मैं 23 साल का हूं और इन वर्षों में 20 से अधिक स्थानों पर रहा हूं। आजकल मैं उत्तराखंड के नैनीताल जिले में अवस्थित एक छोटे से गांव सुयालगढ़ में हूं। मुझे उम्मीद है कि आप सब नैनीताल को भारत के एक प्रमुख पर्यटन स्थल होने के नाते जानते होंगे। झील, पर्वत, मंदिर एवं प्राचीन सांस्कृतिक विरासत यहाँ की मुख्य विशेषताएं हैं। आम तौर पर नैनीताल का नाम सुनते ही हम में से अधिकांश लोगों के विचारों में हिल स्टेशन, हनीमून, प्रकृति, झील, पहाड़ इत्यादि चीजों की खूबसूरत तस्वीरें तैरने लगती हैं। कुछ सप्ताह पहले तक मैं भी ऐसे लोगों में से ही एक था।
कुछ दिनों पहले जब फेलोशिप के दौरान मुझे नैनीताल जिले में एक प्रोजेक्ट पर कार्य करने के अवसर के बारे में बताया गया तो मुझे बेहद खुशी हुई। उत्साह से लबरेज मैं दिल्ली में बैठा-बैठा नैनीताल की खूबसूरती के बारे में रूढ़िवादी कल्पनाएँ करने लगा और वहां पहुंचने का बेसब्री से इंतजार करने लगा।
आखिरकार जल्द ही वह समय आया जब मैं ट्रेन से काठगोदाम रेलवे स्टेशन पहुंचा। वहां से अपनी संस्था की एक सदस्य और 2016 की इंडिया फेलो, अंजली नाबीयाल के साथ बचे हुये लगभग 80 किलोमीटर के सफर के लिए कार में सवार हो गया। यह सफर लगभग ढाई घंटे का था और इस दौरान अंजली ने मुझे उद्यम संस्था के बारे में बताया, संस्था में मेरा किरदार समझाया, रास्ते में मिलने वाले गांव, मंदिर, कैफे एवं अन्य चीजों से भी अवगत कराया। मैं उनकी बातों को उत्सुकता से ध्यानपूर्वक सुनता रहा।
काठगोदाम से चलने के बाद अगले लगभग एक-डेढ़ घंटे तक पहाड़ी रास्तों के अलावा मुझे सब कुछ सामान्य लगता रहा।रास्ते में हमें बाज़ार, कई गाड़ियां और ढेर सारे लोग मिल रहे थे जैसे आम सड़कों पर होते हैं, पर उसके बाद हर तरफ बेहद कम लोग दिखने लगे। बाज़ार और दुकानें मिलना बंद हो गया। जनसंख्या घनत्व कम मालूम होने लगा। अब मेरे मस्तिष्क में उत्साह एवं जिज्ञासा के साथ-साथ उलझनें एवं संदेह भी उत्पन्न होने लगा था।
मैंने सोचा क्या मैं इन पहाड़ी इलाकों में रह पाऊंगा जहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट की पहुंच नहीं है, जहां बाज़ार नहीं है, दूर-दूर तक गिने चुने घर व लोग दिखाई देते हैं। खैर, अंजली से बातें करते हुए एवं नए रास्ते को देखते हुए मैं जल्दी ही अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गया।
यहाँ मैं एक बेहद सीमित संसाधनों में कार्य करने वाले एक स्कूल के साथ काम करने वाला था. वहाँ पहुंचने पर अंजली और मैंने अगला 1 घंटा स्कूल के संस्थापक बृज मोहन जोशी एवं गीता जोशी के साथ उनके घर पर बिताया। जोशी जी ने इस स्कूल की स्थापना की रोचक एवं प्रेरणादाई कहानी हमें सुनाई। उन्होंने बताया कि 2010 में इस स्कूल की शुरुआत बिना किसी फर्नीचर, इंफ्रास्ट्रक्चर, एवं सरकारी मान्यताओं से की गयी थी। उनके शब्दों में, “मैंने 10 बच्चों के साथ स्कूल शुरू करने की योजना बनाई थी पर मां सरस्वती की ऐसी कृपा हुई घनश्याम जी कि हमारे पास पहले ही साल 25 बच्चे आ गयें.”
इस स्कूल की शुरुआत बृज मोहन जोशी एवं उनके एक रिश्तेदार दिनेश पंत (प्रिंसिपल) ने अपने जज़्बे एवं भावनाओं के आधार पर एवं इस क्षेत्र की ज़रूरत को पहचानकर की थी। 6 वर्षों तक हर वर्ष स्कूल के संचालन में कई व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां आती रही पर अपने मज़बूत इरादों के दम पर ये लोग डटे रहे। पिछले 2 वर्षों में स्थानीय इलाकों में काम करने वाले कुछ सामाजिक उद्यमियों एवं गैर-सरकारी संस्थाओं ने उनके प्रयासों में सहयोग करना शुरू किया है। इससे स्कूल में इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास हुआ है और स्पोर्ट्स मटेरियल, किताबें, कंप्यूटर, टीचर्स ट्रेनिंग जैसी वस्तुओं एवं सेवाएं प्राप्त हुई हैं।
अब मैं आपका ध्यान थोड़ा सा इस क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिवेशों की तरफ ले जाना चाहता हूं। जैसा कि मैंने ऊपर ज़िक्र किया है कि नैनीताल जिला एवं सुयालगढ़ गाँव के आसपास का पूरा इलाका पहाड़ी है, इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य पेशा खेती है। यहां के ज़्यादातर किसानों के पास बहुत छोटी मात्रा मे ज़मीन उपलब्ध है। उनकी आय भी बहुत कम एवं सीमित है। इस क्षेत्र की आबादी एवं जनसंख्या घनत्व काफी कम है, साथ ही रोजगार के अवसरों की घोर कमी और शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण इस क्षेत्र के लोग पलायन (migration) को विवश हैं। क्षेत्र के लोगों के बीच में शिक्षा के प्रति जागरूकता भी कम है। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी यहाँ बेहद कम लोग ही हैं जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर पा रहें हैं।
मुझे उम्मीद है कि ऊपर लिखित संक्षिप्त विवरण से आप इस क्षेत्र की स्थिति एवं परिवेश के बारे में समझ पाए होंगे। स्कूल की अहमियत को आप इस बात से और बेहतर तौर पर समझ सकते हैं कि यहाँ लगभग 15 किलोमीटर दूर से विद्यार्थी आते हैं। मैं अपनी सीमित समझ, जानकारी और अवलोकन के आधार पर यह कह सकता हूं कि अंग्रेज़ी माध्यम का यह स्कूल इस क्षेत्र के उन सैकड़ों बच्चों के लिए आशा एवं प्रकाश की वह किरण है, जो देश के अन्य हिस्सों की बच्चों की तरह इन्हें भी इंजीनियर, डॉक्टर, ऑफिसर, व्यापारी, वैज्ञानिक या उद्यमी बनने के ख्वाबों को पंख दे सकता है।
इस स्कूल की अभी भी कुछ ज़रूरते एवं चुनौतियां हैं, जैसे बच्चों की कम संख्या, शिक्षकों मे कौशल की कमी, निम्न वेतन, क्षेत्र में शिक्षा के प्रति कम जागरूकता एवं अन्य संसाधनों की कमी। मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय में हम और आप जैसे लोग इन ज़रूरतों को पूरा करने व इन चुनौतियों का समाधान निकालने के लिए यहाँ तक पहुंचेंगे।
और अंत में…
जिस दिन मैं इस गांव में आया था उस दिन मैं अपने इन विचारों से आतंकित था, कि मैं ऐसी जगह कैसे रह पाऊंगा जहां ऑनलाइन शॉपिंग नहीं की जा सकती, जहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है, जहाँ मैं समोसे, रसगुल्ले और आइसक्रीम जैसे मामूली चीजें इच्छा रहने पर खा नहीं सकता, जहां मैं जिम (Gym) नहीं जा सकता और जहां 4G नेटवर्क नहीं आता। पर यहां कुछ दिन जी लेने के बाद अब मैं इन विचारों से मुक्त हो गया हूं और शायद इसकी वजह है अर्थपूर्ण एवं मूल्य आधारित कार्य, स्कूल के बच्चों की मुस्कान तथा यहां के स्थानीय निवासियों व स्कूल से जुड़े लोगों का मेरे प्रति प्यार और सम्मान
मेरे शब्दों में इतनी ताकत और धार नहीं जितना हकीकत कि उस तस्वीर और दृश्य में है जिसमें मैं हर दिन फटी-पुरानी स्कूल ड्रेसों में चेहरे पर बेशकीमती मुस्कान लिए उन दर्जनों बच्चों को देखता हूं और इस जगह पर रहने एवं कार्य करने में सार्थकता, खुशी एवं संतुष्टि का एहसास कर पाता हूं।
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