव सभा लेना और आदिवासियों की समस्याओ पर काम करना उन्हें सहयोग करना, यही उनका काम था। काम के लिए जब गाँव में आते, तब दिन रात जंगल में ही रहते, खाना किसी के भी घर खा लेते थे। और कभी सोना भी गाँव में ही होता था। इस काम में उन्हें १२०० रुपए मिलना शुरू हो गए थे। सामाजिक कम उनका पसंदीदा काम है। इसी काम के साथ पैसा मिलना उन्हें अच्छा लगता था।
२००२ से २००८ तक वे कोटडा आदिवासी संस्थान के साथ काम किया करते थे। २००८ से २०१६ तक वे सचिव भी रहे। कुछ समय संयोजक, अध्यक्ष पद पर भी रहे है। अब यह पद उन्होंने स्वयं ही छोड़ दिया है। २०१० में राजस्थान राज्य संघटन बना १२ जिलो के २७ जनसंघटन के लिए राजस्थान आदिवासी अधिकार मंच यह एक संघटन बनाया गया जिसके कन्वेनर आज धरमचंद जी है।
३] विकास की परिभाषा
उनके अनुसार “समाज में बदलाव लाने के लिए, समुदाय के जीवन में, उनकी परिस्थितियों में कुछ बदलाव आए या उनका जीवन जीने का तरीका उसमे कुछ बदलाव आए तब इस बदलाव को विकास समझा जा सकता है।” जैसे आदिवासी समुदाय का अधिकतर जीवन जंगलो से जुड़ा हुआ है। जंगल की एक पॉलिसी है जिससे वह जूंझ रहा है, जिस वजह से आदिवासी की आजीविका कम होती जा रही है। चूँकि जंगल पर उनका हक़ नहीं रहा है।
आदिवासी समुदाय और गैर आदिवासी समुदाय इन दोनों के बीच में दरार बना हुआ है। वह फासला दूर हो जाए यह मेरे दृष्टिकोण में विकास है।आदिवासी इलाकों में रोड बन जाए और बिजली आ जाये सिर्फ यही विकास नहीं है। कुछ पॉलिसी और नीतियों के कारन आदिवासी जंगलो से दूर होते जा रहे है। आदिवासी को सड़क, बिजली, शिक्षा और पानी यह मिलना जरूरी है, पर उसे इस जंगल से दूर ना किया जाए, यही विकास है।
धरमचंद जी गाँव के रहने वाले इंसान है। सीधा साधे, ग्रामीण इलाकों में जंगल के रहने वाले और वहा समुदाय से जुडे हुए थे। कार्यकर्ता के रूप में कोटडा के आदिवासियों के मुद्दों पर काम करने का मौका मिला। जिस वजह से उन्हें काम में मजा आने लगा था। लोगों को मदद करने से ख़ुशी मिल रही थी। यह काम करते-करते वे संस्थान में सचीव बन गए। आज राजस्थान में काम करने वाले संघटनो के वे संयोजक है।

४ ] संगठन का काम करते समय दो महत्वपूर्ण अनुभव
संघटन में काम करते समय जंगल जमीन के मुद्दे को लेकर जन आंदोलन राजस्थान में चल रहा था। कोटडा के आदिवासी, धरमचंद जी और संघटन उसमे जुड़े थे और देश भर के लोग भी जुड़े। दिल्ली में इकठ्ठे हुए, वहा बार बार धरना हुआ और फिर देश में यह वन अधिकार का कानून बना। उसके बाद २००८ की बात है, वनाधिकार पर नियम नहीं बन रहे थे, उस सिलसिले में एक अहवाल जारी हुआ था। देश में जितने भी हाय-वे है वहा रास्ता रोको आन्दोलन किया जाए, चक्का जाम किया जाए। इस भारत बंद आंदोलन के दौरान धरमचंद जी और उनके संघटन ने भी कोटडा के देवला क्षेत्र में हाय-वे पर यह धरना दिया था।
