कविताएँ बहुत कुछ कहती हैं

by | May 13, 2020

लाज़मी है कि कोविड-19 और उसके कारण हुए लॉकडाउन का यह समय बहुत कठिन है, हम सभी के लिए. परंतु आप और मैं उन खुशकिस्मत लोगों में से हैं जो इस भीषण गर्मी में भी अपने AC या कम से कम पंखों वाले कमरों मे बैठ अपने लैपटॉप या स्मार्टफोन पर ये ब्लॉग पढ़ रहे होंगे। मुझे गलत मत समझिएगा, मेरा उद्देश्य आपके मन में ग्लानि का भाव उत्पन्न करना नहीं है। परंतु अपने ही देश में हमारे आस-पास बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके सर पर छत नहीं है, इस भीषण गर्मी में एक पंखा तक नसीब नहीं हो रहा. यहाँ AC की बात करना बेईमानी होगी। एक वक़्त की रोटी के लिए भी जद्दोजहद कर रहे हैं और अंत में चौतरफा निराशा मिलने पर निकल पड़ते हैं सैंकड़ों मीलों की अकाल्पनीय दूरी तय करने को इस तपतपाती धूप में, अपने भूले-बिसरे घर की ओर…अपने गाँव की ओर।

बरसात की काली रात

Picture for representation purpose only

काली घनघोर रात है, छाई है घटा काली,
गरज रहे हैं बादल फट कर, मूसलाधार बरसता पानी,
यूं प्रतीत हो रहा मानो, ये रात ना ढलने वाली।
ये पूस की रात, ऊपर से ठण्ड ज़माने वाली।
वज्र अट्टहास की ध्वनि मानो संकेत दे रहे हो की,
ये रात और भयानक होने वाली।
बालकनी में खड़ा मैं, अपनी कल्पना से उत्तेजित,
सोच रहा हूँ की ये सत्य है या जाली।

तभी सहसा एक विचार मन में कौंध गया,
सुन्न हो गया मैं, शरीर में सिहरन पूरा दौर गया।
कहाँ सोया होगा गली का टॉमी, शेरू, झबरा यह ख्याल आया,
क्यूंकी पड़ोस के शर्मा जी के ‘टाइगर’ सा किस्मत तो उसने नहीं पाया।
जिस प्रकार बांस का पौधा खुले मैदान में फैलता जाता है,
उसी प्रकार मन में किसी ख़्याल के आने पर मस्तिष्क उसे और गहन कर देता है।
सोच के सागर में ज्यों मैं डूबता गया,
मन और विचलित, उदास, कुण्ठित होता गया।

वो जो बाबा हैं, जो कभी फुटपाथ, कभी मैदानों में अपनी रात बिताते हैं,
या वो बगल की झुग्गी-बस्ती की माता जो चार बांस पर पन्नी बांध,
दो वक्त की रोटी को अपने बच्चों के साथ दिन काटती हैं,
या वो गाँव के काका, जो खून-पसीनों से फ़सल को सींच कर देश का पेट पालते हैं,
या फिर अपने वो ताऊ, वो भईया जो सरहद पर अपनी जान की बाजी लगाते हैं,
ना जाने कैसे वो लोग ये भयानक रात बिताते हैं।
कुछ विवश हैं, लाचार हैं, या फिर कठोर हैं,
कुछ हमारी रक्षा को अपना फर्ज निभाते हैं।
पल-पल कल्पना मेरी और गहन होती जाती है,
क्या इस काली भयानक रात को थोड़ी भी दया नहीं आती है?
शायद नहीं आती है, लाज़मी है नहीं आती है।।


इस महामारी के कारण बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो अपने घरों से और अपनों से दूर हैं, जो चाह कर भी घर नहीं जा सकते। यह दूसरी कविता उनके लिए …

माँ! तेरी याद बहुत आती है

Picture for representation purpose only

हर सुबह प्यार से डांट कर,
अब कोई उठाने वाला नहीं है।
“बेटा क्या खाओगे”? पूछ कर,
अब कोई बनाने वाला नहीं है।
छोड़ दिया है गुस्सा करना, रूठना क्योंकि,
अब कोई मनाने वाला नहीं है।
कहने को है आजादी जीवन में,
पर ये आजादी अब नहीं भाती है,
माँ! तेरी याद बहुत आती है।

पहले तो झल्लाता था तेरी बातों और हिदायतों पर,
अब कोई समझाने वाला नहीं है।
कौन सही है या क्या गलत है,
अब कोई सिखाने वाला नहीं है।
यूं तो बातें तेरी प्रवचन लगती थीं,
अब कोई बताने वाला नहीं है।
कहने को है आजादी जीवन में,
पर ये आजादी अब नहीं भाती है,
माँ! तेरी याद बहुत आती है।

अब जो दूर हूं मैं तुझसे,
तुझे कोई सताने वाला नहीं है।
मुझें पता है छुप-छुप कर रोती हो तुम,
शायद कोई चुप कराने वाला नहीं है।
माँ! तेरे जैसा प्यार,
कोई जताने वाला नहीं है।
दो पल की भी बातें तुझसे,
एक अलग सा सुकून दे जाती हैं,
अब और क्या बताऊं “माँ”! तुझे,
सच्ची, तेरी याद बहुत आती है।

कविताओं के माध्यम से अपने ख्याल और विचार आपके सामने रखना मेरा शौक ही नहीं बल्कि अपनी कहानी कहने का एक तरीका भी है … आगे भी कोशिश करूँगा कि फेलोशिप सम्बंधित किस्से और अनुभव इसी तरह आपके समक्ष प्रस्तुत करता रहूं।

Stay in the loop…

Latest stories and insights from India Fellow delivered in your inbox.

0 Comments

Submit a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

%d bloggers like this: