राजस्थान मे उदयपुर जिले के कोटडा तहसील मे कोटड़ा आदिवासी संस्थान अलग-अलग मुद्दों पर काम करती है जिसमे हम यहां किसानों के साथ भी काम करते है। आदिवासी समुदाय जंगल में सालों से रहते आये है। उनके दादा, परदादा के ज़माने से ही पहाड़ों के इलाको में यह आदिवासी खेती करते रहे है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, राज्य में विकास होता गया और जंगल में आदिवासियों की समस्या बढती गईं। समस्या वनभूमि मिलने की थी। कुछ आदिवासी लोगों की ज़मीन उनके नाम पर थी और कुछ लोगों को ज़मीन अपने नाम पर करने के लिए सरकारी दफ्तर में चक्कर काटना शुरू करना पड़ा। यह लड़ाई आज भी चल रही है।
आदिवासी समुदाय की असली दौलत उनकी ज़मीन और जंगल है। जिस जमीन पर वह व्यक्ति या उनका परिवार सालों से रहते आये है, उसी के लिए आज उन्हें लड़ना पड़ रहा है। इसमें वनविभाग का कहना है “आदिवासी क्षेत्र में जहा लोग सालों से रहते है वह जमीन सरकार की है।” खुले आसमान में खुद की दौलत को खुला रखना, दिन रात वहाँ पहरा देना, अपने परिवार को संभालना और खेती करना यह आदिवासी किसान के लिए बहुत ही मुश्किल काम है। यहाँ खेती करते समय मौसम साथ दे इसका भी कोई भरोसा नहीं है।
कोटडा आदिवासी संस्थान, आदिवासी किसानों की आजीविका बढ़ाने के लिए प्रयास कर रहा है। यहाँ किसान खेती करते है पर उसमे उन्हें घर चला कर कुछ पैसे बच जाए, इतना मुनाफा नहीं मिलता। वह कोई भी फसल उगाता है तो उसका मुनाफा उन्हें 4 माह के बाद मिलता है। तब तक वह अपने दोस्तों से या रिश्तेदारों से कर्जा लेकर काम चलाता है। इसी कर्ज़े की वजह से 4 माह का मुनाफा मिलने के बावज़ूद भी उनके पास ज्यादा पैसे नही बचते है।
एक निरंतर आय बनी इसीलिए कुछ किसान मजदूर बन जाते है जहा उन्हें हर दिन पैसा मिलता है | उत्तरी गुजरात के साबरकांठा और बनासकांठा जिला में बड़े किसानों व जमीदारों के यहां पर आदिवासी श्रमिक उनके परिवार के साथ खेती का काम करते है | कुछ श्रमिक छोटे कसबों में निर्माण कार्य के लिए व पत्थर गढ़ाई का काम भी करते है। पर मजदूरी में उनका ज्यादा शोषण होता है| उन्हें मेहनत करके भी पैसे कम मिलते है। जैसे श्रमिक काम में किसान मजदूर को 5वा हिस्सा देने की बात करते है। और अंत मे हिसाब के समय श्रमिक को कम पैसे देते है।
इसीलिए कोटड़ा आदिवासी संस्थान ने किसानों को सब्जियां उगाने के बारें मे प्रशिक्षण देना शुरू किया है। जिसकी वजह से इनको बाहर जाकर काम करने की जरूरत ना पड़े। इसमे अभी हम 80 किसानों के साथ काम कर रहे है। इससे पहले संस्थान ने किसानों के साथ अलग-अलग तरीकों से काम किया पर सब्जियों को लेकर यह संस्थान का पहला प्रयास है। उनको हमने अलग-अलग तरह के सब्जीयों के बीज दिए जिसमे पालक, मेथी, धनिया, मुला, गाजर, बैंगन, टमाटर, लहसुन और प्याज शामिल है।
उन को यह जानकारी दी है की सब्जियाँ बोने से उनकी आजिविका बढ़ सकती है, पर यहाँ आदिवासी किसान खुद को स्वतंत्र रखना पसंद करते है। जैसे अगर एक बार कोई फसल बुवाई कर दी तो हफ्ते में एक बार पानी देकर स्वतंत्र होना उन्हें पसंद है, हर दिन अपने खेत के साथ जुडे रहना उन्हें पसंद नहीं है, इसी वजह से वे कभी पशुपालन भी नही करते है। अगर पशुपालन करेंगे तो उन्हें हर दिन दूध निकालना व उनका अन्य काम करना पड़ेगा।



आदिवासी समुदाय सब्जिया बोने से किसी जोखिम में पड़ना नहीं चाहते। उन्हें यह आशंका होती है के इन सब्जियों को बोने से बजार में कहा बेचेंगे या इन सब्जियों को अच्छा भाव मिलेगा या नहीं। इसके साथ ही लॉकडाउन के समय कोटडा में सब्जिया गुजरात से मंगाई जाती थी। जिसकी वजह से यहाँ सब्जिया महंगी बिकती थी। इन सब कारणों को समझकर कोटडा आदिवासी संस्थान ने आदिवासी समुदाय को यह सब्जिया दी |