उस वक्त धरने में १००० लोग शामिल थे। बहुत ही ज्यादा भीड़ थी, लोग रास्ते के दोनों तरफ खड़े थे। वहा तहसीलदार और उप जिल्ला मजिस्ट्रेट वहा आकर समुदाय से बात की फिर एक तरफ रास्ता खाली कर सभी आंदोलन करता को दूसरी तरफ खड़े रहने को कहा गया। फिर एक तरफ़ा रास्ता लोगों द्वारा बंद रखा गया। आदिवासी समुदाय की मांगे कलेक्टर को दी जाए और कलेक्टर राज्य सरकार को एक ख़त लिखे जिससे राज्य सरकार आदिवासियों की मांगे पूरी करे।
राज्य सरकार भी एक ख़त केंद्र सरकार को भेजे, जंगल जमीन के लिए नियम लागू करे, जंगल जमीन के लिए यह देश का आवाहन था। पर कुछ देर बाद जिस लाईन में लोग बैठे हुए थे, उस लाईन में एक ट्रक बहुत ही रफ़्तार से आगे बढ़ता हुआ आ रहा था। जो भरी भीड़ में घुस गया, जब लोग बैठे हुए थे लोगों के उपर ट्रक गुजर गया था। उसमे ४ लोग कुचल गए, उस वक्त उनके शरीर के टुकड़े कौनसे किसके है यह समझना मुश्किल हो रहा था। एक व्यक्ति के पैरो पर ६ टायर चढ़ गये थे उस व्यक्ति को लेकर धरमचंदजी उदयपुर रवाना हो गए।
वहा सरकारी अस्पताल पहुंचते ही उस व्यक्ति की मौत हो गई थी। अब धरमचंद जी उदयपुर में अकेले थे। वहा से रात को कलेक्टर से बात कर के जल्द से जल्द पोस्टमार्टम रिपोर्ट बना कर कोटडा के लिए निकल गये। रास्ते में गोगुन्दा में रुके, गोगुन्दा में एक लाश थी जिसके साथ सरफराज जी (कोटरा आदिवासी संस्थान के उनके साथी) थे फिर दोनों लाश को लेकर वे कोटडा के लिए रवाना हो गये थे। रस्ते में आते समय अमबुलंस की लाईट ख़राब हो गई थी। तब उन्होंने मोबाईल की लाइट चलाकर कोटडा आए। इस घटना के कारन लोग बहुत ही आग बबूला हो गये थे; इस घटना की वजह से धरमचंदजी पर केस भी हुई। जिसकी बजह से कोर्ट में बहुत चक्कर काटने पड़े।
२०१९ में सुप्रीम कोर्ट में FRA (Forest Rights Act) को लेकर केस चल रहा था। संविधानिक तरीके से यह कानून गलत बनाया गया है इसे ख़ारिज किया जाए यह कोर्ट का कहना था। १३ फरवरी २०१९ को कोर्ट से एक आदेश निकला। जिन्हें आज तक पट्टा मिला वे ठीक है पर बचे सारे कब्जे अतिक्रमण किए हुए जमीन है, इन सब लोगों को जंगल से बहार निकाला जाए।
इस आदेश के तहत भारत में २३ लाख आदिवासियों को जंगल से निकाला जा रहा था। राजस्थान के ५० हजार आदिवासियों के पट्टे नही थे। वे सालों से रहते आ रहे अपने घर से ही निकाले जाने वाले थे। कोटडा में धरमचंद जी इस आदेश के बारेमे सक्रीय थे। उन्होंने इस आदेश का विरोध किया आदिवासियों में जागरूकता के लिए कोटडा में एक मीटिंग रखी गई। जिसमे इस आदेश के बारे मे जानकारी दी गई और इसका विरोध करने के लिए कहा पर इनमे से सिर्फ १३ लोगों का साथ धरमचंद जी को मिला। उदयपुर में इस आदेश के खिलाफ धरना होने वाला था उसके ३ दिन पहले धरमचंद जी आदिवासी समुदाय के साथ कोटडा से पैदल उदयपुर के लिए रवाना होने वाले थे। पर कोटडा में उनके साथ कोई भी नहीं आए। उस दिन वे अकेले ही झंडा लेकर कोटडा से उदयपुर के लिए पैदल यात्रा करते हुए रवाना हो गये, उन्हें चलते हुए देखकर रास्ते में लोग उनके साथ जुड़ना शुरू हो गये थे।
