Picture for representational purpose only
हज़रत निजामुद्दीन औलिया, चिश्ती घराने के संत थे. इस सूफी संत ने 1303 में मुग़ल सेना का हमला रोका था. इस समय में ये सभी धर्मों के बीच लोकप्रिय हुए. हज़रात साहब काफी प्रचलित थे. 92 साल की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी. उसी वक़्त उनके लिए मकबरे का निर्माण किया गया था. जानकार बताते हैं कि इसका नवीनीकरण 1562 तक चलता रहा. दिल्ली के इतिहास में हज़रत निजामुद्दीन के मकबरा को सूफी काल की एक पवित्र दरगाह माना जाता है.
दिल्ली अनगिनत मीनारों और मज़ारों से सजी है. निजामुद्दीन दरगाह के बारे में कौन नहीं जानता है. यहाँ हर रोज़ हज़ारों लोग अपनी मन्नत मांगने आते हैं. दरगाह की वजह से यहाँ बहुत से लोगों को रोज़गार मिलता है. यहाँ निजामुद्दीन बस्ती भी है. इन गलियों में इत्तर की खुशबू, मिठाइयों की मीठी सुगंध, चारों ओर सजी दुकानें और दुकान दारों की आवाज़ें सराबोर रहती हैं. इनसे हज़ारों लोगों का घर परिवार चलता है. दिल्ली में ऐसी न जाने कितनी बस्तियां हैं जहाँ कई प्रदेशों से लोग अपनी आजीविका के लिए आते हैं. कुछ लोग यहाँ से काम करके अपने गांव घरों को वापस लौट जाते हैं पर कई लोग यहाँ हमेशा के लिए रह जाते हैं. ऐसे लोगों के लिए आजीविका चलाना और मुश्किल हो जाता है.
पलायन
हज़रात निजामुद्दीन के नाम से जाने जानी वाली इस बस्ती में रहने वाले अधिकांश परिवार प्रवासियों के हैं. ये वही प्रवासी हैं जिनके बारे में अभी कोविड-19 को आधार बनाकर की गयी दोषबंदी के दौरान सब को चिंता थी. सड़कों पर इतने लोग कहाँ से आ गए. इन्हें पैदल क्यों चलना पड़ रहा है. महिलाएं और बच्चे भी हैं. कुछ सड़क हादसों और कुछ समय बाद शायद सब ठीक हो गया. अब कोई नहीं जा रहा उनका साक्षात्कार लेने.
प्रवास क्या है
वैसे हम इसे पलायन के नाम से भी जानते हैं. गांव से शहर की ओर काम की तलाश में हर रोज़ जाने कितने लोग आते हैं. कुछ हुनरमंद तो कुछ किस्मत के सहारे. कुछ न कुछ कर लेने का भरोसा लेकर. बड़ी बारीकी और सावधानी से झांकना होगा इनके ज़हन में. जितनी हिम्मत है इनमें, उतनी अस्थिरता भी. कभी आगरा, कभी दिल्ली तो कभी पंजाब, इनका कोई स्थायी पिनकोड नहीं है.
अपने गांव, कस्बों से दूर, किसी अनजान जगह में आजीविका की तलाश में आते तो हैं लेकिन घर को कभी नहीं भूलते. वे हर साल, छः महीने में अपने गांव घर आते हैं. यही बात तो इन्हें प्रवासी बनाती है वरना हम इन्हें भी विस्थापित न कह देते. क्योंकि जो एक बार विस्थापित हो गया उसका पुरानी जगह से नाता और अधिकार दोनों टूट जाता है.
भौगोलिक दृष्टि से देखें तो प्रवास दो तरीके का होता है – जिला एवं राज्य के अंदर या बाहर, और देश के अंदर या बाहर. देश के बाहर का प्रवास थोड़ा अलग है क्योंकि देश के स्तर पर कम से काम इतना तो पता होता है कि कितने नागरिक किस देश में हैं. बाकियों के लिए देश, राज्य, जिले तो क्या, पंचायतों को भी नहीं पता होता कि उनके नागरिक कहाँ हैं. वैसे कोविड-19 ने सरकारों को इस बात को स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया है. वरना पहले तो सरकारें कहती थी कि पलायन है ही नहीं. काम के लिए कोई बाहर नहीं जाता. इसके अलावा प्रवास को कई प्रकार से समझा जा सकता है – परिवार के साथ या अकेले का प्रवास, अलग अलग व्यवसाय से जुड़ा प्रवास, रहने-खाने-स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए किया गया प्रवास आदि.
