उस दिन सत्र को कार्यान्वित करने की पूरी ज़िम्मेदारी बच्चों की थी क्योंकि स्कूल में शिक्षकों के साथ कला-सम्बन्धित एक कार्यशाला होने वाली थी| सभी शिक्षक एकदम सही समय पर उपस्थित थे, जिससे कार्यशाला को निर्धारित समय पर अंत करके सभी प्रतिभागी समय पर घर वापस जा सकें| सुबह के दस बजे थे| कार्यशाला शुरू ही होने ही वाली थी कि अचानक एक शिक्षक ने कहा, ”सर, मै ठीक चार बजे चला जाऊंगा| घर दूर है और मुझे साइकिल से जाना होता है|” यह सुनते ही बाकी के शिक्षक हल्का सा हँसे और बोले, ”अरे हाँ कृष्णा सर, चले जाइएगा आप| अभी आइये, बैठिये तो सही|” इसी के साथ कार्यशाला का श्रीगणेश हुआ|
लगभग सभी शिक्षकों ने अलग अलग गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और अपने विचार रखे| बीच-बीच में हँसी मजाक भी चलता रहा पर उन सब के बीच कृष्णा सर थे जो कभी कभार ही मुस्कुराते थे व ज़्यादातर शांत ही रहते थे| बातचीत के दौरान हमें पता चला कि वो कक्षा पांच में पढ़ाते हैं और विद्यालय में हिंदी ज्ञान एवं प्रलेखन के लिए जाने जाते हैं| दिन भर कोई न कोई बोलता रहा कि “कृष्णा सर, कुछ कहेंगे या मंद मंद मुस्कुराते ही रहेंगे”| वो हँस कर कुछ बोलते और वर्कशॉप में अपना योगदान देते| धीरे धीरे हम दिन की आखिरी गतिवधि पर आ गए जिसमे दो-दो प्रतिभागियों को मिलकर एक चार्ट पेपर पर एक दूसरे की रुपरेखा बनानी थी और उसमें उस व्यक्ति के गुण लिखने थे|
यहाँ मेरे साथ कृष्णा सर थे| सबसे पहले दिमाग में आया कि मुझे तो इनके बार में कोई जानकारी ही नहीं हैं और पता नहीं वे बात करेंगे भी या नहीं| फिर किसी तरह काम शुरू किया और सबसे पहले हमने निर्देशानुसार एक दूसरे की रुपरेखा चार्ट पेपर पर बना ली| किसी तरह हिचकिचाते हुए उनसे बातचीत करने की कोशिश शुरु हुई और उस दौरान मुझे यह जानकारी मिली:
कृष्णा सर कल्याणपुर मध्य विद्यालय में शिक्षक हैं|
मेरी दो बेटियां हैं| मैं उनको पढ़ाना चाहता हूँ और मुझे उनको घुमाना भी पसंद है| कुछ दिन पहले ही पटना ले गया था| (यह बोलते वक्त उनकी आँखों में एक अलग ही चमक थी और उनका चेहरा खिल उठा) मेरा घर स्कूल से 10-12 किलोमीटर दूर है| रोज़ साइकिल से आता जाता हूँ पर फिर भी मुझे लगता है कि मै अपनी बच्चियों के लिए जो करना चाहता हूँ वो नहीं कर पा रहा| यहाँ का माहौल ही कुछ ऐसा है कि कभी-कभी चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते| मैंने कुछ साल दिल्ली में भी नौकरी करी थी और अब यहाँ टीचर हूँ|
हम बात कर ही रहे थे कि अचानक उनकी नजर घड़ी पर पड़ी और उन्होंने देखा कि 4:05 हो गए हैं| समय देखते ही वे बोले, “ठंड का समय है, लेट हो जाएगा| मैं निकलता हूँ|” वह एकदम से उठे और कहा “सर ,मैं निकल रहा हूँ, लेट हो जाएगा| नमस्ते!” और तेज़ी से दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए चले गए|
उनसे बात करने के बाद यह तो निश्चित हो गया था कि वो एक समर्पित पिता हैं, उन्हें घूमना पसंद है और बेटियों के भविष्य के बारे में सोचते हैं| मुझे वह मेहनती भी लगे पर कहीं न कहीं उनके चेहरे के हाव-भाव व बातों से पता चल रहा था कि इस सब के बावजूद वे खुश नहीं है या फिर कह सकते हैं कि संतुष्ट नहीं हैं| फिर भी उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी जो शायद ये बता रही थी कि वे हार मानने वालों में से नहीं हैं|
हम अक्सर बहुत कुछ पाना चाहते हैं| सब जिंदगी की रेस में किसी न किसी चीज़ के लिए दौड़ रहें हैं| हर कोई कुछ करना चाहता है पर कहीं शायद इस भाग दौड़ में कुछ मिनट रुक कर जिंदगी को और खुद को सराहना भूल गए हैं| क्या हम सभी अपनी पीठ थपथपा कर खुद से बोल सकते हैं, कि “अच्छा कर रहे हो, मुझे गर्व है”| क्या हम कुछ समय एक दूसरे के लिए निकाल सकते हैं? क्या हम अन्य लोगों व खुद को समझने की कोशिश कर सकते हैं?
कृष्णा सर से बात करने व उनके बारे में और जानने के बाद मुझे ऐसे लगा कि कभी-कभी हम बेकार ही उलझते हैं जबकि सब कुछ सुलझा हुआ ही होता है|
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