आदिवासियों की फ़ाइले प्रक्रिया में थी और सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उन्हें गलत लग रहा था जो आदिवासी को अपने जंगल से दूर कर रहा था। धरमचंद जी कोटडा से पानरवा पैदल चलने लगे थे। पानरवा जाने तक १०० लोग उनके साथ जुड़ चुके थे। वहा एक रात के लिए वे रुके दुसरे दिन झाडोल से पहले एक गाँव में जाने तक २०० लोग हो गये थे। हर दिन ३० किमी चलना होता था तीसरे दिन ४०० लोग जुड़ गये थे। कुछ लोग खेरवाडा से, कुछ सलुम्बर से आए और उदयपुर के कमिश्नर कार्यालय तक ४००० लोग आ चुके थे। वहा उन्होंने एक दिन का धरना दिया, उदयपुर के बाद वे दिल्ली भी गये, वहा भी धरना दिया गया। आदिवासियों की मांगे सरकार के सामने रखी गई। जिसके वजह से आज राज्य सरकार ने वनाधिकार के दावे फिरसे रिव्यू किए, पर अभी भी वह कोर्ट का केस जारी है, किसी भी वक्त वह आदेश फिरसे जारी किया जा सकता है।
५ ] यह संस्थान स्वयं आदिवासियों से चलती है
धरमचंद जी के साथ कोटडा आदिवासी संस्थान को लेकर चर्चा की गई। आदिवासी के संघटन के लिए संस्थान और संघटन बने हुए है जिसे आदिवासी खुद चलाते है और कुछ गैर आदिवासी भी संस्थान में है जिनसे मदद मिलती है। संस्थान चलाना ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। पर अंग्रेजी बोलना या लिखना आदिवासी कार्यकर्ता के लिए समस्या है, जिस वजह से उन्हें शिक्षित गैर आदिवासियों की जरुरत पड़ती है। संस्थान चलाने का काम आदिवासी कर लेंगे, पर आदिवासी युवा में किसी को अच्छा पढाया जाए तो यह समस्या का समाधान हो सकता है। उस वक्त कोटडा आदिवासी संस्थान को किसी गैर आदिवासी की जरुरत नहीं पड़ेगी।
छोटा बच्चा गिरते-गिरते चलना सीखता है। बडबडाते हुए बोलना सीखता है। उसी तरह संघटन और संस्थान के कार्यकर्ता थे। वे जब संस्थान के साथ जुड़े तब ऑफिस आना, लोगों से बात करना, गाँव सभा करना, भाषण देना – यह नहीं आता था। जो धरमचंद जी ने सीखा और लोगों के लिए काम किए। उस वक्त उन्हें झिजक थी कौन क्या बोलेगा; डर लगता था भाषण करने में जो आज नहीं है। २००२ से आज तक वे काम कर रहे है। तो उनके मन से बात करने का डर निकल गया है। आज अगर उन्हें कलेक्टर या मुख्य मंत्री से मिलना है, तो वे सीधे जाकर उनसे बात कर लेटे है। राज्य स्तरीय या राष्ट्र स्तरीय भाषण देना हो तो वे यह भाषण बिना किसी से डरे बोल सकते है।
जब काम शुरू किया था उस वक्त संस्थान नई थी, लोग भी नए थे। लोगों के लिए काम करने वाली संस्थान भी यह एक ही थी। धीरे-धीरे संस्थान बदली है, उस वक्त संस्थान में पैसे मिलने के लिए ज्यादा नियम नहीं थे पर अभी FCRA के नियम की वजह से पैसे कम मिलने लगे है। ऐसे नियम आ गये है, जिस वजह से शुरुआती काल की संस्थान और आज की संस्थान में उन्हें फर्क नजर आता है। काम करने के लिए चुनौतिया बढ़ गई है।

६ ] अतीत की चुनैतिया और आज की चुनौती
आज आदिवासी को बचाना मुश्किल लग रहा है। जंगल का विस्थापन हो रहा है। आदिवासी को जंगल से दूर किया जा रहा है। शुरुआत में जंगल और आदिवासी साथ रहते थे। पर अभी कुछ नीतिया ऐसी बन रही है, जिसकी वजह इन दोनों में अंतर बढ़ रहा है। जंगल में जानवर और लोग साथ नहीं रह सकते है। जानवर की वजह से इंसानों को खतरा है। इसीलिए इंसानों को हटाओ या जानवरो को हटाओ – यह समझ बनी हुई है।