हाल ही में जब मैं निजामुद्दीन बस्ती गयी, तो मेरी मुलाकात और बातचीत वहां रहने वाले कुछ लोगों से हुई, जो बाहर से आकर यहाँ बस गए थे. उनमें से कुछ यहाँ लिख रही हूँ…
अहमद जी* बताते हैं कि वे 1980 में अपने परिवार के साथ यहाँ, निजामुद्दीन, कुछ काम की तलाश में आये थे. “यहाँ के शुरूआती रस्ते पर मेरी चाय की दुकान है, जिसकी कमाई से मेरा घर चलता है. हम बिहार जिला मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले हैं. मेरा आधा परिवार आज भी गांव में रहता है. दिल्ली और ऐसे बड़े शहरों में हज़ारों लोग अपने और अपने परिवार के लिए मजदूरी करने आते हैं. आज से दस साल पहले तक दुकान में अच्छी कमाई थी, सब खर्च करने के बाद भी चार पैसा बचता था. अब बाकी दुकानें बढ़ जाने से दुकानदारी पहले से कम हो गयी है. लॉकडाउन के बाद से तो स्थिति और ख़राब है. घर चलाना मुश्किल हो गया है. पहले हर रोज़ दुकान में 8 लीटर दूध लगता था. कम से कम 300-400 चाय बिक जाती थी. अब 2-3 लीटर दूध लेते हैं, और वो भी बच जाता है. दिन भर में 50 चाय निकल जाये तो बड़ी बात है.”, अहमद जी ने कहा.
“इस दुकान का किराया प्रतिदिन 350 रूपये है. और 500 रूपये महीना हम बिजली का बिल देते हैं. जब कभी तन्हाई में बैठते हैं तो लगता है कि ज़िन्दगी झंड हो गयी है. भविष्य की चिंता लगी रहती है. यहाँ 40 साल से अधिक हो गया है लेकिन यहाँ से गांव घर ज़्यादा अच्छा है. यहाँ किराये के घर में रहते हैं. मालिक किराए में रिहायत नहीं देते. मेरा सात लोगों का परिवार है. हम दो मियां बीवी और पांच बच्चे. जानलेवा बीमारियां चल रही हैं, कुछ हो गया तो न तो हमारा अपना यहाँ घर है न दुकान. क्या करेंगे समझ नहीं आता.”
– अहमद जी
अफसाना ख़ातून* भी मूलतः बिहार के सुपौल जिले की रहने वाली हैं. यहाँ बस्ती में वे अपने परिवार के साथ रहती हैं. उनके पति पास के पुलिस थाने में झाड़ू पोछे का काम करते हैं, जिससे घर में पांच हज़ार रूपये महीना आता है. उनके परिवार में चार लोग हैं. वे बताती हैं, “लॉकडाउन के वक़्त हम खाने को भी मोहताज थे. काम धंधा सब बंद हो गया था. यहाँ आग़ा ख़ान फाउंडेशन एवं दिल्ली सरकार की ओर से राशन बंट रहा था. कई लोगों को मिला, खासकर कि जो सरकार और संस्थानों के पहचान के लोग थे, लेकिन जिन्हें सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी, जो सबसे गरीब थे, उन्हें कुछ नहीं मिला. राशन बंट जाने के बाद हमें पता चलता था कि पर्ची मिली थी.”
“मेरे दो जुड़वाँ बच्चे हैं. सरकारी स्कूल में जाते हैं. मेरे पास भी एक छोटी चाय की टापरी थी, सरकारी ज़मीन पे. रोड का काम चल रहा था, तो तोड़ दी गयी. बीस साल से यहाँ बस्ती में किराय पे रह रहे हैं. हर दिन सोचना पड़ता है, किराया कैसे जाएगा, बच्चे क्या खाएंगे.”
– अफसाना ख़ातून
इन मजबूर लोगों ने अपना पेट पालने के लिए हज़ारों बस्तियां बसा दी हैं, और रोटी की तलाश में अपनी पहचान भुलाते जा रहे हैं.
*बदला हुआ नाम
0 Comments