बीज वितरण होने के बाद हम हर ७ दिन बाद हर खेत में सब्जियों की देखरेख के लिए जाया करते थे। उस दौरान फसलों की स्थिति देखी जाती थी। इसी समय मुझे किसानों को और उनकी मेहनत को करीब से देखने का मौका मिला। इन सब्जियों के बीज को बोने के ४ दिन बाद ही अलग-अलग जगह बारिश हुई थी जिसकी वजह से काफी लोगों का नुकसान हुआ। बारिश के बाद मैंने सभी के खेत में जाना शुरू किया।
हर ७ दिन में अलग-अलग खेत में जाया करता था। इन मुलाकातों के दौरान – सब्जी की उपज देखना, किसानों की समस्या सुन्ना। जब मै उनके खेत में जाता तो उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता था। कुछ लोग जैविक खेती करते, कुछ जैविक दवाइयाँ बनाते। बीज बोने पर खाद कब डालना है, खाद कैसे बनाना है यह सीखने को मिला। उनसे सीखकर जिस किसान को यह जानकारी नहीं, उन्हें मै बताया करता था।
किसानों को संस्थान से पूरी तरह मदद की गई, बीज देने के बाद उन्हें समय पर दवाईयां दी गई। इसके साथ ही यह सब्जियाँ बाज़ार में बेचने के लिए संस्थान की ओर से एक सब्जियों के परिवहन के लिए वाहन देने के बारे मे भी किसान को बताया गया। इस वजह से उन्हें सहारा मिला यह बात उन्होंने खुद कही है।
सब्जी के बीज देकर 4 माह बीत गए। सब्जियों से उनका अच्छा फायदा हुआ। यहाँ हर किसान एक दिन में बाजार जाकर सब्जी ले आया करता था | बाजार में आना और जाना इसमे ६० रु. खर्च हो जाते और सब्जी के ४० रु. अलग, मतलब एक दिन में उनको १०० रु. खर्च करने पड़ते थे। पिछले ३ माह से उन्हें बाजार जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनका हर माह में ३००० रु. आने जाने का किराया बच जाता है।
कुछ किसानों ने सब्जी घर में बनाकर खाने के साथ-साथ, बेचना भी शुरू किया है, उससे भी उनको मुनाफा हुआ। कुछ ने यह सब्जियाँ आसपास पड़ोस में और रिश्तेदारों में बेचीं है। इस से उन्हें एक माह में ६००० रु. तक का फायदा हुआ है। ४ माह बाद कुछ सब्जियों का मौसम ख़त्म होने के समय उन सब्जियों के बीज चयन करने का काम भी उन्होंने किया है। उनकी आजीविका बढ़ाने और उनका अनुभव व समस्याएं जानने के लिए कोटड़ा, मामेर और देवला क्षेत्र में १० ,११ और २५ मार्च को १ दिन की कार्यशाला रखी गई थी। इस कार्यशाला का कामकाज संभालने का काम मुझे मिला था।

यहाँ किसानों को सब्जियों की खेती से व्यापार करने के लिये प्रशिक्षण दिया गया। उनकी समस्याओं पर भी बात हुई, जैसे धूप के दिनों में किसानों को पानी की समस्याओं का सामना करना पड़ता है| इसमें फसल जल जाती है, नुकसान होता है। साथ ही उन्होंने कहा कि पिछली बार दिए गये बीज उनके लिए कम थे। इस बीज से जो फसल आयी उसका सिर्फ घर में सब्जी बनाने में उपयोग हुआ| अगर उन्हें सब्जियाँ बाजार में बेचनी हैं, तो उसके लिए हर सब्जी का बीज ३०० ग्राम तक देना होगा – यह सुझाव किसानों द्वारा बताया गया।
पानी की समस्या के लिए उन्होंने संस्थान से कुआँ गहरीकरण करने की मांग की है।
किसानों से यह काम कराने का उद्देश्य उनसे सब्जियों का व्यापार कराना है जिससे उनकी आजीविका बढ़ सके और उन्हें मजदूर बनने की जरूरत ना पड़े| यह काम हम ज्यादा से ज्यादा किसानों के साथ करना चाहते है जिससे हम मजदूरी रोक सके और आदिवासी किसान को आत्मनिर्भर बना सके।
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