आने वाले समय में आदिवासीयों को उनकी आजीविका में काफी दिक्कते आएगी। अतीत में भी आई है जिस वजह से उन्हें समस्याओ का सामना करना पड रहा है। जमीन आपस में कम पड़ गई है। लोगों का पलायन बढ़ गया है, लोग आजीविका के लिए जंगल से दूर शहरों में काम करने जा रहे है।इसीलिए धरमचंद जी को यह चुनौती लगती है। जंगल में आदिवासियों की कमी हो जाने के कारन जंगल, पेड-पौधे कम हो रहे है। इससे जंगल में रहने वाले आदिवासी की आजीविका भी ख़त्म हो रही है।
जंगल को भी प्रायवेट में दिया जा रहा है। इन्डियन फारेस्ट एक्ट के अनुसार भारत का जंगल वर्गीकरण हुआ पर अभी उसमे नए संशोधन कर रहे है। जिससे सभी जंगलो में से आदिवासियों को हटाया जा सकता है। इसीलिए यह चुनौती उन्हें लगती है। यह विकास के नाम से बहुत बड़ी समस्या है। इस से लढना मुश्किल है। मानव समाज ने भी कही न कही गलतियां की है। इस संसाधनों से कोविड की बीमारी आयी थी, आदिवासी के लिए जंगल में उनकी आजीविका शुरू रखना भी एक चुनौती है। अब तो आदिवासी पढने भी लग गये है। अगर लोग संघटित रहे और सरकार अपनी योजनाओ पर और अपनी नीतियों पर ध्यान दे और उसे ठीक लागू करे तो आदिवासी बच सखते है। अगर आदिवासी को उनके परंपरा और संस्कृति के साथ जुड़ा हुआ रखा जाए तब कुछ हद तक समाधान है के आदिवासी बचेंगे।
७ ] सामाजिक कार्य के ओर नजरिया
मैंने (लेखक जो धरमचंद जी के सहयोगी भी है) धरमचंद जी को कभी आराम करते हुए नहीं देखा है। कोटडा के जंगलो में बहुत बारिश हो रही थी, हम सब ऑफिस में रुके हुए थे चूँकि अगर किसी काम से गाँव में काम के लिए चले गये तो नदी में पानी बढने से वापस आने का रास्ता बंद हो सकता है। इतनी बारिश में भी उन्हें कभी बारिश के कारन काम न करना या गाँव में न जाना यह मैंने कभी नहीं देखा। वे कहते हम तो सामाजिक कार्यकर्ता है, हमे यह सब बाते नहीं सोचनी चाहिए। उन्होंने सामाजिक काम दिल से किया है। अपने लोगों के लिए काम करना पसंद है। वे इतवार या सोमवार कुछ नहीं देखते, अपने काम में हमेशा व्यस्त रहते है। आदिवासी को उनका हक देने के लिए धरमचंद जी के मन में बहुत जूनून भरा हुआ है। काम के सिलसिले में अपना खाना भी भूल जाते है। वे इसे अपने घर का काम समझते और यह काम करते रहते है।
मै मेरे समाज का काम, संस्थान और संघटन के काम को अपना काम मानता हूँ और कर रहा हूँ। मै मेरे समाज, मेरे लोग जिनके पढाई के बारे मे स्वास्थ्य के बारे मे प्राकृतिक संसाधनों के बारे मे, रोजगार के बारे मे मै जूंझ रहा हूँ, वो लड़ाई हम सबकी है। लेकिन राजनितिक दल या अलग-अलग राजनितिक पक्ष के लोग जो पोलिटिक्स में है, उन्हें इस काम के बारे मे जानकारी नहीं है और वे सक्रीय नहीं है। कुछ नेता बनके सांसद में चले जाते है, पर उन्हें स्थानीय कोई भी मुद्दे पता नहीं है। या इन मुद्दों पर काम क्या करे यह उन्हें पता नहीं है। तो यही अंतर है सक्रिय सामाजिक काम और प्रतिनिधत्व में।
८ ] मुख्यधारा क्या है?
कोई भी समुदाय जो आर्थिक और शिक्षा में सक्षम है तो उसे मुख्यधारा कहा गया है। इन् समुदाय द्वारा आदिवासियों को पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। या मुख्यधारा से दूर ऐसा समुदाय कहा गया है। आदिवासी और गैर आदिवासी इन दोनों समुदाय के बीच फासला बना हुआ है। आदिवासी पिछड़ा नहीं है पर उसे शब्दों में पिछड़ा रखा गया है।
आदिवासी समुदाय यह सक्षम समुदाय है; उनके पास सभी संसाधन है। पर इन संसाधनों में किसी और का हक है। कोई और नीति काम कर रही है इसी वजह से वे कमजोर और गरीब है। आज आदिवासी अन्पड हो सकता है, फिर भी वह ज्ञानवान और अनुभवी है।
जो ऋषि मुनि और उससे भी पुराणी बाते जो पढाई में नहीं बताई जाती वह बाते है, उसका तक ज्ञान आदिवासी के पास है। उनके पास किसी इंजिनियर की डिग्री नहीं है, पर वह डिग्री वाली बाते सब जानता है। सारा काम जानता है। जडी बुटी का ज्ञान, खाद बनाने का ज्ञान, पारंपरिक बीजो का ज्ञान उनके पास है। जंगल बचाने के लिए कौन से पेड़ तोड़ने है और कौन से नए लगाने यह ज्ञान उसके पास है। कैसा मकान बनाना है, उसे कैसे ढाल देना है, हर वनस्पति का नाम। आदिवासी संस्कृति को कहानियो में, नाचने में, गाने में, और पूजा पाठ में ही संभाला गया है। यह लिखा हुआ नहीं मिलेगा पर फिर भी वे कहते है “आदिवासी अनुभवी है”। आदिवासी संस्कृति नाच गानों, कहानियो से प्रकृति के साथ जुडी हुई है, इसीलिए वह अनुभवी है। अब सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा यह विकास की चीजे है। इससे सरकार को लगता होगा यही उनका विकास है, पर ऐसा नहीं है। आदिवासी का जंगल ही उसका सब कुछ है। उन्हें उनके जंगल के साथ बनाये रखकर उसे शिक्षा, बिजली और पानी दिया जाए तो उसे मै मुख्यधारा कहूँगा।
९ ] वर्तमान के युवा को सलाह
आदिवासी समाज के साथ युवाओ को बाँध रखना चलता आया है। अभी युवा दिशा भटक चूका है। दिशाहीन है। आदिवासी समाज के विकास की गति इस प्रकार है, विकास के जितने भी संसाधन आए, टेक्नोलॉजी आयी, मोबाईल आए, तो दुसरे समुदाय से आदिवासी युवा प्रभावित हो रहा है। अभी आजीविका के संघर्ष में भी यह आदिवासी छुपा हुआ है। इसीलिए युवा भटक रहा है। अपने संस्कृति, अपने संसाधन, अपने पहचान, अपनी समुदाय के पास रहे, जिसमे उनकी ताकत है। इन्हे नहीं छोड़े और आजीविका कोई और भी रूप में चल सकती है लेकिन मूल चीजो को नहीं छोड़े। मूल जो जड़ है उसे नहीं छोड़े उसे जमाए रखे; पढ़ लिख गया इसीलिए अपनी पहचान, नाम या घर बदल देना यह ठीक बात नहीं है।
१० ] सरकार से आपकी क्या अपेक्षा है?
सरकार की जिम्मेदारी है बच्चा जन्म लेने से उसके मरने तक। धरती बनी तबसे आदिवासी है। सबसे पहला आदिवासी ही है जिन्होंने सरकार चलाई है बिना पढाई किए और वो सब कुछ इस धरती जंगल से ले रहा था। सरकार इस संविधान के तहत जो भी प्रावधान है और नीतिया है उन्हें ठीक ढंग से लागू करे। आदिवासी के जीवन में सरकार जब आई तब उनकी समस्या शुरू हो गई। आदिवासी समाज के प्राकृतिक धन उनके हिस्से में छोड़ दे।
संविधान में २४४ अनुच्छेद में एक शब्द है के भारत सरकार आदिवासी इलाकों की एक सूचि बनाएगा, उन इलाकों उन परिवार और उन समुदाय को आगे दुसरे समुदाय के बराबर लाने के लिए जनसँख्या के अनुपाद में बजेट देगा और वह उसी रूप में खर्च होगा। जो दुसरे समुदाय और आदिवासी समुदाय के बीच मे फासला है उसके लिए राजनितिक-आर्थिक-सामाजिक दर्जा दुसरे समाज के बराबर लायेगा। शिक्षा, राशन, बिजली, रास्ते इस बजेट के अलावा यह बजेट भी लिखा गया था जो १९७६ से लागू है। पर आज तक वह बजेट नहीं मिला यह मेरी सरकार से अपेक्षा है। पूरा बजेट दे दिया जाए और PESA कानून को ढंग से लागू कर दिया जाए।

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